क्यों बारहमासी हो गया जल रुदन
Perennial water crisis in India
समाचार कह रहे हैं कि अभी चौमासा बीता भी नहीं कि देश के कई हिस्सों से पानी की कमी को लेकर रुदन शुरू हो गया है। देश के कई बड़े तालाब व झीलों ने अभी से पानी की कमी के संकेत देने शुरू कर दिये हैं। हकीकत यह है कि पानी को लेकर रुदन चौमासे से पहले भी था, चौमासे के दौरान भी और अब आगे यह चौमासे के बाद भी जारी रहने वाला है। यह अब बारहमासी क्रम है; मगर क्यों? आइए, सोचें।
मौसम विभाग कह रहा है कि इस रुदन का मुख्य कारण भारत के 59 फीसदी हिस्से में पिछले वर्ष की तुलना में कम बारिश का होना है। पंजाब, हरियाणा से लेकर ओड़िशा, केरल और अंडमान तक तथा उत्तराखण्ड, यूपी से लेकर पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों में औसत के 08 से लेकर 36 प्रतिशत तक कम बारिश हुई है।
अध्ययनकर्ता कह रहे हैं कि कहीं पानी की कमी, तो कहीं डूब का यह संकट आसमान से नहीं बरसा; इसे बड़े बाँधों और पानी का व्यावसायीकरण करने वाली कम्पनियों ने मिलकर पैदा किया है। 37,500 हेक्टेयर भूमि सरदार सरोवर बाँध की डूब में आने के कारण रो रही है, तो 40,000 किसान अपनी जड़ों से बेदखल कर दिये जाने के कारण रो रहा है। नर्मदा किनारे के 12,000 मछुआरे इसलिये रो रहे हैं कि प्रधानमंत्री श्री मोदी जी द्वारा डाली भटभुट बाँध की नींव उनकी आजीविका पर कुठाराघात की नींव साबित होगी।
कुछ आरोप लगा रहे हैं कि आर.ओ. और बोतलबन्द कम्पनियों की मिलीभगत के कारण कई नगरों में जलापूर्ति के अवधि अभी से घटा दी गई है। आपूर्तिकर्ता स्थानीय निकायों द्वारा आपूर्ति किये जल में सीवेज की दुर्गन्ध और गन्दगी की अनदेखी लोगों को पीने और रसोई के लिये बोतलबन्द पानी खरीदने को विवश कर रही है। बीते कुछ महीनों में दिल्ली जल बोर्ड की आपूर्ति की गुणवत्ता, बोतलबन्द पानी की बढ़ती बिक्री और ई-प्याऊ का बढ़ता चलन इसका प्रमाण है।
किसान की सुनो (Listen to farmer)
किसान कह रहा है - ''भैया, सिर्फ कुछ कम पानी बरसने से किसान नहीं रोता; किसान रोता है गलत समय पर वर्षा होने या न होने से। हम सब 20 जून से ही तैयारी किये बैठे थे; पहली फुहार गिरी 04 जुलाई को। धान की रोपाई 15 जुलाई तक हो जानी थी। 10-12 जून को अच्छी बारिश हुई। हमने रोपाई भी कर दी। किन्तु इसके बाद अगले 20 दिन बारिश ऐसे गायब हुई, जैसे गधे के सिर से सींग। पाँच मिनट कभी बरस भी गया, तो उसने उमस और खरपतवार बढ़ाने के अलावा क्या किया?
धरती से पानी खींचकर किसी तरह धान बचाया, तो खेतों में मूँग, उड़द और तिल से ज्यादा खर-पतवार की बढ़वार दिखाई दी। दिन-रात मेहनत कर खर-पतवार से निजात पाई। जितनी फसल नहीं होगी; उतनी तो श्रम लागत चली गई। आषाढ़ में तेज बारिश और सावन में धीमी वर्षा की झड़ी का चलन रहा है। किन्तु इस जून 15 से 25 जून के बीच फसल में फूल आने के ऐन मौके पर ऐसी बारिश हुई कि ज्यादातर फूल बारिश में बह गए। फसल क्या होती, खाक!
खरीफ की ज्यादातर फसलों को तैयार होने में कम-से-कम तीन महीने तो चाहिए ही होते हैं। फसलों के लिये भादों की काली घटाएँ जरूरी होती हैं। यह भी ख्याल रहे कि यदि तेज धूप आश्विन से पहले आ गई, तो फसल समय से पहले पक जाएगी; दाने अविकसित और कमजोर रह जाएँगे। इस साल यही हुआ। इस साल अगस्त अन्त में ही कास में फूल आ गए। कास फूलना, बारिश की विदाई का संकेत है; लिहाजा, तेज धूप ने सितम्बर मध्य में ही फसल पका दी। नतीजा यह हुआ कि फसलों में फलियाँ थीं, किन्तु दाने बेहद कमजोर और इतने हल्के कि कई किसानों ने उसकी कटाई-पिटाई में मेहनत लगाने से अच्छा उसे खेत में जुतवा देना ही बेहतर समझा।
पिछली साल फसल तैयार होने पर तीन दिन लगातार ऐसा पानी बरसा था कि दाने फसल में लगे-लगे ही सड़ गए थे। इस साल रही-सही कसर ‘नेफेड’ ने पूरी कर दी। सरकार से उड़द का न्यूनतम बिक्री मूल्य रुपए 5200 प्रति क्विंटल तय घोषित किया। ‘नेफेड’ ने ऐन मौके पर रुपए 4000 प्रति क्विंटल की दर से अपना पिछला स्टाॅक बाजार में उतार दिया। ऐसे में किसान की उड़द न्यूनतम बिक्री मूल्य पर कौन खरीदता? किसान, रुपए 3200 से 3400 रुपए प्रति क्विंटल उड़द बेचने को विवश हुआ। अब बताइए कि किसान रोेये न तो क्या करे?''
अनुचित नजरिया (Unfair treatment)
दुर्भाग्यपूर्ण है कि जल रुदन करने वालों के आँसू पोछने के नाम पर बिहार की सरकार हर वर्ष बाढ़ राहत बाँटने में रुचि रखती है, तो छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों को सूखा बोनस देने का शिगूफा छेड़ा है। अखिलेश यादव ने गत वर्ष बुन्देलखण्ड में दूध और घी बाँटकर सूखा राहत का नगाड़ा पीटा। मोदी जी ने सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई को डेढ़ गुना से अधिक कर देने में सब समाधान देखा; साथ ही बाँध लोकापर्ण अभिभाषण में यह धमकी भी दी कि सरदार सरोवर बाँध के काम में बाधा डालने वालों का कच्चा चिट्ठा उनके पास है। किसी लोकतंत्र में किसी प्रधानमंत्री द्वारा दी यह धमकी कितनी लोकतांत्रिक है; आप सोचें।
वर्षाजल संचयन की अनदेखी क्यों? (Why rain water harvesting ignore?)
मेरा कहना है कि यह सही है कि कभी कम तो कभी अधिक वर्षा, वर्षा वितरण में गड़बड़ी और अनिश्चितता, बाँध, खनन, बैराज, पानी व्यावसायीकरण और हमारी सरकारों की कुनीतियों आदि ने मिलकर भारत में पानी के लिये रोने का माहौल तैयार कर दिया है। यहाँ मौलिक प्रश्न यह है कि समाधान पेश करते हम यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत में अभी भी दुनिया के कई देशों से ज्यादा बारिश होती है; कमी है तो सिर्फ यह कि भारत अपनी खोपड़ी पर बरसे पानी का मात्र 15 प्रतिशत ही संचित कर पा रहा। शहरीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होकर भारत लम्बी उम्र जी चुके लाखों पेड़ों, जल संरचनाओं, छोटी वनस्पति और वन्य जीव विविधता का नाश करने में लगा है, सो अलग।
सच्चाई यह है कि भारत में वर्षाजल संचयन का यह आँकड़ा जैसे ही कुल वर्षाजल के 40 प्रतिशत के आसपास पहुँचेगा, जल रुदन के ज्यादातर कारण स्वतः समाप्त हो जाएँगे। मृदा अपरदन पर नियंत्रण भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। दूसरे मोर्चे पर देखें तो भारत की धरती पर हरियाली और कार्बन अवशोषण की अन्य प्रणालियों की उपस्थिति जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, तापमान वृद्धि और मौसम में बदलाव का खतरा उसी रफ्तार से कम होता जाएगा। निस्सन्देह, कार्बन उत्सर्जन की रफ्तार और आवश्यकता से अधिक उपभोग पर लगाम लगाना तो जरूरी है ही।
क्या कोई सुनेगा? (Will any listen)
भारत के प्रधानमंत्री, सभी राज्यों के सिंचाई मंत्रियों तथा खुद हर जल उपभोक्ता को समझना होगा कि बड़े बाँध और नदी जोड़ परियोजना जैसे कदम ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे नारे का समर्थन नहीं करते। ये कदम, कुछ के विनाश की कीमत पर अन्य के विकास के हामी है। सैंड्रप के सूत्र बताते हैं कि बिजली मंत्रालय की संयुक्त सचिव अर्चना अग्रवाल ने नए बिजली मंत्री श्री आर के सिंह को कुर्सी सम्भालने के अगले दिन ही एक प्रस्तुति के माध्यम से बताया - ''सर, मंत्रालय को समझना चाहिए कि जलविद्युत परियोजनाएँ व्यावहारिक नहीं है।... हमें सम्पूर्णता में देखना होगा।'' क्या कोई सुनेगा?
उपभोक्ता अपने हाथ में ले जल प्रबन्धन (Consumers take their own water management)
पानी के मामले में इस वक्त सबसे ज्यादा सुनवाई बिजली-पानी कम्पनियों और कर्जदाता एजेंसियों की है। यदि मैं कहूँ कि अब भारत के पानी प्रबन्धन की सरकारी योजना इन्हीं के निर्देश पर बनाई जाती है, तो गलत न होगा। खामियाजा हम सभी देख ही रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम चेतें; समझें कि बड़ी जल संरचना का मतलब है बड़ा खर्च, कर्ज, बड़ा खतरा और परावलम्बन; छोटी जल संरचना का मतलब है छोटा खर्च, न्यूनतम खतरा और स्वावलम्बन। किसी जोहड़, एनीकेट और मेड़बंदी के कारण किसी बड़े विनाश की खबर आपने कभी नहीं सुनी होगी; जबकि बाँध, बैराज और तटबन्धों के कारण मौत, विस्थापन, बेरोजगारी, रुदन और आक्रोश के किस्से अब भारत में आम हैं। मैं फिर लिखता हूँ कि यदि बाँधों से ही जल संकट का समाधान सम्भव होता, तो महाराष्ट्र में पानी की कमी के कारण मौतें कभी न होतीं।
वक्त आ गया है कि जल उपभोग करने वाले हम, सरकार की ओर ताकना छोड़कर अपने पानी का प्रबन्धन खुद अपने हाथ में ले लें। इस मामले में हम उपभोक्ताओं को अपनी क्षमता पर शंका करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। जरूरत है तो उचित और एकजुट पहल की। उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कच्छ से लेकर दक्षिण भारत तक उठाकर देख लीजिए; तमाम उलटबासियों के बावजूद, भारत के जो भाग आज भी पानी के मामले में सुखी हैं, वहाँ के समुदायों ने यही किया है। यह वक्त का तकाजा भी है और बारहमासी होते रुदन से निजात का रास्ता भी।
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