खनन का अधिकार चाहिए
कर्णपुरा घाटी के मूल निवासी डॉ. मिथिलेश कुमार डांगी 2007 में हजारीबाग के विनोवा भावे विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के व्याख्याता की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर कर्णपुरा बचाओ संघर्ष में पूरी तरह कूद पड़े। वे आने वाले विनाश को देख रहे थे जिसे घाटी के आम लोगों को बताने के लिए उन्होंने घाटी की पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का काफी गहन अध्ययन किया और आंकड़ों और निष्कर्षों को गांव-गांव पहुंचाया। इस समय आप झारखंड प्रदेश आजादी बचाओ आंदोलन के संयोजक हैं। प्रस्तुत है आजादी बचाओ आंदोलन के झारखंड प्रदेश संयोजक मिथिलेश कुमार डांगी से मनोज त्यागी की बातचीत।
कर्णपुरा की भौगोलिक और आर्थिक स्थिति के बारे में कुछ बताइए।
वर्तमान कर्णपुरा झारखंड के रामगढ़ हजारीबाग चतरा और लातेहार जिला के 237 गांवों से बना एक घाटीनुमा भू-भाग है जिसमें हजारीबाग के बड़कागांव और केरेडारी प्रखंड और चतरा जिला के टंडवा प्रखंड के सभी गांव शामिल हैं। शेष जिलों के कुछ गांव इसमें आते हैं कर्णपुरा अंग्रेजों के शासनकाल में एक परगना था। कर्णपुरा राज की स्थापना 1368 में राजा बाघदेव सिंह ने की थी। इसके सभी गांव तराई क्षेत्र में बसे हैं। यह लगभग 1600 वर्ग किलोमीटर फैला हुआ है। इस क्षेत्र के सभी गांव के किनारे कोई न कोई बारहमासी नदी बहती है। कहीं-कहीं पर तो पानी के स्रोत फटते हैं। यहां की जमीन के नीचे कोयले की 40 से 80 मीटर मोटी परत मौजूद है। ओएनजीसी की ड्रिलिंग में पता चला है कि यहां कोयले के नीचे गैस भंडार भी है। तीन-चार फुट जमीन के नीचे ही कोयला है जिसे स्थानीय लोग अपनी जरूरत के लिए सैकड़ों वर्षो से निकालते रहे हैं।
यहां की धरती बहुफसली और उपजाऊ है। यहां का कृषि उपज झारखंड में अव्वल स्थान रखता है। यहां करीब 80 से 90 फीसद लोग खेती पर निर्भर हैं। छोटे उद्योग धंधे कम हैं। कोयला निकाल कर बेचना भी अच्छा खासा धंधा है।
कर्णपुरा के लोग पिछले 7-8 साल से आंदोलन क्यों कर रहे हैं?
यहां कोयला खदान की दो परियोजनाएं पहले से चल रही हैं। इनमें किसानों के साथ धोखाधड़ी की गई है। जिनकी जमीनें गईं, उन्हें नाममात्र का पैसा मिला। चैक लेने के लिए सरकारी दफ्तरों में उन्हें घूस देनी पड़ी। 2004 से कर्णपुरा घाटी में पैंतीस कोयला ब्लाक विभिन्न कंपनियों को आबंटित किए गए हैं जिनमें 205 गांव विस्थापित हो जाएंगे। इनमें लगभग 60,000 परिवार और तीन लाख लोग अपनी परंपरागत बेहतर कृषि जीवन से महरूम होकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हो जाएंगे। वे भविष्य की इसी भयावहता को देखकर आंदोलन के लिए मजबूर हो गए और नौ सालों से मजबूती से खड़े हैं।
विस्थापन के या भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश के दूसरे आंदोलनों और यहां के आंदोलन में क्या फर्क है?
यहां का आंदोलन अनूठा और नए किस्म का है। आज तक जितने भी आंदोलन हुए उनमें आंदोलनकारी सरकारों या कंपनियों से नौकरी, मुआवजा या अच्छे पुनर्वास की मांग करते रहे हैं। मैं इस प्रकार की लड़ाई को हारी हुई लड़ाई मानता हूं। यहां का संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी मालकियत का संघर्ष है। लोग इसी अधिकार को पानी चाहते हैं। जब लोगों के सामने उनकी जमीन के नीचे छिपी प्राकृतिक संपदा और उसकी बाजार कीमत के आंकड़े रखे गए तो वे हतप्रभ रह गए। शायद इन जानकारियों ने उनमें नई आशा और उज्ज्वल भविष्य के सपने भर दिए और तमाम परेशानियों के बावजूद वे खड़े हो गए।
देश के खनिज पर सरकार का स्वामित्व है, ऐसा माना जाता है। क्या आप यह मांगकर देश में अराजकता नहीं फैलाना चाहते? या देश के विकास को अवरुद्ध तो नहीं करना चाहते?
पहली बात तो आपको यह याद दिला दूं कि खनिज पर सरकार की नहीं जमीन मालिक का मालिकाना हक है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ चुका है। आज तक खनन की जितनी भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हैं वे खनन लीज प्राप्त करने के बाद स्वयं खनन नहीं करतीं बल्कि दूसरी निजी कंपनियों को इसका ठेका देती है। एनटीपीसी ने खनन का ठेका आस्ट्रेलिया की कंपनी थीस को दिया है। ऐसी हालत में खनन का काम गांव के लोग उत्पादक कंपनी बनाकर करना चाहते हैं तो अराजकता कैसे आएगी। मुझे एक बात अजीब सी लगती है- पूंजीपति या कंपनी कोयला निकाले तो देश का विकास और किसानों की कंपनियां कोयला निकाले तो...?
क्या गांव के लोगों के लिए अपनी कंपनी का निर्माण और उसका प्रबंध और खनन के लिए पूंजी और तकनीक को प्राप्त करना आसान होगा?
गांव के लोगों को बेबस, लाचार और कमजोर समझना नादानी है। इन्हीं लोगों ने मिलकर झारखंड में पांच उत्पादक कंपनियों का निर्माण कर लिया है। इनमें से एक की ओर से खनन लीज के लिए आवेदन भी दिया गया है। तीन गांवों में इन कंपनियों ने घरों में रोशनी के लिए माइक्रो थर्मल पावर प्लांट लगाए। दो गांवों में ठीक-ठीक चल रहे हैं। गांव के युवा साथी ही इन्हें चला रहे हैं। अब देखना यह है कि गांव के विकास और ग्रामीणों की उन्नति का दंभ भरने वाले नेतागण और हमारे प्रशासनिक पदाधिकारी पूंजीपतियों के साथ हैं कि ग्रामीणों के साथ। रही बात पूंजी और प्रबंधन की तो मैं मानता हूं कि इसमें कोई अड़चन नहीं है। देश के कई लोग और कई संस्थाएं इनके लिए वित्तीय प्रबंधन और प्रशासनिक प्रबंधन में सहयोग देने के लिए आगे आ रहे हैं।
कोयले की लूट के बारे में क्या कहना चाहते हैं?
इसे एक उदाहरण से समझना चाहिए-एनटीपीसी के क्षेत्र में प्रति एकड़ जमीन के नीचे चालीस से अस्सी करोड़ रुपए तक का कोयला भंडार है। इसमें खनन में लगभग सोलह करोड़ रुपए और रायल्टी में चार करोड़ का खर्च आएगा। यानी कंपनी द्वारा केवल बीस करोड़ खर्च होगा और यह कंपनी 15 लाख रुपए देकर किसानों से एक एकड़ जमीन ले रही है। इस प्रकार कंपनी को एक एकड़ से 20 करोड़ से लेकर 60 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा होगा। आज उस 40 करोड़ रुपए की प्राकृतिक संपत्ति का मालिक यह किसान हैं जिसे जबरन बेदखल किया जा रहा है। अगर किसान अपनी उत्पादक कंपनी के माध्यम से कोयला निकालने का काम करता है तो वह देश को रायल्टी भी उतना ही देगा और देश की कोयला और ऊर्जा की जरूरत भी पूरी करेगा। इस रास्ते से आज का किसान भी जो आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहा है, खुशहाल मनुष्यों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा। यही देश का वास्तविक और सच्चा विकास होगा।
कोयला सत्याग्रह का क्या मकसद है?
क्षेत्र की जनता सरकार को यह बताना चाहती है कि कोयला और खनिजों का मालिक किसान है। इसके खनन का अधिकार भी उसे मिलना चाहिए। सरकार चलाने के लिए धन की आवश्यकता है इसलिए वे कोयले की रायल्टी देने को तैयार हैं। 15 नवंबर को आरहरा में हुए सत्याग्रह से मिले तीन टन कोयले की बिक्री की गई। इसकी बिक्री से मिले पैसे से सरकारी रायल्टी ग्राम सभा के खाते में जमा करा दी गई। रायल्टी देने के आशय की सूचना राज्य के मुख्यमंत्री को भेजी गई थी, लेकन सरकार का रवैया काफी उदासीन रहा। इस कार्यक्रम के जरिए लोगों ने कोयला पर अधिकार और अपना स्वामित्व स्थापित किया है।
आगे लोगों की योजना क्या है?
झारखंड ही नहीं देश के सभी क्षेत्रों में जहां कोई भी खनिज है वहां लोगों को संगठित कर खनन का कार्य प्रारंभ करना पहली प्राथमिकता है।