मध्यप्रदेश में कुपोषण
शारीरिक रूप से इतने सक्षम नहीं हैं कि वे 100 घनफीट की खुदाई का काम सात घंटे में कर सकें। जिस गरीबी के अंधेरे को मिटाने के लिये रोजगार कानून आया वहीं अब अव्यावहारिक सोच के चलते शोषण का जरिया बन रहा है। ऐसा नहीं है कि मजदूर श्रम नहीं करना चाहता है बल्कि सच यह है कि कुपोषण के ऊंचे स्तर के चलते वह भारी श्रम नहीं कर पा रहा है।
क्या है कुपोषण?
क्यों अहम् है पोषण का अधिकार
सरकार आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के चयन की प्रक्रिया में गरीब, दलित आदिवासी या विधवा महिला को चुनती है ताकि उनका शोषण किया जा सके और विपरीत परिस्थितियों में अपराधी घोषित करके अपना दामन बचाया जा सके। किवाड़ गांव का यह उदाहरण नीतिगत चरित्र की व्याख्या कर देता है कि जब व्यवस्था की लापरवाही से आपदा आती है तो कभी भी बड़े अफसरों और नीति बनाने वालों की जवाबदेही तय नहीं होगी।
मध्यप्रदेश मे कुपोषण नियंत्रण की पहल
अधोसंरचनात्मक स्थिति
आर्थिक पक्ष
पोषण आहार की आपूर्ति का मसला भी एक गंभीर रूप लेकर सामने आया है वर्ष 2002 में सरकार ने यह निर्णय लिया था कि आंगनबाड़ियों को पोषण आहार भेजने का काम दलित-आदिवासी महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को सौंपा जायेगा। इससे 750 समूहों को फायदा होने वाला था किन्तु वर्ष 2006 में सरकार ने नीति फिर बदल दी। अब निजी निर्माता डेढ़ सौ करोड़ रुपए का पोषण आहार बनायेंगे और आंगबाड़ियों को भेजेंगे।
आर्थिक पक्ष का विश्लेषण
जवाब देहिता
जनवितरण प्रणाली को समाप्त करने के सरकार के प्रयास इस ओर इशारा करते हैं। कुपोषण कार्यक्रमों और गतिविधियों से नहीं रूक सकता है। एक मजबूत जन समर्पण और पहल जरूरी है। जब तक खाद्य सुरक्षा के लिये दूरगामी नीतियाँ निर्धारित न हो और बच्चों को नीति निर्धारण तथा बजट आवंटन में प्राथमिकता न दी जाए तो कुपोषण के निवारण में अधिक प्रगति संभव नहीं है।
नीतिगत मसले
मध्यप्रदेश - बच्चों में कुपोषण: व्यापकता
उम्र | कम वजन | कम लंबाई | कम वजन और लंबाई |
6-11 माह | 46.7 प्रतिशत | 38.4 प्रतिशत | 17.5 प्रतिशत |
12-23 माह | 67.4 प्रतिशत | 64.0 प्रतिशत | 27.0 प्रतिशत |
24-35 माह | 67.3 प्रतिशत | 62.4 प्रतिशत | 18.3 प्रतिशत |