मशविरे का नाटक बंद करो

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आईएफसी द्वारा वित्त पोषित जीएमआर कम्पनी के ताप परियोजना प्रभावित, पास्को से लेकर तमाम परियोजना प्रभावितों ने प्रदर्शन किया। मगर इसके बावजूद भी विश्व बैंक ने इस सारे विरोध को चर्चा का हिस्सा मानते हुए आगे बढ़ने की बात कही है जो फिर एक बार यह सिद्ध करता है कि विश्व बैंक जैसी तथा कथित विकास परियोजना के नाम पर पूंजीवादी देशों के हितों को साधने का ही औजार है। यह सब तौर तरीके बताते हैं कि वास्तव में विश्वबैंक की पर्यावरण और रक्षात्मक नीतियाँ उसकी वास्तविक कामों में कहीं कोई स्थान नहीं रखती है। मात्र एक सुंदर आवरण है।विश्वबैंक ने पर्यावरण और सामाजिक संदर्भ में अपनी कुछ नीतियाँ बनाई हुई। जिसे वो पर्यावरण और पुर्नवास रक्षात्मक नीतियों का नाम देता है। 1992 में नर्मदा घाटी से भगाए जाने के बाद जलविद्युत परियोजना में 15 वर्ष तक बैंक ने किसी बांध को पैसा नहीं दिया। अब कुछ वर्षों से धीरे-धीरे बांध परियोजनाओं में पैसा लगाना शुरू कर रहा है। उसकी दलील है कि उस पर भारत के निदेशक का दबाव है। विश्व बैंक में हर साझेदार देश का एक निदेशक होता है। हिमाचल में रामपुर जलविद्युत परियोजना के बाद अब उत्तराखंड में अलकनंदागंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना में उधार दे रहा है। विश्वबैंक जिस भी परियोजना में पैसा उधार देता है वहां पर्यावरण व सामाजिक प्रभावों के तथाकथित ऊंचे मानकों को दिखाने की कोशिश करता है। पर्यावरण व सामाजिक प्रभावों के संदर्भ में विश्वबैंक समय-समय पर अपनी रक्षात्मक नीतियों को ऊंचा बनाने का दिखावा करता है।इस समय बैंक की यही प्रक्रिया चल रही है। इसमें आठ पर्यावरण और सामाजिक रक्षात्मक नीतियों पर पुनर्विचार में का प्रस्ताव है जिसमें पर्यावरण आकलन प्राकृतिक रहवास, रोग प्रबंध, आदिवासी लोग, भौतिक-सांस्कृतिक संसाधन, अनैक्षिक विस्थापन, वन, बांध सुरक्षा और पर्यावरण व समाजिक सुरक्षात्मक नीतियों के लिए एक प्रक्रिया बनाना शामिल है। यह बताया गया कि बैंक इन मशविरा बैठकों के बाद आंतरिक विमर्शों और मशविरों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विमर्शों का दौर चलाएगा

5 अप्रैल को दिल्ली, 8 अप्रैल को बंगलोर और 10 अप्रैल भुवनेश्वर में बैंक ने इस संदर्भ में तीन मशविरा बैठकें बुलाई। जिसमें उसका इरादा ‘‘सिविल सोसाइटी‘‘ से चर्चा करने का था। इससे साफ झलकता है कि बैंक परियोजना प्रभावितों और उनके सहयोगी संगठनों को ना सुनना चाहता है ना ही समस्याओं के निदान के लिए गंभीर है। इसलिए बैंक पोषित विभिन्न परियोजनाओं के प्रभावितों और उनके सहयोगी संगठनों ने इन मशविरा बैठकों का विरोध किया। जिसकी शुरुआत दिल्ली में आयोजित भारत की पहली मशविरा बैठक से प्रारंभ हुई। जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और दिल्ली समर्थक समूह द्वारा आयोजित प्रदर्शन में आंदोलनकारी 5 अप्रैल को इंडिया हैबिटेट सेंटर के हाल में बैठक स्थल में घुस गए और नारे लगाए विश्व बैंक भारत छोड़ो, मशविदे का नाटक बंद करो, पुराना हिसाब साफ करो और साथ ही वे मंच के आगे जाकर खड़े हो गए। उन्होंने उपस्थित लोगों से निवेदन किया कि वे हाल छोड़ दें। जिसमें विश्वबैंक के कुछ सलाहकार व कुछ नए आमंत्रित और तथाकथित सभ्य समाज के प्रतिनिधियों थे। एक आमंत्रक ने कहा कि यह मर्यादा के खिलाफ है विश्वबैंक हमारा मेहमान है और हमें उनकी सुननी चाहिए। जिसका लेखक ने उत्तर दिया कि आततायी मेहमान नहीं होते हैं और जो उन्हें मेहमान समझते हैं वो अपना संबंध बनाए किंतु हमने बैंक की कारगुजारियों को देखा है।

इंडिया हैबिटेट सेंटर में विश्व बैंक के मीटिंग का विरोध करते जन आन्दोलनो का राष्ट्रीय समन्वय और दिल्ली समर्थक समूह के कार्यकर्ता और माटू जनसंगठन के विमल भाई

इसलिए बैंक का रक्षात्मक नीतियों पर चर्चा करना पूरी तरह बेईमानी है। बैंक की हिम्मत नहीं है कि प्रभावितों से सीधे जाकर बात कर सके। बैंक ने उसके द्वारा समर्थित परियोजनाओं में पुनर्वास और पर्यावरण की अब तक की समस्याओं को अनदेखा किया है और दूसरी तरफ इस तरह की मशविरा बैठकें आयोजित करने का ढोंग करता है। कार्यकर्ताओं ने 4 घंटे तक बैठक में कब्ज़ा जमाए रखा और इस तरह की बैठकों की पोल खोली। साथ चेतावनी भी दी की हम अगली मशविरा बैठकों में भी ऐसा ही करेंगे। कब्ज़े के दौरान मधुरेश कुमार ने देश भर के साथी आंदोलनों की ओर से एक पर्चा पढ़ा जिसमें आंदोलनों का पक्ष क्या है बताया गया।

वास्तव में इस तरह की पहले आयोजित बैठकों/चर्चाओं में हजारों समूहों और व्यक्तियों ने हिस्सा लिया है और मगर सब बेनतीजा। चूंकि विश्वबैंक के बड़े साझेदार फ्रांस, जर्मनी, जापान, इंग्लैंड और अमेरिका जो कि बहुत ही गंभीर आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं उनका दबाव है कि पर्यावरण पुनर्वास के मुद्दों को एक तरफ रखकर वैश्विक निवेश की संभावना को खोजा जाए।

बैंक टिहरी जल विद्युत निगम जैसी आपराधिक कंपनियों को बिना उनके इतिहास देखे पैसा दे रहा है। विश्वबैंक का एक दूसरा हाथ अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम आईएफसी है जो निजी कंपनियों को पैसा देता है। आईएफसी ने ‘‘मध्यवर्ती वित्त ऋण‘‘ की जो नई प्रक्रिया शुरू की है उसमें तो सभी पर्यावरण और सामाजिक दायित्वों की रक्षात्मक नीतियों से बरी कर दिया है। गुजरात में संवेदनशील परिस्थिति वाले कच्छ क्षेत्र में 4000 मेगावाट की टाटा मुंदरा परियोजना को 4 बिलियन पैसा दिया। ऐसे ही एक बिलियन का ऋण और अन्य ऋण टाटा मुंदरा से जुड़ी परियोजनाओं को दिए। इसके बाद भी बैंक कैसे दावा कर सकता है कि वो पर्यावरण व पुनर्वास के मसलों पर लोगों से चर्चा करना चाहता है? वास्तव में बैंक सिर्फ बड़े पूंजीवादी देशों का एक औजार है जो कि भारत जैसे देशों के बाजारों को इन बड़े देशों के लिए खोलना चाहते हैं। एक दशक पहले पर्यावरण एवं वनमंत्रालय के लिए कार्यकुशलता निर्माण के लिए पैसा दिया था। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इस मंत्रालय की कार्यकुशलता में किस तरह कि वृद्धि की है। देश का बिगड़ता पर्यावरण, बर्बाद होती नदी घाटियां इस गैर जिम्मेदार मंत्रालय की बढ़ी हुई कार्यकुशलता को बताता है।

8 अप्रैल को बंगलौर की मशविदा बैठक में भी आंदोलनकारियों ने बैठक में घुसकर अपनी बात रखी। बंगलौर के वकील ने सरदार सरोवर में सोलह वर्षीय रेहमल वसावे की पुलिस द्वारा गोली मारे जाने से हुई हत्या के संदर्भ में दो मिनट का मौन रखवाया। 10 अप्रैल को भवुनेश्वर में विश्वबैंक को पुलिस की घेराबंदी में बैठक करनी पड़ी। आईएफसी द्वारा वित्त पोषित जीएमआर कम्पनी के ताप परियोजना प्रभावित, पास्को से लेकर तमाम परियोजना प्रभावितों ने प्रदर्शन किया। मगर इसके बावजूद भी विश्व बैंक ने इस सारे विरोध को चर्चा का हिस्सा मानते हुए आगे बढ़ने की बात कही है जो फिर एक बार यह सिद्ध करता है कि विश्व बैंक जैसी तथा कथित विकास परियोजना के नाम पर पूंजीवादी देशों के हितों को साधने का ही औजार है। यह सब तौर तरीके बताते हैं कि वास्तव में विश्वबैंक की पर्यावरण और रक्षात्मक नीतियाँ उसकी वास्तविक कामों में कहीं कोई स्थान नहीं रखती है। मात्र एक सुंदर आवरण है।

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