मुला-मुठा का संगम
महाराष्ट्र की नदियों में तीन नदियों से मेरी विशेष आत्मीयता है। मार्कण्डी मेरी छुटपन की सखी, मेरे खेतिहर जीवन की साक्षी, और मेरी बहन आक्का की प्रतिनिधि है। कृष्णा के किनारे तो मेरा जन्म ही हुआ। महाबलेश्वर से लेकर बेजबाड़ा और मछलीपट्टम तक का उसका विस्तार अनेक ढंग से मेरे जीवन के साथ बुना हुआ है। नदियां तो हमारी बहुत देखी हुई होती हैं पर दो नदियों का संगम आसानी से देखने को नहीं मिलता। संगम काव्य ही अलग है।
जब दो नदियां मिलती हैं तब अक्सर उनमें से एक अपना नाम छोड़कर दूसरी में मिल जाती है। सभी देशों में इस नियम का पालन होता हुआ दिखाई देता है। किन्तु जिस प्रकार कलंक के बिना चंद्र नहीं शोभता, उसी प्रकार अपवाद के बिना नियम भी नहीं चलते। और कई बार तो नियम की अपेक्षा अपवाद ही ज्यादा ध्यान खींचते हैं। उत्तर अमरीका की मिसिसिपी-मिसोरी अपना लंबा-चौड़ा सप्ताक्षरी नाम द्वंद्व समास से धारण करके संसार की सबसे लंबी नदी के तौर पर मशहूर हुई है। सीता-हरण से लेकर विजयनगर के स्वातंत्र्य-हरण तक के इतिहास को याद करती तुंगभद्रा भी तुंगा और भद्रा के मिलने से अपना नाम और बड़प्पन प्राप्त कर सकी है। पूना को अपनी गोद में खेलाती मुलामुठा भी मुला और मुठा के संगम से बनी है।
सिंहगढ़ की पश्चिम ओर की घाटी से मुठा आती है। खडक-वासला तक की मुंडी टेकरियां उसका रक्षण करती हैं। खडक-वासला के बांध ने तन्वंगी मुठा का एक सुदीर्घ सरोवर बनाया है। इस सरोवर के किनारे न तो कोई पेड़ हैं, न मंदिर। दिन में बादल और रात के समय तारे अपने चिंताजनक प्रतिबिंब इस सरोवर में डालते हैं। यहीं की मुठा से नहर के रूप में दो जबरदस्त महसूल लिए जाते हैं, जिनसे पूना और खडकी की बस्ती जी भरके पानी पीती है। मुठा के किनारे गन्ने की खेती बढ़ती जा रही है। बसंत ऋतु में जहां देखे वहां ईख के कोल्हू बांग पुकार-पुकार कर लोगों को रसपान की याद दिलाते हैं। लकड़ी-पुल के नाम से परिचित किन्तु पत्थर के बने हुए पुल के नीचे से नदी आगे जाती है और दगड़ी-पुल के नाम से परिचित किन्तु पत्थर के पक्के बांध को पार करती है। इसके बाद ही मुठा का उसकी बहन मुला से संगम होता है। लकड़ी-पुल से ओंकारेश्वर तक चाहे जितने शव जलते हों, लेकिन संगम के समय उसका विषाद मुठा के चेहरे पर दिखाई नहीं देता।
इतना शांत संगम शायद ही और कहीं होगा। इसी संगम पर कैप्टन मॉलेट पेशवाई की अंतघड़ी की राह देखता हुआ पड़ाव डालकर बैठा था। आज तो संस्कृति भाषा का संशोधन युरोपियन पंडितों के हाथ से वापिस छीन लेने के लिए मंथनवाले आर्य पंडित भांडारकर जी का संगमाश्रय ही यहां विराजमान हैं। संस्कृत विद्या के पुनरुद्धार के लिए संस्थापित पाठशाला का रूपान्तर करके पुराने और नये का संगम करने वाला डेक्कन कॉलेज भी इस संगम के पास ही विराजमान है। यहां गोरे लोगों ने नौका-विहार के लिए नदी पर बांध-बाधकर पानी रोका है, और मच्छरों के विशाल कुल को भी यहां आश्रय दिया है। नजदीक की टेकरी पर गुजरात के एक लक्ष्मीपुत्र की अत्तुंग-शिरस्क किन्तु नम्र-नामधेय ‘पर्णकुटी’ है। मानव की स्वतंत्रता- का हरण करने वाला यरवडा का कैदखाना और प्राणहरपटु लश्करी बारूदखाना भी इस संगम से अधिक दूरी पर नहीं है। न मालूम कितनी विचित्र वस्तुओं का संगम मुलामुठा के किनारे पर होता होगा और होने वाला होगा! बांध के पास बंड-गार्डन में लक्षाधीश और भिक्षाधीशों का संगम हर शाम को होता है, यह इसी की एक मिसाल है।
आखिरी बांध पर से हाश् करके छटकती मुलामुठा यहां से आगे कहां तक जाती है, यह भला कौन बता सकेगा? इस बात की जानकारी किसके पास होगी?
महाराष्ट्र की नदियों में तीन नदियों से मेरी विशेष आत्मीयता है। मार्कण्डी मेरी छुटपन की सखी, मेरे खेतिहर जीवन की साक्षी, और मेरी बहन आक्का की प्रतिनिधि है। कृष्णा के किनारे तो मेरा जन्म ही हुआ। महाबलेश्वर से लेकर बेजबाड़ा और मछलीपट्टम तक का उसका विस्तार अनेक ढंग से मेरे जीवन के साथ बुना हुआ है। और तीसरी है मुलामुठा। बचपन में हम सब भाई शिक्षा के लिए पूना में रहे थे, उस समय से मुला और मुठा का संगम मेरे बाल्यकाल का साक्षी रहा है। कॉलेज के दिनों में हमने जिन क्रांतिकारी विचारों का सेवन किया था उन्हें भी मुलामुठा जानती है। किन्तु इन सब संस्मरणों से बढ़ जाते हैं महात्मा गांधी के साथ व्यतीत किए हुए उसके किनारे पर के वे दिन! लेडी ठाकरसीकी पर्णकुटी, दिनशा मेहता का निसर्गोपचार भवन और सिंहगढ़ का निवास, सब एक ही साथ याद आते हैं।
और आखिर-आखिर के दिनों में अंग्रेज सरकार ने गांधी जी को जहां गिरफ्तार करके रखा था वह आगाखां महल भी मुलामुठा के किनारे पर ही है। और यहीं गांधी जी के दो जीवन-साथियों ने स्वराज्य के यज्ञ में अपनी अंतिम आहुति दी थी। कस्तूरबा और महादेव भाई ने जिसके किनारे शरीर छोड़ा वह मुलामुठा भारत वासियों के लिए खास करके हम आश्रमवासियों के लिए तो तीर्थस्थान है।
और जब आज की मुलामुठा के बारे में सोचता हूं तब सिंहगढ़ के दामन में खडक वासला सरोवर के किनारे जिस राष्ट्र-रक्षा-विद्यालय की स्थापना हुई है उसका स्मरण हुए बिना नहीं रहता। इस संस्था का नाम युद्ध-महाविद्यालय रखने के बदले राष्ट्रीय रक्षा-विद्यालय रखा गया, यह बात भी ध्यान खींचे बिना नही रहती। जिस सरोवर के किनारे इस विद्यालय की स्थापना हुई है उसका नाम भी महाराष्ट्र के इतिहास के अनुरूप ही होना चाहिये। ऐसे सरोवर को किसी अंग्रेज का नाम न देकर नरवीर तानाजी मालुसरे का नाम देना चाहिये। अपनी जान देकर जब तानाजी ने छत्रपति शिवाजी के लिए कोंडाणा गढ़ जीत दिया तब शिवाजी ने कहा ‘गढ़ आला पण सिंह गेला-गढ़ तो जीत लिया किन्तु मैंने अपना शेर खो दिया।’ और उस दिन से इस गढ़ का नाम सिंहगढ़ पड़ा।
इस सरोवर को हम या तो तानाजी सरोवर कहें या सिंह सरोवर।
1926-27
संशोधित, 1956