मुफ्त फोन कॉल तथा इंटरनेट डाटा का समाज, स्वास्थ्य और संसाधनों पर विपरीत प्रभाव
वर्तमान में फोन और इंटरनेट का प्रयोग इतना अधिक हो गया है जो न सिर्फ हमारी जीवन शैली, स्वास्थ्य, पारिवारिक रिश्ते, सामुदायिक सामंजस्यता और संस्कारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। बल्कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे, जल, जमीन व पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। आप किसी भी बैंक अथवा अन्य पब्लिक डीलिंग वाले ऑफिस में चले जाइए कर्मचारी आपको फोन पर बातचीत करते हुए मिलेंगे। स्कूटर, बाइक या कार चलाते समय फोन पर व्यस्त मिलेंगे (जो एक बड़ा जोखिम है), अस्पताल में डॉक्टर तथा स्टाफ मरीज को नजरअंदाज कर फोन पर व्यस्त मिलेंगे, घर के अंदर परिवार के सभी सदस्य, आपस में बातचीत ना कर फोन पर व्यस्त होंगे, सड़क पर पैदल चलते हुए भी कान में ईयर फोन लगाकर फोन पर व्यस्त होंगे। फोन ने हमारे दिन का चैन और रातों की नींद छीन ली है। बहुत छोटी उम्र के बच्चे तक इसके गुलाम हो गए हैं। हम घंटों फोन कॉल पर व्यस्त रह कर अपना समय जो किसी अन्य उपयोगी कार्य में लगाया जा सकता था, उसको व्यर्थ करते हैं।
इसके अलावा इंटरनेट का इस्तेमाल पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव छोड रहा है, इंटरनेट को एक फोन से दूसरे फोन तक जोड़े रखने हेतु डाटा सेंटर्स अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन डाटा सेंटर्स को चलाने हेतु उर्जा की आवश्यक्ता होती है, इतनी उर्जा की वर्तमान में विश्व में उपलब्ध कुल बिजली की एक प्रतिशत से अधिक बिजली का उपभोग यह डाटा सेंटर्स ही कर लेते हैं। इतना ही नहीं इनके निरंतर चलने से उम्पन्न उष्मा को ठंडा रखने के लिए जल का प्रयोग भी किया जाता है जो प्रति जीबी डेटा के इस्तेमाल में लगभग 35 लीटर तक होता है।
आज की पीढ़ी पर लगातार फोन और इंटरनेट में व्यस्त रहने के कारण उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव दिखने लगे हैं। शारीरिक तथा मानसिक दुष्प्रभावों की बात करें तो आंखों में 'ड्राई आई सिंड्रोम', उंगलियों, कलाई और अंगूठे की बीमारियां, गर्दन की ऐठन तथा जकड़न, दिमाग को भ्रमित करने वाला 'फैंटम रिंगिंग सिंड्रोम', तथा फोन छूट जाने या खो जाने की स्थिति में होने वाला 'नोवोफोबिया, आदि ऐसे दुष्प्रभाव हैं जो आज की और भविष्य की पीढ़ियों के लिए खतरनाक हैं। और उनको पंगु बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। हमें यह समझना चाहिए की एक बार इसमें फस जाने के बाद इन दुष्प्रभावों को दूर करने में आपका कितना समय और धन खर्च होता है और इसके कितने दूरगामी प्रभाव होंगे।
क्या वास्तव में फोन पर इतनी व्यस्तता हमारी आवश्यकता है अथवा फोन कंपनियों ने अपने व्यवसायिक हितों के चलते हमें फोन का गुलाम बना दिया है? फोन और इंटरनेट की उपयोगिता के विषय में कोई संशय नहीं है। एक स्मार्टफोन पास में होने से आप स्वयं को समर्थ (empowered) महसूस करते हैं जो आवश्यकता पड़ने पर आपके बहुत से काम करा सकता है। दुनिया के किसी भी कोने से सूचना का आदान प्रदान बहुत आसान हो गया है।पलक झपकते आप आंकड़े, डॉक्यूमेंट, फोटो, आदि कहीं भी उपलब्ध करा सकते हैं। कहीं से भी वीडियो कॉल कर मीटिंग कर सकते हैं जिससे समय तथा खर्च की बचत होती है। फिजिकल मूवमेंट कम होने के कारण ईंधन की बचत होती है, यातायात के साधनों पर अनावश्यक दबाव कम होता है तथा कम कार्बन उत्सर्जन के कारण परोक्ष रूप से जलवायु तथा पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव कम होता है।
फोन और इंटरनेट के अनियंत्रित तथा अनावश्यक उपयोग के कारण हमारे जल संसाधन तथा पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। इंटरनेट को 24x7 चलाने के लिए विशालकाय डाटा सेंटर स्थापित करने होते हैं जिनमें बहुतायत में जल तथा ऊर्जा खर्च होती .है और हानिकारक गैस उत्सर्जन होता है जो जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण भी है। इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं कि 1 GB डाटा खर्च होने में 35 लीटर जल तथा ऊर्जा की खपत होती है। डाटा सेंटर में जल के उपभोग को उन्नत तकनीकों के उपयोग से दक्ष बनाने की आवश्यकता है।
डेलोइट (Delloite) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2026 तक लगभग 100 करोड़ स्मार्टफोन यूजर्स होने की उम्मीद है। 5G सेवाएं शुरू होने के साथ फोन तथा इंटरनेट का प्रयोग तेजी से बढ़ेगा। शोध यह भी बताता है की वर्ष 2040 तक भारत की आबादी का 96% हिस्सा अपने मोबाइल फोन से इंटरनेट का उपयोग करेगा। भविष्य में फोन तथा इंटरनेट का उपयोग जिस गति से बढ़ने का अनुमान है उसके कारण देश के जल संसाधनों और यूजर्स के स्वास्थ्य पर बहुत अधिक दबाव पड़ने वाला है। आवश्यक नहीं है कि हम फोन और इंटरनेट के उपयोग को बंद कर दें- जो किसी भी तरह से व्यवहारिक नहीं है और संभव भी नहीं है, अपितु हम इसके उपयोग को बुद्धिमत्तापूर्ण और व्यावहारिक बना सकते हैं
जिससे जितना आवश्यक हो उतना ही उपयोग हो।
इंटरनेट को 24x7 चलाने के लिए विशालकाय डाटा सेंटर स्थापित करने होते हैं जिनमें बहुतायत में जल तथा ऊर्जा खर्च होती .है और हानिकारक गैस उत्सर्जन होता है जो जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण भी है। इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं कि 1 GB डाटा खर्च होने में 35 लीटर जल तथा ऊर्जा की खपत होती है।
उदाहरण के तौर पर यदि हम यूट्यूब पर एक घंटे तक वीडियो स्ट्रीमिंग करते है तो कुल मासिक 7 जीबी डेटा खर्च होता है और यदि एचडी में वीडियो देखते है तो डेटा खर्च बढकर 479 जीबी प्रति माह हो जाता है। आपको यह जानकार अचरज होगा की यह उपयोग 356 ली. के जल के प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उपयोग को इंगित करता है। इतना ही नहीं उक्त उपयोग से इतनी कार्बनडाइ आक्साइड पर्यावरण में फैलती है जितनी एक कार को 121 किमी तक चलाने पर उत्सर्जित होती है। साथ ही इस प्रक्रिया में 50 आइफोन प्रो. के आकार के सेलफोन जितनी जमीन का भी उपयोग किया जाता है।
उपभोक्ता के रूप में हमें अनावश्यक उपयोग को कम करना होगा। इस लक्ष्य को पूरा करने में बहुत बड़ी भूमिका सरकारी नीतियों की होगी। जो फोन तथा इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों को मुफ्त में कॉल तथा डाटा देने पर रोक लगा सकती हैं। फोन कॉल तथा इंटरनेट डाटा मुफ्त देने से अपव्यय (wastage) होता है और संसाधनों पर अनावश्यक दबाव पड़ता है। यह निश्चित है कि फोन तथा इंटरनेट डाटा का मुफ्त उपभोग खत्म होते ही (चाहे एक न्यूनतम कीमत लगा दी जाए) अनावश्यक उपभोग काफी हद तक रुक जाएगा। व्यवसायिक समझ के रूप में भी यह ज्यादा घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि व्यापार की मात्रा कम होने की भरपाई यूजर चार्ज लगाने से कुछ हद तक संभव हो सकेगी। समाज और देश को इसका अप्रत्यक्ष लाभ यूजर्स के अच्छे स्वास्थ्य और उस पर होने वाले खर्च की बचत के रूप में होगा, तथा समय की बर्बादी रोकने के रूप में होगा। देशहित में और समाज के हित में सरकार तथा कंपनियों को यह कदम तुरंत उठाना आवश्यक है।