नर्मदा की जान जंगल
नर्मदा या हिमविहीन ऐसी ही किसी भी दूसरी नदी के लिये जंगल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में यदि कहा जाये कि जलग्रहण क्षेत्र के वनों में नर्मदा की जान बसती है और जंगल उसके प्राणदाता हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या जंगल वास्तव में हिमविहीन नदियों के लिये प्राणदाता की भूमिका निभाते हैं? या यह केवल एक भावनात्मक वक्तव्य है?
वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में यह स्पष्ट होता है कि जंगल सीधे-सीधे नर्मदा के प्रवाह को जितना प्रभावित नहीं करते उससे कहीं अधिक परोक्ष रूप से सहायक नदियों को प्रभावित करके करते हैं। वनों का घनत्व, वनस्पति प्रजातियों की संरचना और भूगर्भीय शैल संरचना नदियों के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं। हम पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि वन नदियों में प्रवाह की मात्रा, उसकी निरन्तरता और गुणवत्ता, तीनों को प्रभावित करके तिहरा काम करते हैं और जलधाराओं को सबल, अविरल और निर्मल बनाते हैं।
नर्मदा बेसिन में होने वाली कुल वर्षा का भविष्य तय करने में वन आवरण चमत्कारी काम करता है। जहाँ वन का घनत्व व स्वास्थ्य अच्छा होता है वहाँ जल का जमीन की सतह के नीचे बहाव अच्छा होने से नदियाँ सदानीरा और निर्मल बनी रहती हैं जबकि वन उजड़ जाने के बाद नदियाँ जल्दी ही सूख जाया करती हैं। इस अर्थ में विंध्य और सतपुड़ा पर्वतों व नर्मदा घाटी में मौजूद घने जंगलों को नर्मदा की जान कहना न केवल साहित्यिक व अलंकारिक दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बिल्कुल उपयुक्त है।
जुगलबंदी नदियों की और वनों की
जंगल बादलों के उतरने के हवाई अड्डे हैं।
देखने में भी आता है कि जहाँ घने वन होते हैं वहाँ उनकी आर्द्रता से द्रवित होकर बादलों का बरसना अधिक होता है परन्तु वायुमण्डल के जल को खींचकर वर्षा कराने में वनों की भूमिका को लेकर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं।
वनों की मौजूदगी और वर्षा की मात्रा में आमतौर पर सीधा-सीधा सम्बन्ध होने की मान्यता जनमानस में है परन्तु अधिक वनों के कारण अधिक वर्षा होना या वनों का नाश हो जाने के कारण वर्षा की मात्रा में कमी हो जाने की धारणा वैज्ञानिकों के समुदाय में लम्बे समय से बहस का कारण रही है। ली (1980) के अनुसार वनों की अधिकता वाले क्षेत्रों में आमतौर पर अधिक वर्षा होने के कारण आम धारणा बन गई है कि वर्षा को आकर्षित करके वन वर्षा की मात्रा में वृद्धि करते हैं, जिससे यह मान्यता भी बनी है कि वनों के कट जाने से वर्षा में कमी आ जाती है, परन्तु उनके अनुसार यह सार्वभौमिक सत्य नहीं है। वनों की उपस्थिति के कारण स्थानीय तौर पर वर्षा का वितरण भी कुछ सीमा तक प्रभावित होता है।
बादलों को आकर्षित करके बारिश कराने और जल उपलब्ध कराने की क्षमता की दृष्टि से वनों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- मेघ वन (cloud forest) तथा गैर-मेघ वन (non-cloud forest)। मेघ वन कुहरे या बादलों को रोककर वातावरण में मौजूद उस नमी को जमीन में सोखने में मददगार होते हैं जो अन्यथा वातावरण में ही रह जाती। इसके विपरीत गैर-मेघ वनों की भूमिका सामान्य तौर पर वर्षा से प्राप्त जल के प्रवाह को नियंत्रित करने तक ही सीमित रहती है। इस प्रकार मेघ वनों और गैर-मेघ वनों की जल उत्पादन सम्बन्धी क्षमताएँ अलग-अलग होती हैं नर्मदा अंचल के वनों में विशुद्ध रूप से मेघ वन जैसी स्थितियाँ प्रायः नहीं पाई जाती हैं।
अमरकंटक व पचमढ़ी और इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में मेघ वन जैसी स्थितियाँ दिखती अवश्य हैं परन्तु वर्षा कराने में इनकी भूमिका के सम्बन्ध में नर्मदा पर वैज्ञानिक अध्ययनों का अभाव होने से अभी इतना ही कहा जा सकता है कि यहाँ पर्वतों की ऊँचाई कम होने के कारण बादलों को रोककर वर्षा कराने में इन वनों की भूमिका सीमित हैं परन्तु धरातल पर गिरे जल को सोखकर भूजल स्तर बढ़ाने में ये वन अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सबल धारा - नदियों में जल की मात्रा
वर्षा में प्राप्त जल- (वाष्पोत्स्वेदन + भूजल पुनर्भरण) = नदियों के प्रवाह में उपलब्ध जल
अविरल धारा - नदियों में जल के प्रवाह की निरन्तरता
चार माह की चाँदनी - असमय सूखती नदियों का दर्द
निर्मल धारा - जंगल और नदियों में जल की गुणवत्ता
जल में पोषक तत्वों की असामान्य अधिकता पर वनों का नियंत्रण
जल में विषैले पदार्थों के मिलने पर वनों की चौड़ी बागड़ द्वारा नियंत्रण
प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता बिगड़ती है और मानव जीवन तथा स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करती है। जहरीले पदार्थों के जलधाराओं में मिश्रित होने से दूषित जल पीने, तैरने, नहाने या संक्रमित मछलियाँ खाने पर मनुष्यों को अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं। जॉनसन व अन्य (1984) द्वारा किये गए शोध से इस बात के संकेत मिले हैं कि नदी तटीय वन बफर अनेक प्रकार के प्रदूषक तथा विषैले तत्वों के प्रवाह को जल प्रवाह में जाने से रोक लेते हैं और उन्हें जमाकर मिट्टी या कार्बनिक पदार्थों में अवशोषित करा देते हैं अथवा सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं या रासायनिक क्रियाओं द्वारा अन्य अहानिकारक तत्वों मे बदल देते हैं।
लॉरसेन तथा उनके सहयोगियों (1984) ने पाया कि केवल दो फुट चौड़ी बफर पट्टी भी बीमारी पैदा करने वाले हानिकारक फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया (Faecal Coliform Bacteria) को 83 प्रतिशत तक रोक लेती है जबकि 7 फुट की बफर पट्टी तो लगभग 95 प्रतिशत फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया को पानी में जाने से रोकने में सक्षम है। यंग तथा उनके साथियों (1980) ने मिनीसोटा में आकलन किया कि 118 फीट चौड़ी बफर पट्टी से छनकर आने के बाद पानी में फीकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि वह जल मानव उपयोग के लायक हो जाता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि नदी तटीय वन बफर जल की गुणवत्ता सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
घने वनों में मौजूद वानस्पतिक बागड़ पोषक तत्वों को छानने में कारगर
भू-क्षरण व जलाशयों में अवसाद जमाव पर नियंत्रण में वनों की भूमिका
नदी के तटों का कटाव रोककर उन्हें स्थिर रखने में वनों की भूमिका
भूजल भण्डार और वन
भूजल स्तर पर वनस्पति आवरण का प्रभाव
वनस्पतियों और भूजल का पारस्परिक सम्बन्ध
प्राचीन भारत का भूजल विज्ञान-वराहमिहिर के अनुसार भूजल सूचक पौधे
बाढ़ की तीव्रता नियंत्रण में वनों की भूमिका
स्मार्ट सिटी के दौर में वनों द्वारा पेयजल स्रोतों का शुद्धिकरण
‘पर्यावरण की दशा पर प्रतिवेदन - वर्ष 2000’
(State of Environment Report - 2000) में वैज्ञानिकों द्वारा किये गए गहन शोध के आधार पर बताया गया है कि राज्य में वनों से ढँकी हुई भूमि से आने वाले जल में से 50 प्रतिशत से अधिक उत्कृष्ट से उत्तम श्रेणी का पाया गया जबकि खेतों से होकर आने वाले जल में से 20 प्रतिशत से भी कम उत्तम गुणवत्ता का पाया गया।
शहरी क्षेत्रों से आने वाले जल में तो अच्छी गुणवत्ता का प्रतिशत इससे भी कम पाया गया। यह स्थिति पूरे राज्य में पाई गई। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पेयजल प्रदाय करने वाले जलस्रोतों के इर्द-गिर्द वनों के संरक्षण से पेयजल उपचारण पर अपेक्षाकृत काफी कम खर्च करना पड़ता है जिससे राज्य की काफी धनराशि की बचत होती है।
इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि राज्य में सम्पन्न किये गए अध्ययनों से इस बात के संकेत मिले हैं कि यदि जलस्रोतों के इर्द-गिर्द वन न हों तो यांत्रिक अथवा रासायनिक उपचार द्वारा जल के शुद्धिकरण पर किये जाने वाले व्यय में काफी अधिक बढ़ोत्तरी सम्भावित है। कई क्षेत्रों में किये गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि भारी धातुओं और हानिकारक रासायनिक तत्वों के जलधाराओं में मिल जाने से जो प्रदूषण होता है उसे रोकने में वनों की विशेष भूमिका है। इन सभी प्रयोगों से वन बफर के कारण जल के शुद्धिकरण की पुष्टि होती है। इन प्रयोगों ने ये भी संकेत दिये हैं कि वन बफर के माध्यम से जलस्रोतों का शुद्धिकरण एक कम खर्चीला और अधिक सुविधाजनक तरीका है।
इकावारिया और लॉकमेन (1999) ने अध्ययनों के आधार पर दावा किया है कि न्यूयॉर्क शहर के जलग्रहण क्षेत्र के उपचार और सुप्रबन्धन पर यदि एक अरब अमेरिकी डॉलर का व्यय किया जाये तो अगले दस वर्षों में शहर के जल उपचारण के लिये बनाए जाने वाले संयंत्रों पर आने वाले खर्च में लगभग 4 से 6 अरब अमेरिकी डॉलर की बचत की जा सकती है। वर्ष 2002 में अमेरिका में 27 जल प्रदाय संस्थानों पर किये गए अध्ययन में पाया गया कि खुले में जलस्रोतों से पेयजल प्रदाय करने में उपचारण व्यय का जलग्रहण क्षेत्रों में वनों की मौजूदगी में सीधा सम्बन्ध है। अमेरिकन वॉटर वर्क्स एसोसिएशन द्वारा कराए गए इस अध्ययन में पाया गया कि जलस्रोत के जलागम में वन आवरण में प्रत्येक 10 प्रतिशत वृद्धि होने पर (60 प्रतिशत तक) उपचारण लागत में लगभग 20 प्रतिशत तक कमी आ जाती है। इस अध्ययन के निष्कर्ष तालिका 3.1 में दिये गए हैं।
तालिका 3.1 वनों से जल उपचारण खर्च में कम | ||
जलागम क्षेत्र में वनों का प्रतिशत | रासायनिक उपचारण व्यय प्रति मि. गैलन (यू.एस. डॉलर) | उपचारण व्यय में कमी का प्रतिशत |
10 | $ 115 | 19 |
20 | $ 93 | 20 |
30 | $ 73 | 21 |
40 | $ 58 | 21 |
50 | $ 46 | 21 |
60 | $ 37 | 19 |
स्रोत : Opflow, Vol-30, No. 5, May 2004, American Waterworks Association |
कई वैज्ञानिकों ने अध्ययनों में यह पाया है कि जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्र में अच्छे और सुप्रबन्धित वन होने पर जलाशयों के जल उपचार पर बहुत कम व्यय करना पड़ता है। जल के शुद्धिकरण में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए अनेक देशों में महानगरपालिकाएँ अब जल उपचारण पर अपने खर्चे कम करने के लिये पेयजल स्रोत के जलग्रहण क्षेत्र में वन आवरण बढ़ाने के उपायों पर काम कर रही हैं।
लागत-लाभ की दृष्टि से विकासशील देशों के लिये पेयजल स्रोतों की शुद्धि के लिये यांत्रिक अथवा रासायनिक पद्धतियाँ अपनाने की बजाय पेयजल स्रोतों के निकट वन बफर अधिक कारगर साबित हो सकते हैं क्योंकि इनमें प्रदूषक तत्वों को पौधों के ऊतक सोख लेते हैं या मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीव उन्हें हानि रहित तत्वों में बदल देते हैं। इस प्रकार बहुत कम खर्च में जनता को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था हो सकती है।
सौभाग्य से इस पुस्तक के लेखक को वर्ष 2014 में संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क महानगर की पेयजल शुद्धिकरण के लिये वनों के प्रबन्धन का जनभागीदारी आधारित मॉडल देखने और वहाँ के लोगों से प्रत्यक्ष चर्चा का अवसर मिला। अमेरिका के कैट्सकिल और डेलावायर जलाशयों से न्यूयॉर्क महानगर को जल प्रदाय करने के लिये इन जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्रों में ‘वाटरशेड एग्रीकल्चर काउन्सिल’ व इसके साथ जुड़ी अनेक संस्थाएँ व लोग मिलकर इन जलाशयों के जल को साफ रखने के लिये जलग्रहण क्षेत्र के वनों को सुप्रबन्धित करते हैं।
यह अनुकरणीय उदाहरण अन्य कई देशों ने भी अपनाना प्रारम्भ कर दिया है जिसके फलस्वरूप अब सियोल, टोक्यो, बीजिंग, म्यूनिख, सिडनी, मेलबॉर्न, स्टॉकहोम, साल्वाडोर आदि महानगरों में पेयजल शुद्धिकरण तंत्र में रासायनिक और यांत्रिक विधियों के साथ-साथ वन प्रबंधन के घटक पर भी ध्यान देना शुरू किया गया है।
इन्दौर महानगर को नर्मदा जल भेजने वाले इलाकों के खेतों की पड़ताल
निष्कर्ष - हाथ कंगन को आरसी क्या?
माँ नर्मद के प्राण तो बसते हैं जंगलों में…
पर्वत नहीं बर्फीले, मैकल के अंचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
ये विन्ध्य सतपुड़ा के वन, शिव की जटाएँ हैं;
हरियाली और जल की, अनमोल छटाएँ हैं।
नदियों का वेग थाम के, पानी सहेजते हैं;
भूगर्भ के भण्डार में वन, जल को भेजते हैं।
छन्नों की तरह, नदियों से रोकते हैं मल को;
खेतों का जहर पीकर, करते हैं साफ जल को।
धाराएँ करते निर्मल, दो-चार ही पलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
मैकलसुता के मायके में, साल की बहारें;
बाकी जगह हैं फैलीं, सागौन की कतारें।
मिश्रित वनों की, अपनी रंगीनियाँ न्यारी हैं;
मन मोह लेने वाली, छवियाँ बड़ी प्यारी हैं।
धानी कहीं है घास, कहीं फूल लाल-पीले;
कहीं ऊँचे वृक्ष पसरे, सब दृश्य हैं रंगीले।
कहीं डिग न जाय धारा, दुनिया की हलचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण तो बसते हैं जंगलों में।
रहती हैं सदानीरा, नदियाँ हरे वनों से;
सरिताओं में जल बहता है, वनों के भरोसे।
वन तो हैं असलियत में, पानी के कारखाने;
ये बात पूरी सच है, कोई माने या न माने।
जंगल जहाँ घना है, पानी वहाँ बना है;
प्रत्यक्ष दीखता है, फिर किससे पूछना है।
बर्बाद वक्त क्यों करें, बेकार अटकलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
इन जंगलों के कारण, रहती यहाँ नमी है;
शहरों को मिलता पानी, खेतों की तर जमीं है।
वन मिट गए तो, नर्मदा में जल नहीं बहेगा;
वन के बिना प्रवाह ये, अविरल नहीं रहेगा।
सूखा अधिक पड़ेगा, धरती रहेगी प्यासी;
बाधित विकास होगा, धरती रहेगी प्यासी;
बाधित विकास होगा, छा जाएगी उदासी।
नदियों में जल न होगा, तो आएगा क्या नलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
पर्वत नहीं बर्फीले, मैकल के अंचलों में;
माँ नर्मदा के प्राण, तो बसते हैं जंगलों में।
प्रवाह की पवित्रता में ही नर्मदा की सार्थकता
-महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश
जंगल और नदी की जुगलबन्दी
-अमृतलाल वेगड़
नदी हमेशा नई रहती है, बहा पानी लौटकर नहीं आता, जंगल नदी के पालक पिता और उसकी आत्मा होते हैं जो हर क्षण नदी को जन्म देते रहते हैं। आत्मा ही कमजोर हो गई तो आत्मजा कैसे सशक्त रहेगी? बिजली कैसे बनेगी और सिंचाई कैसे होगी? नर्मदा घाटी विकास योजनाओं की सफलता और जीवन के लिये नर्मदा का स्वस्थ जीवन और नर्मदा के स्वस्थ जीवन के लिये जंगलों का मस्त जीवन जरूरी है।
-महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश
हम वन-विनाश के कगार पर खड़े हैं।… नर्मदा मेकलसुता है तो वनसुता भी है। वन ही वर्षा के पानी को रोककर रखता है (हर पेड़ एक छोटा-मोटा चेकडैम है) ताकि पानी जमीन के अन्दर जाये और गाढ़े समय में भूजल के रूप में हमारी सहायता करे। अगर वन नहीं रहेंगे तो नर्मदा भूखी-प्यासी रह जाएगी और एक दिन दम तोड़ देगी।
-अमृतलाल वेगड़
नर्मदा और उसकी सहायक नदियों में जलागमन पहाड़ों के भीतर संचित वर्षाजल के माध्यम से ही होता है और पहाड़ों में पर्याप्त जल संचय में वनों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अतः हम कह सकते हैं कि जीवनदायिनी नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के जीवनदाता ये वन ही हैं। वन कम होंगे तो पहाड़ों में जल संग्रह कम होगा। परिणाम नर्मदा की कई सहायक नदियों को देखकर समझा जा सकता है जो मानसून के तीन चार महीनों बाद ही सूख जाती हैं। वन समाप्त हुए तो नर्मदा भी सदानीरा कैसे रह सकेगी। वनस्पति आवरण को सुरक्षित रखना और विकसित करना एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। जीवनदायिनी के जीवनदाता को स्वस्थ जीवन देना बेहद जरूरी है।
-महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा
वन के वंदनवार से बूँदों की मनुहार
-क्रांति चतुर्वेदी, बूँदों की मनुहार
यदि वृक्ष नहीं बचे, जंगल नहीं बचा तो नर्मदा कहाँ से बचेगी और नर्मदा ही नहीं बची या तन्वंगी होकर रह गई तो परियोजनाएँ कैसे चलेंगी। नर्मदा घाटी योजनाओं की पूर्णता तभी धरती को हिरण्यमयी बना सकेंगी जब सारी घाटी हरीतिमा से ढँकी होगी।
-महेश श्रीवास्तव, प्रणाम मध्य प्रदेश
वनों की प्रबन्धन योजनाओं में जल संरक्षण पर ध्यान दिया जाय
-राष्ट्रीय वन आयोग (2006)
बेशक वरदा, प्राणदा है नर्मदा। किन्तु प्राणियों को प्राण और जीवन को गान देने वाली नदी का प्रवाह घटा और दोहन बढ़ा है, जंगल कटे और प्राणी बढ़े हैं। विभूषित नदी दूषित हो रही है। प्राणदा के प्राणों पर बन आई है। हमें यह जानना होगा कि नर्मदा है तो हम हैं और वन हैं तो नर्मदा है। नर्मदा है तो अन्न है, धन है, प्रकाश है, जीवन है।
-महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा
नर्मदा ‘न मृता तेन नर्मदा’ के विशेषण से विभूषित रहे इसके उपाय हमें करना और इसी क्षण से प्राणप्रण से करना है। हमारे होने के लिये नर्मदा का अपने वैभव में होना जरूरी है।
-महेश श्रीवास्तव, वरदा नर्मदा
पारिस्थितिक सेवाओं के लिये भुगतान जलूद से उद्वहन करके वांचू प्वाइन्ट होते हुए इन्दौर महानगर को प्रदाय किये जा रहे के पेयजल के प्राकृतिक शुद्धिकरण में बड़वाह और इन्दौर वनमण्डल के वन प्राकृतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चोरल घाट के जंगलों और विंध्य पहाड़ियों के दक्षिणी ढलानों में मौजूद वन इन्दौर की पेयजल व्यवस्था के प्राकृतिक शुद्धिकरण के नजरिए से महत्त्वपूर्ण हैं। अतः इन वनों को बचाने में इन्दौर उद्योग जगत को जोड़ने के प्रयास वन विभाग द्वारा किये गए। इसके अन्तर्गत वर्ष 2015 में बड़वाह वनमण्डल के 2 गाँवों में वन समितियों को वन सुरक्षा के एवज में इन्दौर के उद्योग जगत से जुड़ी 2 कम्पनियों साइन्टेक इको फाउंडेशन द्वारा रु. 227040 तथा आर्टिसन एग्रोटेक प्रा.लि. द्वारा रु. 211700 के अग्रिम चेक देकर वन समितियों के ग्रामीणों को पारिस्थितिक सेवाओं के लिये भुगतान (Payment for Ecosystem Service-PES) करने की व्यवस्था प्रायोगिक तौर पर पहली बार लागू की गई है। इस तरह के प्रयोग बड़े पैमाने पर और संस्थागत तौर पर ‘कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ के अन्तर्गत करने की आवश्यकता है। |