नर्मदा से सरदार सरोवर तक विस्थापन का बढ़ता दर्द

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जाहिर है कि एक तरफ से सरकार की हीलाहवाली और अब गुजरात का दबाव न केवल बाँध को खतरे के निशान पर ले जा रहा है तो दूसरी ओर विस्थापितों को पुनर्वास स्थल पर पर्याप्त सुविधाएँ न मिलने एवं अधिकतम मुआवजे का मोह पर मेधा पाटकर का साथ सरकार की मुश्किलें तो बढ़ा ही रहा है। ऐसे में एक बार विकास की परिभाषा पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं तो विस्थापितों का मौन उपवास अब चिखल्दा गाँव में चीखें मारने लगा है।

मध्य प्रदेश के धार जिले के चिखल्दा गाँव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख मेधा पाटकर और ग्रामीण पिछले 11 दिन से उपवास पर हैं। उनकी मौन चीख अब सरकार को मुश्किलें पैदा करने लगी हैं। नर्मदा सागर परियोजना में उजड़े हरसूद का दर्द अभी तक लोग भूले नहीं कि सरदार सरोवर बाँध के विस्थापकों का दर्द अब कराहने लगा है। ये विकास की कैसी परिभाषा गढ़ी जाती है जिसमें आमजन के जीवन बाधा, विस्थापन, बिछुड़ना और हड़ताल, अनशन के लिये बाध्य हो जाता है। सोचो, 30 सालों में सरकार विधिवत विस्थापन नहीं कर पाई और अब जब मरने जीने की नौबत आ गई तब हाथ-पाँव मार रही है।

दरअसल, 1992 में नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बाँध के लिये सर्वे किया गया था तब लगभग 192 गाँव और 38 हजार परिवार डूब क्षेत्र में माने गये थे और 2008 में सेंट्रल वाटर कमीशन ने डूब क्षेत्र में नया सर्वे किया एवं 15 हजार परिवार डूब क्षेत्र में बाहर बताये वहीं 2017 में एनवीडीए ने दावा किया कि 178 में से 107 गाँव खाली हो चुके हैं। चूँकि गुजरात में पानी की जरूरत है इस कारण अब और समय नहीं बढ़ाया जा सकता। मध्य प्रदेश सरकार का संकट भी इसी कारण है कि समय से विस्थापितों का पुनर्वास नहीं कर पाई और अब बाँध की ऊँचाई न बढ़ने देने की गुहार भी नहीं लगा सकते क्योंकि मामला गुजरात से जुड़ा है। इसी बीच नर्मदा का स्तर खतरे के निशान को छूने को है। शनिवार शाम को ही यह 121-500 मीटर तक पहुँच गया जबकि खतरे का निशान 123-280 मीटर पर है और भिखल्दा गाँव में नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख मेधा पाटकर एवं उनके साथ अनशन पर बैठे ग्रामीण टस से मस नहीं हो रहे।

अनशन के 10वें दिन सरकार ने एक बड़ी कोशिश करते हुए सन्त भय्यू महाराज के साथ मुख्यमंत्री के सचिव बी. चंद्रशेखर, इंदौर कमिश्नर संजय दुबे और एडीजी अजय शर्मा के प्रतिनिधिमंडल को उपवास स्थल पर भेजा था लेकिन करीब 4 घंटे तक चली बातचीत का दौर बेनतीजा रहा। मेधा पाटकर ने स्पष्ट रूप से कहा कि हमारे धरने को मुख्यमंत्री ने प्रतिष्ठा का मुद्दा बना रखा है और बाँध में पानी भरना मोदी जी की राजनैतिक जरूरत है। गाँव खाली नहीं हुए हैं और न खाली होंगे। बहरहाल, डूब में आने वाले गाँवों का विस्थापन का भय है, लेकिन मेधा पाटकर की मौजूदगी उनकी हिम्मत बनाये हुए है। पुनर्वास स्थल पर कार्य तेजी पर है। सबसे बड़ा प्रश्न बार-बार यही उभर रहा है कि गुजरात को अगर इतने पानी की अभी जरूरत नहीं है तो फिर डैम को भरने की इतनी जल्दी क्यों है। मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सीधा आरोप लगाते हैं कि गुजरात में विधान सभा के चुनाव होने के कारण ही यह सब हो रहा है।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी गुजरात के कारण कुछ कर नहीं पा रहे। वहीं 3600 करोड़ खर्च करने के बावजूद सरकार की मुश्किलें दिन-प्रतिदिन वैसे ही बढ़ रही हैं जैसे सरदार सरोवर बाँध में जलस्तर बढ़ रहा है क्योंकि अभी समस्याएँ इतनी ज्यादा है कि इनका समाधान तय समय सीमा में होना सम्भव नहीं है। अधिकतर लोग अपने घर छोड़कर सरकार द्वारा निर्धारित पुनर्वास स्थलों पर मिली जगहों पर रहने गये ही नहीं। सो, वहाँ पर बाकी सुविधाएँ भी अब तक नहीं जुटा पाई हैं। लगभग 15 सौ करोड़ खर्च करने के बाद भी अब तक रहने लायक सुविधाएँ पुनर्वास स्थल पर नहीं जुट पाई हैं। कुछ लोगों ने पुनर्वास का कोई पैकेज नहीं लिया और सुप्रीम कोर्ट चले गये जहाँ इन्हें 60 लाख का पैकेज मिल गया। इनकी संख्या केवल 745 है। ऐसे में बाकी लोगों को सरकार से मिलने वाली मुआवजा राशि कम लगने लगी और उनका असन्तोष धीरे-धीरे बढ़ने लगा।

जाहिर है कि एक तरफ से सरकार की हीलाहवाली और अब गुजरात का दबाव न केवल बाँध को खतरे के निशान पर ले जा रहा है तो दूसरी ओर विस्थापितों को पुनर्वास स्थल पर पर्याप्त सुविधाएँ न मिलने एवं अधिकतम मुआवजे का मोह पर मेधा पाटकर का साथ सरकार की मुश्किलें तो बढ़ा ही रहा है। ऐसे में एक बार विकास की परिभाषा पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं तो विस्थापितों का मौन उपवास अब चिखल्दा गाँव में चीखें मारने लगा है।

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