पानी और बाजार

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‘जल ही जीवन है’ ऐसा कहा गया है। पहले हमारे पूर्वज राह चलते पथिक को पानी पिलाने में बहुत सुकून पाते थे। जगह-जगह पर प्याऊ लगाकर लोगों का प्यास बुझाया जाता था लेकिन वही पानी अब बोतलों में बंद करके बाजार में बेचा जा रहा है। पानी, बाजार की वस्तु हो गई है। जिसे कंपनियां अपने बोतलों में भरकर बाजार में 12 से 15 रुपए तथा कैन में भरकर बेच रही हैं। पानी के व्यवसायीकरण ने पानी को मंहगा बना दिया है। पानी के निजीकरण के पीछे एक बहुत बड़ा खेल खेला जा रहा है और इसे कंपनियां मीडिया के द्वारा प्रचारित भी कर रही हैं।

2006 में नेशनल कोलिशन ऑफ अमेरिकन नन्स ने बोतलबंद पानी का जोरदार विरोध किया। ननों ने इसके विरोध को नैतिकता से जोड़ते हुए कहा कि पानी एक प्राकृतिक संपदा है और इसका निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए। पानी के निजीकरण का मतलब है, जिसके पास पैसा नहीं है उसे पानी से वंचित होना पड़ेगा। जबकि प्रकृति पानी के लिए हमसे कोई कीमत वसूल नहीं करती।

एक कहावत है, 'आप पानी खरीद नहीं सकते, सिर्फ उसको अपने पास तक लाने का किराया दे सकते हैं।' ऐसे में सवाल उठता है कि अमेरिकियों ने 2006 में सीलबंद पानी की बोतल के लिए 11 अरब डॉलर क्यों खर्च किए, जबकि इतना पानी वे अपने घर में लगे नलों से इस कीमत का दस हजारवां हिस्सा खर्च करके भी पा सकते थे? इसका सीधा सा जवाब है कि पानी के व्यवसायीकरण ने पानी को महंगा बना दिया है। एलिजाबेथ रॉयट इसे एक आधुनिक सामाजिक परिघटना बताती हैं। वह कहती हैं कि ऐसा हमारे सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में आ रहे बदलावों के कारण हो रहा है। बोतलबंद पानी के बढ़ते प्रचलन को बोतल मैनिया का नाम देते हुए एलिजाबेथ कहती हैं कि उनके पास सिर्फ नल का पानी का पीने का लंबा तजुर्बा है। प्राकृतिक रूप से पानी की सर्व सुलभता के कारण वह बोतलबंद पानी के उपयोग का विरोध करती हैं। अपनी एक किताब में उन्होंने नल के पानी को उपयोगी बताते हुए सीलबंद पानी से परहेज करने की सलाह दी है।

सबसे बड़ा शत्रु

1987 में अमेरिका के लोग पूरे साल में औसतन 5.7 गैलन पानी सीलबंद बोतलों से पीते थे। लेकिन मैडोना सरीखी अभिनेत्रियों को लेकर अश्लीलता के पुट के साथ बनाए गए आकर्षक विज्ञापनों के जरिये बोतल बंद पानी के समर्थन में अभियान शुरू किए गए। 'ट्रुथ ऑर डेयर' नामक इस अभियान ने 1997 तक अमेरिका में सीलबंद पानी की खपत दोगुनी कर दी। पानी के व्यवसायीकरण की इस सफलता के बाद सन् 2000 में पेप्सिको समूह की बोतलबंद पानी बनाने वाली कंपनी के सीईओ ने अहंकार पूर्वक कहा कि 'नल का पानी सबसे बड़ा शत्रु है।' 2005 तक यह शत्रु सिर्फ नहाने-धोने के काम आने लगा। 2006 में पेप्सिको की एक सह कंपनी ने दो करोड़ डॉलर बोतलबंद पानी के विज्ञापनों पर खर्च किया। कंपनी यह संकेत देने में सफल रही कि अमेरिकी 'ज्यादा पानी पीते हैं।' फलस्वरूप इस साल प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह 27.6 गैलन बोतलबंद पानी की बिक्री की गई।

दोतरफा झोंके

लेकिन बाजार दोतरफा झोंके लाता है। जैसे ही बोतलबंद पानी को स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और किडनी के लिए वरदान साबित करने वाले प्रचार ने जोर पकड़ा, वैसे ही इसके पीछे के खेल पर से पर्दा उठना शुरू हो गया। 2006 में नेशनल कोलिशन ऑफ अमेरिकन नन्स ने बोतलबंद पानी का जोरदार विरोध किया। ननों ने इसके विरोध को नैतिकता से जोड़ते हुए कहा कि पानी एक प्राकृतिक संपदा है और इसका निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए। पानी के निजीकरण का मतलब है, जिसके पास पैसा नहीं है उसे पानी से वंचित होना पड़ेगा। जबकि प्रकृति पानी के लिए हमसे कोई कीमत वसूल नहीं करती। इसी बीच नए आंकड़े आए, जिनसे पता चला कि हर साल 1.7 अरब बैरल तेल सिर्फ इन बोतलों के उत्पादन में लगता है। वहीं एक विशेषज्ञ के अनुसार बोतल के उत्पादन, ढुलाई और बिक्री में लगने वाला अतिरिक्त खर्च तेल की कुल लागत का एक चौथाई है।

पीने का पानी बाजार में पहुंच रहा है

रॉयट पूछती हैं कि अगर बोतल के समर्थन और उसके विरोध में आंदोलन शुरू हो रहे हैं, तो यह सोचना दिलचस्प है कि मुद्दा भटक चुका है। मद्दा पानी है, न कि बोतल। रॉयट अपने किताब 'गारबेज लैंड' में कहती हैं कि इस विषय को और गहराई में जाकर पड़ताल करने की जरूरत है। फ्रायबर्ग शहर की मिसाल देते हुए वे बताती हैं कि वहां के तीन हजार लोग नेस्ले द्वारा पोलैंड स्प्रिंग से एक साल में करीब 17 अरब गैलन पानी के दोहन को बंद करने का प्रयास कर रहे हैं। जब रॉयट वहां पहुंचीं तो वहां इसको लेकर घमासान मचा था। पड़ोसी आपस में झगड़ रहे थे और कई तरह की अफवाहों- जिनमें योजना आयोग की गोपनीयता भी शामिल थी ने अपनी जगह बना ली थी। वे कहती हैं कि उन्होंने पानी को प्राकृतिक संपदा से आर्थिक ताकत बनने की घटना को वहीं महसूस किया। उन्होंने वहां स्थानीय लोगों को काफी आहत देखा। यह दृश्य जल युद्ध की तरह था। दिन भर में पानी के करीब 92 टैंकर उस इलाके में जलापूर्ति करते थे। वहां के लोग यह महसूस करने लगे थे कि उनकी घेरेबंदी की जा चुकी है, क्योंकि जल स्रोत साफ होने के बावजूद देश की नदियों और झरनों का चालीस फीसदी हिस्सा तैराकी या मत्स्य पालन के लिहाज से भी प्रदूषित हो चुका था। फ्रायबर्ग के निवासियों ने पानी कंपनियों को हटाने का प्रयास किया। उनके खिलाफ वहां के लोगों ने माइन के सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा कर दिया।

एक बड़ा खेल

रॉयट कहती हैं कि वह कोई भी पानी पीने से पहले कम से कम दो बार सोचती हैं। पानी में कई तरह के जहर घुलते जा रहे हैं। भूमिगत जल भी तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। नल के पानी में भी कम से कम 10 प्रकार के प्रदूषित तत्व मौजूद रहते हैं। पानी के निजीकरण के पीछे एक बड़ा खेल खेला जा रहा है। यह हम सबकी साझी नियति की असफलता है। रॉयट कहती हैं कि अगर आपको यह लगता है कि बोतलबंद पानी पीकर आप स्वास्थ्य को लेकर निश्चिंत रह सकते हैं तो यह एक भारी भूल है। बात सिर्फ इतनी है कि पानी का निजीकरण करने के बाद उसे ज्यादा से ज्यादा बेचने के लिए मीडिया से प्रचार किया जा रहा है।

(सीएसई के सौजन्य से)

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