पानी की भारतीय जीवन दृष्टि

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पानी के बारे में यह दृश्य भारतीय संस्कृति में इतनी गहरी हो गई है कि पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है। प्यासे को पानी पिलाना जीवन का अनिवार्य कर्तव्य समझा जाता है। पानी के सम्बन्ध में भारत का एक विशेष दृष्टिकोण रहा है। पानी पर भारतीय मनीषा ने एक पूरा शास्त्र रचा है। सृष्टि के निर्माण के लिए जो पंचतत्त्व माने गए हैं, जल उनमें से एक है। गीता में कहा गया है-

अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न संभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्या यज्ञः कर्म समुद्भवः।।


सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति जल वर्षा से होती है,वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। यानी मनुष्य के कर्म ही जल की उत्पत्ति के मूल कारक हैं। पानी बिना अन्न संभव नहीं, पानी बिना जीवन भी संभव नहीं। इसलिए भारतीय संस्कृति में पानी कोई सामान्य वस्तु नहीं जीवन का पर्याय माना गया है और जैसे जीवन पवित्र है उसी प्रकार पानी भी पवित्र है।

दरअसल मानव जीवन की चमक को पानी की निर्मलता और चमक से प्रकट करने की परम्परा भरतीय संस्कृति में लम्बे समय से बन गई है। जीवन में से पानी का उतर जाना जीवन के समाप्त जैसा समझा जाने लगा है। तभी तो रहीम ने कह डाला

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून।।


आब (पानी) से ही आबरू शब्द बना है। पानी उतर जाना यानी आबरू चले जाना।
पानी के बारे में यह दृश्य भारतीय संस्कृति में इतनी गहरी हो गई है कि पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है। प्यासे को पानी पिलाना जीवन का अनिवार्य कर्तव्य समझा जाता है। इस जीवन दृष्टि को जन-जन में निरन्तर बिठाने के लिए कुएँ खुदवाना, प्याऊ बिठाना धर्म के कार्य माने गए हैं।

एक बार भोजन के बिना कुछ समय तक जीवन चल सकता है। लेकिन पानी के बिना नहीं, पानी हरेक को मिले यह जीने का अधिकार माना गया है। जिसके पास धन नहीं है, जो भोजन नहीं खरीद सकता वह भोजन के लिए तो भीख माँग सकता है। लेकिन पानी की भीख माँगने की आवश्यकता नहीं।

पानी के बहुराष्ट्रीयकरण को रोकना मात्र आर्थिक और व्यवसायिक मसला नहीं है, यह मूलतः सांस्कृतिक मुद्दा है। इसके लिए व्यापक जन आन्दोलन खड़ा करने की जरूरत है। आमजन के हाथ से पानी का निकल जाना, यानी उसकी मानवता ही निकल जाने के समान है।

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