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पेयजल योजनाओं में परम्परा का स्थान

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हिमालय फाउंडेशन के सहयोग से किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि जहाँ लोग परम्परागत ढंग से प्रयोग कर रहे हैं, वहाँ पानी की उपलब्धता बनी हुई है।

यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बर्नीगाड़ स्थित गंगनाणी धारा का उदाहरण लें। एक दंतकथा के अनुसार जब पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान लाखामंडल में समय व्यतीत किया था तो उन्हें पूजा में तत्काल गंगा का पानी चाहिये था। अर्जुन ने पहाड़ पर तीर मारा और गंगा की धारा इस स्थान से निकल आई। तब से इस स्थान को पूजनीय माना जाता है। पानी के मुख्य भाग के पास लोग नंगे पाँव जाते हैं।

वर्तमान में इस जल धारा के सौन्दर्यीकरण हेतु 14 लाख स्वीकृत हुए हैं। निर्माण कार्य के लिये जब मजदूर धारा के मुख्य भाग तक पहुँचे तो उनकी आँखें चौंधिया गई। तब स्थानीय लोगों ने ठेकेदार को पहले पूजा करने तथा निर्माण कार्य नंगे पाँव करने की सलाह दी। तभी निर्माण कार्य संभव हो पाया।

यमुना घाटी के देवरा, गुराड़ी, पैंसर, हल्टाड़ी, सुँचाण गाँव, दणगाण गाँव, पुजेली, खन्यासणी, भितरी, देवल, दोणी, सट्टा, मसरी, ग्वालगाँव, खन्ना, सेवा, बरी, हड़वाड़ी, गंगटाड़ी, खाण्ड, कोटी, नगाणगाँव, थान, सरनौल, सर बडियार, बाड़िया, खरसाली, यमनोत्री आदि 30 गाँवों में किये गये अध्ययन से मात्र छः गाँवों में जल परम्परा के नमूने प्राप्त हुए। मोल्डा गाँव लगभग 1,800 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। यहाँ पर एक नक्काशीदार पत्थर का धारा (नौला) था, जिससे पानी एकरूपता में बहता था। आज यह धारा सूख रहा है। गाँव के भद्रकाली देवी के ज्येष्ठ पुजारी बुद्धिराम बहुगुणा ने बताया कि जब से इस धारा की सफाई बंद हुई और लोग यहाँ जूतों सहित जाने लगे तो पानी बंद हो गया है। पहले प्रत्येक संक्रांति में इस जल धारा की पूजा व सफाई होती थी। वैसे भी यह देवता का पानी है। किम्वदन्ती के अनुसार बड़कोट से राजा सहस्त्रबाहु की गायें मोल्डा में चरने आती थीं। इस जल धारा के पास उनकी एक गाय अपने थन से दूध छोड़ती थी। राजा को जब मालूम हुआ तो उक्त स्थान को नष्ट करने के आदेश दे दिये, किन्तु उक्त स्थान पर दो बड़े साँप निकले जो धरती पर आकर मूर्ति के रूप में प्रकट हुए और एक जल धारा भी फूट पड़ी। धारा पत्थर के नक्काशीदार नाग मुख से निकलने लगी। तब से इस धारा को भूमनेश्वर धारा कहते हैं।

इस प्रकार देवताओं से जुड़े गागझाला धारा, कन्ताड़ी और पौंटी गाँव का पवनेश्वर धारा, डख्याटगाँव का पन्यारा, सर गाँव के सात नावा, कमलेश्वर धारा, कफनौल का रिंगदूपाणी आदि जल धाराओं का संबंध है। वर्तमान में सरकार भी जल पर आधारित जो भी योजनायें बना रही है, वे परम्परागत जल संस्कृति के विपरीत हैं।

परम्परा और संस्कृति सरकारी योजनाओं में कोई मायने नहीं रखतीं। अब विद्वान भी मानने लगे हैं कि पुरातन जल संस्कृति में एक खास विज्ञान है। लोक विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रवि चोपड़ा कहते हैं कि जहाँ-जहाँ पुरातन जल संस्कृति के साथ छेड़छाड़ की गई वहाँ पानी की धारा लुप्त हो गई। जल संरक्षण व दोहन का कार्य लोक विज्ञान के अनुरूप होना चाहिये। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षक अत्तर सिंह पँवार बताते हैं कि पहले जल स्रोतों के नजदीक ‘सिल्वाणी’ होता था, जो पानी को फिल्टर करता था। सिल्वाणी एक स्थानीय शब्द है जिसे ऐल्गी नाम से जाना जाता है। यह पानी को स्वच्छ रखने के साथ उसके रिचार्ज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

पानी के बढ़ते हुए संकट से निपटने के लिये यह जरूरी है कि पानी से जुड़ी योजनाओं में परम्परा और लोक विज्ञान का भी ध्यान रखा जाये।
 

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