पृथ्वी की उम्र के बारे में जानकारी (Earth age dating methods in Hindi)

पृथ्वी की उम्र के बारे में जानकारी (Earth age dating methods in Hindi)

Published on
17 min read

पृथ्वी कब बनी थी, किस रूप में बनी थी, क्या सदा से ऐसी ही रही है या बदलती रहती है, कब इस स्वरूप में आई कि जीवन को सहारा दे सके, और जीवन के आगमन के बाद पृथ्वी के रूप में कैसे-कैसे परिवर्तन हुए - ऐसे कई सारे सवाल इन्सान पूछते रहे हैं और जवाब खोजते रहे हैं। इन सवालों और जवाबों का और सवाल से जवाब तक पहुँचने की यात्राओं का इतिहास बहुत दिलचस्प है। यह हमें वैज्ञानिकों के काम करने के ढंग के बारे में काफी कुछ बता सकता है। तो मेरा ख्याल है कि आप भी इस यात्रा में शरीक हों, इसका मज़ा लें। मज़ा लेने का तरीका यह होगा कि इस बात की ज़्यादा चिन्ता न करें कि जवाब क्या मिला, कितना सही या गलत था, बस यह देखें कि जवाब की ओर कदम कैसे बढ़ाए गए।

जाँच की विधि

पृथ्वी की उम्र एक विशेष श्रेणी का सवाल है। कोई भी यह उम्मीद तो कर ही नहीं सकता कि वह एक बार फिर इस प्रक्रिया को शुन्य डिग्री करवाएगा और फिर देखता/गिनता रहेगा कि वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितने साल लगते हैं। आपके पास जो कुछ है वह पृथ्वी की आज की स्थिति है। हाँ, यह सही है कि आपके पास कुछ नियमों, कुछ प्रक्रियाओं की समझ भी मौजूद है। तो आप कोशिश कर सकते हैं कि इन नियमों को लागू करके पृथ्वी की उम्र का अन्दाज़ लगाएँ। मगर आपको मानना होगा कि ये नियम, ये प्रक्रियाएँ अतीत में भी ऐसी ही थीं। यानी आपको मानना होगा कि आज जो नियम लागू होते हैं, वे सुदूर अतीत में लागू होते रहे होंगे।

विज्ञान में नियमों और प्रक्रियाओं की इस एकरूपता को सिद्धान्त रूप में व्यक्त करने का काम जेम्स हटन, चार्ल्स लायल वगैरह ने किया था। इस नियम का आशय यह है कि आज जो भी नियम लागू होते हैं वे अतीत पर भी उसी तरह लागू किए जा सकते हैं। इसे एकरूपतावाद कहा गया। इसका एक अतिवादी स्वरूप यह था कि आज प्रकृति में जो प्रक्रियाएँ चल रही हैं, वे उसी ढंग से अतीत में भी चलती रही होंगी। आगे चलकर हम देखेंगे कि नियमों की एकरूपता तो जायज़ साबित हुई है मगर प्रक्रियाओं की एकरूपता पर कई सवाल हैं। दरअसल पृथ्वी की उम्र का पता लगाने में यह एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु रहा है।

दूसरी बात यह है कि आपको यह पता नहीं है कि आज की पृथ्वी किस स्थिति से शुन्य डिग्री करके यहाँ तक पहुँची है। यानी न्यूटन के तरीके को लागू करना मुश्किल है क्योंकि उस तरीके का आग्रह होता है कि आपको प्रारम्भिक स्थिति का पता होना चाहिए, तब आप नियमों को लागू करके वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में लगा समय बता सकेंगे। मगर हमें तो प्रारम्भिक स्थिति की भनक तक नहीं है। तो आप कुछ अन्दाज़ लगाएँगे कि शुरुआत में पृथ्वी कैसी रही होगी। फिर आजकल के मान्य नियमों को लागू करके गणना करेंगे कि शुरुआती परिस्थिति से आज की परिस्थिति तक पहुँचने में कितना समय लगा होगा। तो पृथ्वी की उम्र पता लगाने की किसी विधि में --

- आज की किसी परिस्थिति का अवलोकन करना होगा,

- कोई तर्कसम्मत मान्यता लेनी होगी कि शुरुआत में परिस्थिति कैसी रही होगी,

- इस परिस्थिति में परिवर्तन का नियम पता करना होगा,

- और नियम को लागू करके गणना करनी होगी कि शुरुआती परिस्थिति से चलकर हम आज की परिस्थिति तक कैसे व कितने समय में पहुँचे।

आप देख ही सकते हैं कि पूरा मामला चन्द नियमों, चन्द प्रक्रियाओं की समझ और चन्द मान्यताओं पर टिका है। यदि ये मान्यताएँ सही हैं तो आप सही निष्कर्ष पर पहुँचने की उम्मीद कर सकते हैं। मगर आपको पता कैसे चलेगा कि आपकी मान्यताएँ सही हैं?

पृथ्वी की उम्र की खोज की कथा इसी सवाल के जवाब पर टिकी है - जो मान्यताएँ आप लेकर चलते हैं, उनके सही या गलत होने का फैसला कैसे करें।

मैं यहाँ विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में लगाए गए अनुमानों या गणनाओं में नहीं जा रहा हूँ क्योंकि वहाँ हमें न तो यह मालूम होता है कि उन गणनाओं के पीछे आधार क्या थे, और न ही यह मालूम होता है कि वे लोग किन मान्यताओं को लेकर आगे बढ़े थे। तो हम बात करेंगे आधुनिक विज्ञान में किए गए प्रयासों की। इन प्रयासों से एक बात और उजागर होती है - वैज्ञानिक लोगों के सामने जब कोई सवाल आता है (या जिसे वे एक सवाल मानते हैं) तो वे उस सवाल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिलने का इन्तज़ार नहीं करते। वे तो उपलब्ध जानकारी के आधार पर परिकल्पनाएँ विकसित करते हैं और किसी निष्कर्ष तक पहुँचते हैं और फिर चुनौतियों का इन्तज़ार करते हैं।

पहला प्रयास

तो शुरू करते हैं पहले-पहल किए गए एक व्यवस्थित प्रयास से। दरअसल, इस प्रयास में से जो जवाब निकला था वह जल्दी ही गलत साबित हो गया था मगर इस प्रयास की एक विशेषता यह थी कि इसने आगे के रास्ते खोल दिए थे। यह प्रयास किया था विलियम थॉमसन ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में (1862)। विलियम थॉमसन को लोग प्राय: लॉर्ड केल्विन के नाम से जानते हैं। आइए देखें कि केल्विन कैसे आगे बढ़े और कहाँ पहुँचेे।

केल्विन ने पृथ्वी की उम्र पता करने के लिये ऊष्मा का सहारा लिया था। उन्होंने माना कि पृथ्वी और सूरज साथ-साथ ही बने थे। यानी हमारी पृथ्वी शुरुआत में रक्त-तप्त नहीं बल्कि श्वेत-तप्त और पिघली हुई अवस्था में थी। उसके बाद यह ठण्डी होने लगी। मान्यता तो ठीक-ठाक ही लगती है।

वर्तमान में पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से लेकर सतह तक तापमान का एक क्रमिक पैटर्न (ग्रेडिएन्ट) है। तो श्वेत-तप्त तरल स्थिति से वर्तमान क्रमिक पैटर्न तक पहुँचने में इसे कितने साल लगे होंगे? इसकी गणना के लिये आपको पता होना चाहिए कि पृथ्वी को ऊष्मा कहाँ-कहाँ से और कितनी मिल रही है (यानी ऊष्मा के स्रोत) और पृथ्वी से ऊष्मा का ह्रास किस-किस विधि से हो रहा है। इसकी गणना करने के लिये आपको पता होना चाहिए कि पृथ्वी के अन्दरूनी भाग से सतह तक ऊष्मा का स्थानान्तरण किस दर से होता है। फिर आपको यह पता होना चाहिए कि सतह का क्षेत्रफल कितना है और उससे ऊष्मा का ह्रास किस दर से होगा। और यह भी ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी को सूरज से लगातार ऊष्मा मिलती रहती है।

1899 में प्रकाशित पर्चे में केल्विन की दो प्रमुख मान्यताएँ थीं:

1. पृथ्वी में ऊष्मा का अपना कोई स्रोत नहीं रहा है। यानी एक बार बनने के बाद पृथ्वी पर जितनी भी ऊष्मा थी वह सिर्फ बिखरती गई है। सूरज से थोड़ी-बहुत ऊष्मा आती थी, बस।

2. पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से सतह तक ऊष्मा का स्थानान्तरण संचालन विधि से होता रहा है।

ये सब हिसाब-किताब करके उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि पृथ्वी कम-से-कम 2 करोड़ वर्ष पुरानी है और अधिक-से-अधिक 40 करोड़ वर्ष। यानी उनके अनुसार पृथ्वी की उम्र 2 से 40 करोड़ वर्ष के बीच ठहरती थी।

उन्होंने तो यह भी अनुमान लगाया था कि सूरज 10 करोड़ से लेकर 50 करोड़ वर्ष पहले से अस्तित्व में है। उनका कहना था कि सूरज 50 करोड़ वर्ष से अधिक पुराना तो हो ही नहीं सकता। सूरज की उम्र निकालते वक्त उन्होंने यह ध्यान दिया था कि सूरज की गर्मी का स्रोत क्या है। उन्होंने माना था कि सूरज की गर्मी गुरुत्वाकर्षण की वजह से है। सूरज गैस का गोला है जो अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ रहा है। जब गैस सिकुड़ेगी तो उसका तापमान बढ़ेगा। अर्थात केल्विन की गणना का आधार यह था कि सूरज में गुरुत्वाकर्षण के कारण गर्मी पैदा हो रही है और विकिरण के रूप में बिखर रही है। इन दो प्रक्रियाओं की दरों के आधार पर केल्विन का निष्कर्ष था कि सूरज, बहुत हुआ तो, 50 करोड़ वर्ष पुराना होगा।

लगभग इसी समय भौतिक शास्त्री हर्मेन फॉन हेल्महोल्ट्ज़ (1856) और खगोल शास्त्री साइमन न्यूकॉम्ब (1892) ने भी अपने-अपने आँकड़े उछाल दिए। इन दोनों की गणना का आधार यह था कि सूरज गैसों के एक बादल से पैदा हुआ था। तो उस बादल से शुन्य डिग्री करके इसे वर्तमान साइज़ का चमकीला गोला बनने में कितना समय लगा होगा? हेल्महोल्ट्ज़ का आँकड़ा 2.2 करोड़ वर्ष और न्यूकॉम्ब का आँकड़ा 1.8 करोड़ वर्ष का था।

आजकल हम मानते हैं कि पृथ्वी लगभग 420 करोड़ वर्ष पुरानी है। यानी इन लोगों के आँकड़े वर्तमान में मान्य आँकड़े से 100 गुना तक अलग थे। और जल्दी ही इनकी मान्यताओं में गलती पहचान ली गई। पहली गलती तो केल्विन ने एक ऐसी चीज़ के बारे में की थी जिसके बारे में पता था मगर केल्विन ने सोचा नहीं था कि यह इतनी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। और दूसरी गलती पहचानने का काम किसी अन्य विषय में हुई खोज का परिणाम था। कहने का मतलब है कि केल्विन ने जिस समय गणना की थी उस समय एक ऐसी चीज़ के बारे में जानकारी ही नहीं थी जिसका असर उनकी गणनाओं पर पड़ने वाला था। यह प्रक्रिया थी परमाणुओं के विखण्डन की जिसका पता उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में चला था।

इसी प्रकार से जल्दी ही यह पता चलने वाला था कि सूरज की गर्मी सिर्फ उसके गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से हो रहे संकुचन की वजह से नहीं है। एडिंगटन ने स्पष्ट किया था कि सूरज में गर्मी का प्रमुख स्रोत परमाणुओं का संलयन यानी आपस में जुड़ना है। हाइड्रोजन के दो परमाणु आपस में जुड़कर हीलियम नामक तत्व का निर्माण करते हैं और इस प्रक्रिया में प्रसिद्ध समीकरण dmFM+Z2 के अनुसार ढेर सारी ऊर्जा निकलती है। जैसे ही सूरज की ऊष्मा और चमक के बारे में नई जानकारी मिली हेल्महोल्ट्ज़ और न्यूकॉम्ब के अनुमान भी ध्वस्त हो गए।

मगर तरीका तो ठीक ही था। और आगे चलकर भी इसी तरीके से पृथ्वी की आयु के अनुमान लगाए गए। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि हमारे पास इन प्रक्रियाओं के बारे में ज़्यादा जानकारी इकट्ठी होती गई और कुछ नए नियमों व नई प्रक्रियाओं के बारे में पता चलता गया।

अन्य कुछ विधियाँ

अलबत्ता, केल्विन के आँकड़े को मिली चुनौतियों पर नज़र डालने से पहले यह देखना मज़ेदार होगा कि उस समय अन्य किन विधियों को आज़माया गया था और क्या परिणाम मिले थे। इनमें से कई आँकड़े केल्विन के आँकड़े के काफी नज़दीक थे।

जैसे, चार्ल्स डारविन के सुपुत्र जॉर्ज डारविन ने यह माना कि चाँद और पृथ्वी अपने अस्तित्व के शुरुआती काल में ही टूटकर अलग-अलग हो गए थे और उस समय दोनों ही पिघली हुई अवस्था में थे। यानी ये दोनों एक ही पिण्ड के दो टुकड़े हैं। टूटने के बाद दोनों एक-दूसरे से दूर जाते गए। जॉर्ज डारविन ने यह गणना की कि चाँद के प्रभाव से जो ज्वार पैदा होता है उसके घर्षण की वजह से पृथ्वी का दिन-रात का चक्र 24 घण्टे का बनने में कितने साल लगे होंगे और चाँद को पृथ्वी से इतनी दूर जाने में कितना समय लगा होगा। मेरे ख्याल में उन्हें काफी गणितीय माथापच्ची करनी पड़ी होगी। सारी माथापच्ची के बाद जो आँकड़ा निकला वह 5.6 करोड़ वर्ष था। आप देख ही सकते हैं कि यह केल्विन के आँकड़े के काफी नज़दीक है।

मगर बाकी लोगों ने आँखों पर पट्टी नहीं बाँध रखी थी। केल्विन और हेल्महोल्ट्ज़ और न्यूकॉम्ब की मान्यताओं पर जल्दी ही सवाल उठने लगे। एक बात गौरतलब है जिसका ज़िक्र किए बगैर बात को आगे बढ़ाना मुनासिब नहीं होगा।

पृथ्वी की उम्र वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं थी। क्या फर्क पड़ता है कि वह 10 हज़ार साल पुरानी है या 10 अरब साल। मगर उन्नीसवीं सदी में कई अवलोकन ऐसे होने लगे थे जिनकी व्याख्या के लिये पृथ्वी की उम्र से बहुत फर्क पड़ता था। और कई अवलोकन ऐसे भी थे जो बता रहे थे कि पृथ्वी बहुत-बहुत पुराने ज़माने से अस्तित्व में होनी चाहिए वरना यह आज जैसी है वैसी नहीं हो सकती।

भूगर्भ वैज्ञानिकों यानी जियॉ-लॉजिस्ट ने पृथ्वी की अन्दरूनी संरचनाओं की खोजबीन सत्रहवीं सदी में शुन्य डिग्री कर दी थी। एक तो यह पता चला कि जैसे-जैसे पृथ्वी की गहराइयों में जाते हैं, हमें विभिन्न परतें मिलती हैं। और इन अलग-अलग परतों में जीवों की छापें (जीवाश्म) मिलती हैं। इनमें से कई जीव आजकल धरती पर नहीं पाए जाते। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि, हो न हो, धरती पर जीव परत-दर-परत प्रकट और विलुप्त होते रहते हैं यानी धरती के इतिहास में जीवों का भी एक क्रमिक इतिहास है।

इन अध्ययनों के आधार पर इन परतों से सम्बन्धित कई सामान्य नियम विकसित हुए। जैसे एक नियम यह था कि सबसे ऊपरी परत सबसे नई है और नीचे जाते जाएँ तो एक के बाद एक जो परतें मिलती हैं वे ज़्यादा प्राचीन होती हैं।

परतों की संरचना और उनके बीच की संरचनाओं को देखकर यह निष्कर्ष भी निकाला कि ये परतें क्षैतिज स्थिति में बनती हैं और यदि कोई परत तिरछी है तो उसका तिरछापन बाद में हुई भूगर्भीय हलचल की वजह से पैदा हुआ होगा। इस तिरछेपन के आधार पर किसी भी परत की उम्र का अन्दाज़ लगाया जा सकता है।

यह भी अन्दाज़ लगाया गया कि यदि दो अलग-अलग स्थानों की चट्टानी परतों में एक-से जीवाश्म मिलते हैं तो यह सम्भव है कि वे परतें लगभग एक ही काल की होंगी।

इन परतों के अध्ययन के आधार पर भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की उम्र पता लगाने के कुछ प्रयास किए थे। जैसे एक प्रयास यह अन्दाज़ लगाने का था कि चट्टानों की एक पूरी परत जमने में लगभग कितना समय लगेगा। फिर परतों की गिनती करके आप एक मोटा-मोटा अनुमान लगा सकते हैं कि इतनी सारी परतें जमने में कितना वक्त लगा होगा।

दूसरा प्रयास भी उतना ही गौरतलब है। यह तो सभी जानते हैं कि समुद्र का पानी खारा होता है। यह भी लगभग सभी जानते हैं कि समुद्र में यह खारापन नदियों के ज़रिए आता है अर्थात नदियाँ अपने प्रवाह के दौरान रास्ते से तमाम लवण घोलती हैं और इन घुलित लवणों को लाकर समुद्र में जमा कर देती हैं। तो आजकल नदियों द्वारा हर साल समुद्रों में लाए जाने वाले लवणों की मात्रा के आधार पर गणना की जा सकती है कि समुद्रों में आज जो लवणीयता है, उसे बनने में कितने साल लगे होंगे।

हालाँकि आगे चलकर परतों और समुद्रों की लवणीयता सम्बन्धी उक्त दोनों मान्यताएँ गलत साबित हुईं मगर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भूगर्भ वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बनने लगी थी कि पृथ्वी कम-से-कम 10 करोड़ वर्षों से अस्तित्व में है।

खास तौर से प्राकृतिक चयन द्वारा संचालित जैव-विकास का उल्लेख करना ज़रूरी है। जब डारविन ने सजीवों के क्रमिक विकास की अवधारणा प्रस्तुत की तो यह स्पष्ट था कि प्राकृतिक चयन की धीमी प्रक्रिया को कारगर होने के लिए काफी लम्बे समय की दरकार है। यानी पृथ्वी बहुत-बहुत-बहुत पुरानी होनी चाहिए।

इसका अर्थ यह लगाया जाने लगा था कि पृथ्वी हमारी कल्पना और धारणा से कहीं ज़्यादा पुरानी है। यह भी समझ में आने लगा था कि वे कौन-सी प्रक्रियाएँ होंगी जिनकी मदद से हमें पृथ्वी की प्राचीनता के बारे में और सुराग मिल सकते हैं। मगर अन्य विधियों की छानबीन करने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि केल्विन व अन्य लोगों के तरीके में क्या खामियाँ रहीं।

हमने देखा कि इस बात का अन्दाज़ सत्रहवीं सदी में लगने लगा था कि पृथ्वी हमारी कल्पना से बहुत-बहुत पुरानी है। इसके बाद उन्नीसवीं सदी में इसकी उम्र का निर्धारण करने के प्रयास शुरू हुए। सारे प्रयासों की मूल बात यह रही कि आपको किसी गुणधर्म के सन्दर्भ में पृथ्वी की आज की स्थिति पता है, आप जानते हैं कि वह गुणधर्म किस/किन प्रक्रियाओं के अधीन है और आप यह मानकर चलते हैं कि ये प्रक्रियाएँ अतीत में भी इसी तरह चलती रही होंगी। फिर आपको कुछ मानना पड़ता है कि पृथ्वी के शुरुआती दौर में क्या स्थिति रही होगी। इनके आधार पर आप गणना करते हैं कि शुरुआती स्थिति से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितने साल लगे।

केल्विन ने माना था कि शुरुआत में पृथ्वी का तापमान लगभग सूर्य के बराबर रहा होगा। इसके बाद पृथ्वी लगातार ठण्डी हुई - उसकी ऊष्मा केन्द्रीय भाग से चालन विधि से सतह पर आकर अन्तरिक्ष में बिखरती गई। उन्होंने यह भी माना कि सूर्य के विपरीत पृथ्वी पर ऊष्मा का अपना कोई स्रोत नहीं था। जैसा कि हमने देखा था केल्विन ने इन मान्यताओं के आधार पर जो गणनाएँ कीं उनसे पृथ्वी की उम्र 10-40 करोड़ वर्ष के बीच निकली। आगे चलकर तो केल्विन ने यह दायरा घटाकर 10-20 करोड़ वर्ष कर दिया था। किसी ने भी उनकी विधि पर सवाल नहीं उठाए। सवाल उठे उनकी मान्यताओं पर।

जैसा कि हमने देखा था केल्विन के मुताबिक धरती और सूरज साथ-साथ बने थे। यानी धरती का प्रारम्भिक तापमान सूरज के बराबर रहा होगा। दूसरी बात उन्होंने यह मानी थी कि सूरज की गर्मी का एकमात्र नहीं, तो प्रमुख स्रोत गुरुत्वाकर्षण की वजह से हो रहा संकुचन है। तीसरा उन्होंने यह माना कि धरती में ऊष्मा का कोई अन्दरूनी स्रोत नहीं है। और आखिरी मान्यता यह थी कि पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से सतह तक ऊष्मा के पहुँचने की प्रमुख विधि चालन है।

तो सबसे पहला सवाल तो यही था कि पृथ्वी पर ऊष्मा के स्रोत क्या हैं। धीरे-धीरे पता चला कि पृथ्वी पर ऊष्मा का एकमात्र स्रोत सूरज से मिलने वाली गर्मी नहीं है।

पृथ्वी पर गर्मी के कई स्रोत हैं। इनमें से पहला तो वही है - पृथ्वी के निर्माण के समय मौजूद ऊष्मा। इसके बाद धरती ठण्डी होने लगी मगर शुरुआत में यह तरल अवस्था में थी। अत: संकुचन की वजह से थोड़ी गुरुत्व ऊष्मा पैदा हुई होगी।

ऊष्मा का नया स्रोत

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में ऊष्मा का तीसरा प्रमुख स्रोत पहचाना गया। यह पता चला कि कई तत्वों के परमाणु टूटते रहते हैं। परमाणु के टूटने की वजह से नए तत्वों का निर्माण होता है और काफी सारी ऊष्मा निकलती है। इस प्रक्रिया को रेडियो विखण्डन या परमाणु विखण्डन कहते हैं। रेडियो विखण्डन नाम रेडिएशन यानी विकिरण के आधार पर है। जब परमाणु का विखण्डन होता है तो विकिरण के रूप में ऊर्जा निकलती है। पृथ्वी पर इस तरह विखण्डित होने वाले प्रमुख तत्व हैं युरेनियम, थोरियम और पोटेशियम। जल्दी यह स्पष्ट हो गया कि परमाणु विखण्डन गर्मी का एक बड़ा स्रोत है जो केल्विन को ज्ञात नहीं था। 1903 में अर्नेस्ट रदरफोर्ड और फ्रेडरिक सॉडी ने यह गणना की कि रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया में कितनी ऊष्मा पैदा होती है। और उन्होंने तत्काल यह समझ लिया कि उनकी यह खोज ब्रह्माण्ड सम्बन्धी हमारी समझ के लिये महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने स्पष्ट किया कि रेडियो-विखण्डन से उत्पन्न ऊष्मा को सारी गणनाओं में ध्यान रखा जाना चाहिए।

अर्थात बीसवीं सदी के आरम्भ तक हम यह जान गए थे कि धरती सिर्फ ठण्डी नहीं होती गई है बल्कि गर्म भी होती रही है। इसका अर्थ है कि शुरुआती तापमान से आज के तापमान तक पहुँचने में इसे कहीं ज़्यादा समय लगा होगा।

और पिक्चर अभी बाकी है।

रोचक बात यह है कि परमाणु का टूटना इस बात पर निर्भर है कि शुरुआत में कुल कितने टूटने योग्य परमाणु हैं। किसी भी तत्व के लिये परमाणुओं के टूटने की एक निश्चित दर होती है। इस दर को थोड़ा अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। बताया यह जाता है कि कुल उपस्थित परमाणुओं में से आधे कितने समय में टूट जाएँगे। इसे उस तत्व की अर्धायु (half-life) कहते हैं। ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे विखण्डन की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, टूटने योग्य परमाणु कम होते जाएँगे। चूँकि अर्धायु निश्चित है, इसलिए विखण्डन की रफ्तार कम होती जाएगी। यानी आज के मुकाबले अतीत में रेडियो विखण्डन कहीं ज़्यादा होता होगा और कहीं ज़्यादा गर्मी पैदा होती होगी।

एक अनुमान के मुताबिक उक्त सारी प्रक्रियाओं का मिला-जुला असर यह है कि धरती प्रति 10 करोड़ वर्षों में 5-6 डिग्री सेल्सियस की दर पर ठण्डी होती रही है। ऊष्मा के इन स्रोतों के पता लगने और ऊष्मा ह्रास की नई समझ के आधार पर पृथ्वी की आयु की गणना के प्रयास एक बार फिर शुरु हुए। मगर ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि जहाँं रेडियो विखण्डन की खोज ने पृथ्वी की आयु को कई गुना बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया वहीं इसने आयु पता करने की एक सर्वथा नई विधि को भी जन्म दिया। उसमें जाने से पहले यह देखते हैं कि पृथ्वी की आयु ज्ञात करने के शेष प्रयासों का क्या हश्र हुआ था।

हमने देखा था कि पृथ्वी की आयु पता लगाने के कई प्रयास किए गए थे। इन सभी का तर्क एक ही था। आजकल की किसी स्थिति को लें, पृथ्वी की उत्पत्ति के समय की स्थिति के बारे में कोई मान्यता बनाएँ, और फिर यह देखें कि ज्ञात प्रक्रियाओं के ज़रिए मूल स्थिति से वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कितना समय लगता है।

अन्य विधियाँ - चाँद का दूर जाना

जैसे जॉर्ज डारविन के तर्क को ही लें। उन्होंने वर्तमान में पृथ्वी से चाँद की दूरी को लिया। मान्यता यह रखी कि पृथ्वी और चाँद, दोनों की उत्पत्ति लगभग एक साथ हुई थी। उन्होंने यह भी माना था कि पृथ्वी जब गैस का गोला थी तब उसके घूर्णन की वजह से एक बड़ा टुकड़ा छिटककर अलग हो गया था और वही चाँद बना। मगर जल्दी ही पता चला कि चाँद की उत्पत्ति इस तरह से नहीं हुई थी बल्कि पृथ्वी पर किसी विशाल उल्का पिण्ड की टक्कर के कारण हुई थी। इस नई खोज के साथ ही जॉर्ज डारविन की सारी गणनाएँ बेकार साबित हुईं। यानी उनकी प्रारम्भिक स्थिति सम्बन्धी मान्यता सही नहीं थी।

लवण की मात्रा नापकर

इसी प्रकार से, एडमंड हैली ने 1715 में यह प्रस्ताव दिया था कि समुद्रों में लवण की मात्रा के आधार पर हम पृथ्वी की उम्र का पता लगा सकते हैं। उनका मत था कि समुद्रों में सारा लवण नदियों द्वारा लाया जाता है। यदि हम यह मान लें कि प्रारम्भिक समुद्रों में लवण की मात्रा शून्य थी तो हम आसानी से गणना कर सकेंगे कि लवणों के वर्तमान स्तर तक पहुँचने में कितने साल लगे होंगे। इस विधि का उपयोग करते हुए पृथ्वी की आयु 8 करोड़ से 15 करोड़ वर्ष के बीच निकली थी। मगर दिक्कत यह थी कि जल्दी ही भूगर्भ वैज्ञानिकों ने यह समझ लिया कि समुद्रों में लवण के जमा होने के साथ-साथ उन्हें हटाने की प्रक्रियाएँ भी चलती रहती हैं। यानी जहाँ नदियाँ लवण लाकर समुद्रों में जमा करती हैं वहीं प्रकृति की अन्य प्रक्रियाएँ लवण को वहाँ से हटाती भी रहती हैं।

अवसादन की दर

यही स्थिति परतदार चट्टानों के साथ भी हुई। जैसे लवण सिद्धान्त के साथ हुआ था, ठीक उसी तरह यहाँ भी यह पता चला कि समुद्रों में गाद जमा होना, उस गाद पर दबाव बनना और इस तरह चट्टानों की परतें बनना - यह प्रक्रिया एक सीधी रेखा में नहीं चलती। चट्टानें बनती हैं, उनका क्षरण होता है, फिर से समुद्रों में पहुँचकर जमा होती हैं, फिर से चट्टान बनती है। यह एक चक्र है। अठारहवीं सदी में भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना था कि समुद्र में तलछट की गहराई को नापकर, नदियों से बहकर आने वाली गाद की मात्रा के आधार पर वे बता सकेंगे कि इतनी गाद जमा होने में कितने साल लगे होंगे। इस तरीके में दो खामियाँ थीं। पहली तो यह मान्यता ठीक नहीं थी कि गाद आने की दर सदा स्थिर रहती है। दूसरी खामी यह थी कि इसमें गाद आने की बात तो की गई थी मगर यह नहीं सोचा गया था कि गाद हटती भी रहती है।

जैसे एक गणना को देखें।

1. समुद्रों में वर्तमान में पहुँचने वाली गाद की मात्रा प्रति वर्ष 27.5 x 109 टन

2. समुद्रों में वर्तमान में कुल तलछट की मात्रा 820 x 1015 टन

3. समुद्र के ऊपर महाद्वीपों का वज़न 383 x 1015 टन

इन तीन आँकड़ों के आधार पर गणना आसान है। यदि समुद्रों में तलछट की कुल मात्रा (2) में तलछट पहुँचने की दर (1) का भाग दें तो आता है 3 करोड़ वर्ष। यानी समुद्रों में इतनी तलछट जमा होने में 3 करोड़ साल लगे हैं। यदि महाद्वीपों के समुद्र से ऊपर दिखने वाले भाग की मात्रा (3) में तलछट बनने की दर (1) का भाग दें तो आता है 1.4 करोड़ वर्ष यानी वर्तमान महाद्वीपों को घटकर समुद्र तल तक पहुँचने में 1.4 करोड़ वर्ष लगेंगे।

दरअसल, ऐसी सभी परिकल्पनाओं में एक बात की कमी थी। जब ऐसी कोई प्रक्रिया चलती है, जो परस्पर विपरीत दिशाओं में सम्भव है, तो जल्दी ही एक साम्यावस्था निर्मित हो जाती है। इसके बाद प्रक्रिया दोनों दिशाओं में समान गति से चलने लगती है और प्रभावी रूप से एक स्थिर अवस्था निर्मित हो जाती है। लिहाज़ा इनकी मदद से पृथ्वी की आयु पता करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

कुछ और प्रयास

इस तरह के कई प्रयास किए गए। जैसे पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का ह्रास (यानी यह मान्यता कि प्रारम्भ में पृथ्वी का एक अति-शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र था, जो धीरे-धीरे कम होता गया है), पृथ्वी और चम्द्रमा पर उल्का पिण्डों की टक्करों के कारण जमा हुई धूल की मात्रा (यानी पृथ्वी पर तो उल्का पिण्डों की टक्करों की वजह से उड़ने वाली धूल हवा के कारण बिखर जाती है, मगर चाँद पर हवा नहीं होने के कारण इस धूल की परत मोटी होती जाती है। तो यदि यह मान लिया जाए कि पृथ्वी और चाँद साथ-साथ अस्तित्व में आए थे तो चाँद पर जमी धूल की परत के आधार पर उसकी आयु की गणना की जा सकती है), वातावरण में हीलियम की मात्रा वगैरह।

इन सब विधियों पर काफी कुछ लिखा गया है मगर उस सबमें जाने की ज़रूरत नहीं है। मुख्य बात यह है कि जब भी हम पृथ्वी की आयु जानने के लिये किसी प्रारम्भिक स्थिति, अन्तिम स्थिति और परिवर्तन की प्रक्रिया का सहारा लेना चाहते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि मूल स्थिति सम्बन्धी मान्यता सही है, प्रक्रिया की दर को लेकर पर्याप्त समझ है और इस बात की समझ है कि अन्य प्रक्रियाएँ उस स्थिति को कैसे प्रभावित करेंगी।

इसके बाद हम एक बार फिर रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया पर लौटेंगे। हम देख ही चुके हैं कि रेडियो-विखण्डन की प्रक्रिया ने केल्विन की ऊष्मा आधारित विधि में एक नया आयाम जोड़ने का काम किया था। इस प्रक्रिया की खोज के बाद पता चला था कि पृथ्वी पर ऊष्मा का एक शक्तिशाली स्रोत मौजूद है। इसी विधि में जब और अध्ययन हुए तो कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष हासिल हुए जिनका सम्बन्ध वस्तुओं की प्राचीनता से स्थापित होता गया और रेडियो-विखण्डन वस्तुओं (पृथ्वी समेत) की उम्र ज्ञात करने की एक सशक्त विधि बन गई।

सुशील जोशी:

एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org