Nag village pond
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सेहतमंद जंगल हैं जल संरक्षण का आधार

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गंगोलीहाट के आसपास के अन्य गाँवों में लोगों ने बरसात के पानी को इकट्ठा करने के साथ-साथ जलस्रोतों को रिचार्ज करने की तरकीब सीख ली है। पहाड़ों में जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत होने की सम्भावना हो वहाँ छोटे-छोटे तालाब बनाकर पानी को इकट्ठा किया जाना ही चाहिए। उत्तराखण्ड में इन छोटे तालाबों को चाल या खाल या चाल-खाल कहा जाता है। चाल-खाल का पानी रिसकर कमजोर पड़ रहे या सूख चुके जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने में रामबाण है। पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट ब्लॉक के एक छोटे से कस्बे नाग की 29 वर्षीय संगीता भी शायद उन लोगों में शामिल होती जो पानी की कमी के कारण गाँव छोड़ने को मजबूर हो गए। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा जारी पलायन रिपोर्ट कहती है कि पिछले दस सालों में गाँव छोड़ने वाले कुल लोगों में से करीब 3.4 प्रतिशत ने पानी की कमी के कारण यह कदम उठाया। जाहिर है कि प्रदेश के गाँवों में पानी की कमी भी पलायन की एक वजह है।

पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट ब्लॉक का नाग गाँव भी आज ऐसे गाँवों की सूची में शामिल होता जिन्हें पानी की कमी के कारण लोगों ने त्याग दिया। इस गाँव में कभी पेयजल का इतना बड़ा संकट खड़ा हो गया था कि लोगों ने गाँव छोड़ने की तैयारी कर ली थी। बकौल संगीता कुछ वर्ष पहले तक गाँव में पानी की समस्या इतनी विकराल थी कि हमें पानी की तलाश में दिन भर इधर-उधर भटकना पड़ता था। फिर वह बताती है कि एक दिन इस बात की खबर हिमालयन ग्राम विकास समिति के प्रमुख राजेंद्र बिष्ट को मिली। वे गाँव पहुँचे, लोगों को इकट्ठा किया और उनके साथ गाँव का मुआयना किया।

इस दौरान उन्होंने पाया कि समुद्र तल से 6000 फीट की ऊँचाई पर इस गाँव के ऊपरी हिस्सों में जंगल लगभग नष्ट हो गए थे। इस स्थिति को देखने के बाद उन्होंने ग्रामीणों की बैठक बुलाई और उन्हें बताया कि पानी की कमी का सम्बन्ध जंगल के नष्ट होने से है। उन्होंने ग्रामीणों को सलाह दिया कि वे गाँव के ऊपरी हिस्से में पेड़ लगाएँ और ढलान वाले हिस्से में श्रमदान से एक तालाब खुदवा दें। बस क्या था गाँव के ऊपरी हिस्सों में पेड़ लगाए गए और तालाब भी खुद गया।

इस कार्य का प्रतिफल यह हुआ कि साल-दर-साल गाँव में पानी की उपलब्धता बढ़ती गई और पानी की कमी से लोगों को मुक्ति मिल गई। संगीता कहती है कि अब उसे पानी लाने के लिये कई किलोमीटर दूर पैदल नहीं जाना पड़ता। गाँव का तालाब बरसात में पानी से लबालब हो जाता है और उन्हें साल भर पानी मिलता रहता है। इतना ही नहीं चार लाख लीटर पानी ग्रहण करने की क्षमता वाले इस तालाब का पानी नहाने और कपड़े धोने से लेकर जानवरों को नहलाने के काम में भी आता है।

उल्लेखनीय है कि नाग गाँव के उदाहरण से हमें सीख लेनी चाहिए और प्रदेश के सभी ग्रामवासी को ज्यादा-से-ज्यादा पेड़ लगाने चाहिए। क्योंकि सेहतमन्द जंगल जलस्रोतों को बचाने का सबसे अच्छा जरिया है। ग्रामीणों का यह भी कहना है कि अगर प्राकृतिक स्रोत सूखते जाएँ तो फिर बरसात का पानी इकट्ठा करने से भी समस्या हल नहीं होती इसलिये जलस्रोतों को बचाने के लिये जंगल को बचाना होगा।

हिमालयन ग्राम विकास समिति के प्रमुख 49 वर्षीय राजेंद्र सिंह बिष्ट इस क्षेत्र में पिछले 25 सालों से जल संरक्षण के काम में लगे हैं। उन्होंने बताया कि नाग गाँव में सामूहिक जमीन और तालाब के चारों ओर बांज, बुरांश और काफल के पेड़ों का रोपण ग्राम सहभागिता से करवाया गया है। वे कहते हैं कि लगातार यह अभियान लोक सहभागिता से पाँच वर्ष तक चलता रहा, जिसका नतीजा आपके सामने है। तालाब में पानी रिचार्ज हो रहा है और पानी के स्रोत जिन्दा होने लगे हैं। यह इस क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी बदलाव था।

आज गंगोलीहाट के आसपास के अन्य गाँवों में लोगों ने बरसात के पानी को इकट्ठा करने के साथ-साथ जलस्रोतों को रिचार्ज करने की तरकीब सीख ली है। पहाड़ों में जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत होने की सम्भावना हो वहाँ छोटे-छोटे तालाब बनाकर पानी को इकट्ठा किया जाना ही चाहिए। राजेंद्र बिष्ट बताते हैं कि उत्तराखण्ड में इन छोटे तालाबों को चाल या खाल या चाल-खाल कहा जाता है। चाल-खाल का पानी रिसकर कमजोर पड़ रहे या सूख चुके जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने में रामबाण है।

वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव बढ़ने से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। हिमालय के हिस्सों में पर्यावरण और विकास पर काम कर रहे ‘गोविंद बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण संस्थान’ के डॉ. राजेश जोशी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से लड़ने के लिये अनुकूलन (एडाप्टेशन) की कोशिश बहुत जरूरी है। वे कहते है कि गाँव वालों के लिये जलस्रोत महत्त्वपूर्ण हैं। उत्तराखण्ड के ऐसे कई ग्रामीण अंचल है जिनका नदियों और ग्लेशियर से कोई वास्ता नहीं है। इनकी निर्भरता प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही है।

जल संरक्षण के काम में राजेंद्र बिष्ट का साथ दे रहे लक्ष्मी दत्त भट्ट बताते हैं कि बरसात के बदलते मिजाज और कम बर्फबारी की वजह से भी पानी की कमी हो रही है। पानी की बढ़ती माँग को पूरा करने में चाल-खाल का प्रयोग काफी असरदार साबित हो रहा है। वैसे भी चाल-खाल की पद्धति उत्तराखण्ड में बहुत ही पुरानी है परन्तु सरकारी योजनाओं ने इसे शिथिल बना डाला है।

चाल-खाल बनाने के लिये सही जगह की पहचान करने में विशेषज्ञों की मदद भी लेनी चाहिए। वैज्ञानिकों और जानकारों की मदद से इलाके हाइड्रोलॉजी के साथ जमीन की ढलान और पानी ग्रहण करने की सम्भावना का पता लगाया जाना भी अनिवार्य है। इन परीक्षणों से किसी स्थान पर जलस्रोत की मौजूदगी का पता लगाया जाता है। वैज्ञानिक भाषा में इस विधि को हाइड्रो-जियोमॉर्फोलॉजी कहते हैं। जमीन का व्यवहार उन्हें उस सम्भावना को बताता है कि क्या वहाँ कभी पानी रहा होगा? जब वैज्ञानिक परीक्षण किसी जगह पर जलस्रोत होने का संकेत देते हैं तो फिर इस बात की तस्दीक स्थानीय लोगों से की जाती है और जलस्रोत वाले स्थानों पर ही तालाब बनाने की सलाह दी जाती है।

उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में ऐसे कई प्रयोग सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर हुए हैं। साल 2016 में पिथौरागढ़ से लगभग 20 किलोमीटर दूर वन विभाग ने नैकीना गाँव में पाँच हजार वर्ग मीटर में एक बड़े तालाब का निर्माण करवाया है। जिले में तैनात वन प्रभागीय अधिकारी विनय भार्गव कहते हैं कि वे इस प्रयोग को एक मॉडल तौर पर पेश करना चाहते हैं। इस काम में विशेषज्ञों के साथ-साथ ग्रामीणों का भी पूरा सहयोग रहा। उन्होंने स्वीकार किया कि सामुदायिक सहयोग के बिना ऐसे कार्य मुमकिन नहीं है। इस प्रयोग को सफल बनाने के लिये खाल के आसपास सेब और नाशपाती के पेड़ लगाए गए ताकि जंगल की सेहत सुधरे।

नैकिना गाँव के सरपंच ने बताया कि तालाब के निर्माण के कारण पुराने स्रोतों को पुनर्जीवित करने में मदद मिली है और नए जलस्रोत भी मिले हैं। इतना ही नहीं इस प्रयोग से जंगल में लगने वाली आग से बचने की तरकीब भी ढूँढी जा रही है। उत्तराखण्ड के जंगलों में बार-बार आग लगती रहती है। पिछले साल ही 13 जिलों में लगी आग लगभग 8000 एकड़ क्षेत्र में फैल गई थी। अब गाँव के लोग चीड़ की पत्तियाँ और गिरी हुई टहनियाँ इकट्टा कर इन चाल-खालों में डाल देते हैं। इससे आग की सम्भावना कम हो जाती है क्योंकि जंगल में आग फैलाने में चीड़ का अहम रोल होता है।
 

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