जल संकट
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सूखती दिल्ली की धरती

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जल संकट (फोटो साभार - डीएनए इण्डिया)यह खबर सचमुच चिन्ता बढ़ाने वाली है कि दिल्ली का भूजल खतरनाक स्तर पर है और इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट को टिप्पणी करनी पड़ी है कि यही हाल रहा, तो ‘वर्ल्ड वॉर छोड़िए, दिल्ली में वाटर वॉर होगा।’ सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय भूजल बोर्ड की उस रिपोर्ट पर अपनी गहरी चिन्ता जताई है, जिसके अनुसार दिल्ली का भूजल स्तर हर वर्ष 0.5 मीटर से लेकर दो मीटर से भी ज्यादा की दर से कम हो रहा है और करीब नब्बे फीसदी दिल्ली भयावह जलसंकट के मुहाने पर है।

जल संचयन न बढ़ा, तो तीस साल बाद यहाँ का भूजल इस्तेमाल लायक नहीं बचेगा और स्वाभाविक ही तब स्थिति और बिगड़ेगी। यानी स्थिति भयावह है और अदालत की चिन्ता जायज। लेकिन न तो यह चिन्ता नई है, न ही ऐसे भयावह खतरों का संकेत करते तथ्य पहली बार सामने आये हैं। हकीकत के प्रति अनदेखी भी नई बात नहीं। यह सब सरकारी विभागों-सिविक एजेंसियों की अकर्मण्यता का नतीजा है, जो हर बार एक-दूसरे पर जिम्मेदारी टालकर अपना दामन बचाती रही हैं, जबकि मिल-बैठकर समेकित समाधान निकालने की जरूरत थी।

दिल्ली का यह सच अकेले आज का सच नहीं। सवाल है कि हमारी राष्ट्रीय राजधानी को इस भीषण संकट में धकेला किसने? दिल्ली के पास तो पानी का अपना सबसे बड़ा स्रोत सदानीरा कही जाने वाली यमुना थी, लेकिन उसे किसने नष्ट किया? आज भी उसका उद्धार करने की कोई गम्भीर कोशिश नजर नहीं आती। दिल्ली ने अपने लम्बे सफर में बहुत कुछ पाया, विस्तार किया, बड़ा गौरव कमाया, लेकिन इस गौरव यात्रा में इसने कितना कुछ खो दिया, सत्ता प्रतिष्ठानों को इसका एहसास तक न हुआ। यही कारण है कि पानी और प्रदूषण इसके लिये चुनौती बनकर खड़े हैं।

शहर के अंधाधुंध विस्तार में जिस तरह दिल्ली कंक्रीट के जंगल में तब्दील हुई, यही होना था। निस्तार आपाधापी में कुएँ, तालाब,, जलाशय और झील खत्म होते गए। यमुना कब नष्ट हो गई, कोई समझ ही न पाया। नए स्रोतों पर काम करने की बात कभी सोची ही नहीं गई। वर्षा जल संचयन भी सरकारी फाइलों या नेताओं के जुमलों में कैद होकर रह गया, वरना कोई कारण नहीं था कि सबसे ज्यादा वर्षा का गवाह बनने वाली दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र में यह हाल होता।

आज जब केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने फिर से संकट की भयावहता का बयान किया है और सुप्रीम कोर्ट ने चिन्ता जताई है, तो तय है कि कुछ दिनों तक फाइलें दौड़ेंगी, बड़ी-बड़ी बातें होंगी, शायद कार्यशालाएँ होेने लगें, बच्चों को भी घरवालों को जल संचयन के प्रति जगाने के लिये जागरूक किया जाय, लेकिन यह भी उतना ही तय है कि सब जल्द ही फिर थम जाएगा। जमीन पर कुछ नहीं होगा। वैसे बात भले दिल्ली से शुरू हुई हो, जल संकट के मुहाने पर तो लगभग पूरा देश ही खड़ा है।

खबर है कि देश के 91 बड़े जलाशयों में पानी की कुल क्षमता का महज 22 फीसदी ही बचा है, जो पिछले साल के मुकाबले 15 फीसदी और पिछले दस साल के औसत से दस फीसदी कम है। यानी यह सिर्फ दिल्ली ही नहीं, पूरे देश के सम्भलने का वक्त है। वरना जिस तरह से जलाशय सिकुड़ रहे हैं, वह दिन दूर नहीं, जब हमारे नलों से पानी पूरी तरह गायब होगा और हम भी दक्षिण अफ्रीकी शहर केपटाउन की तरह अपनी ही करनी पर पछता रहे होंगे।
 

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