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स्वास्थ्य सेवा : कहीं जय जयकार तो कहीं हाहाकार

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नदियों के किनारे हमारी सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई। आदमी की मूल जरूरत थी खेती और इसके लिये वहाँ जल आसानी से उपलब्ध होता था। विकास के दौर में वे तौर तरीके बदल गए। हरित चक्र नष्ट हो गए। ज्ञान की पारम्परिक पद्धतियों को दरकिनार कर मॉडर्न यूरोपीय स्वास्थ्य ज्ञान राजनीति का हिस्सा बन गया है। इसे समझना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्वास्थ्य का तात्पर्य शारीरिक, मानसिक सामाजिक खुशहाली है न कि व्यक्ति का सिर्फ बीमार नहीं होना।

‘‘स्वास्थ्य सेवा के नाम पर कहीं जय जयकार है तो कहीं हाहाकार है।’’ देश के स्वास्थ्य सेवा की तल्ख सच्चाईयों से वाक़िफ़ कराने और एक समझदारी विकसित करने के मकसद से विकास संवाद की ओर से झाबुआ में तीन दिवसीय राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजन किया गया। इस दिशा में वर्षों पहले जनसरोकारों के विषय पर समझदारी विकसित करने के लिये एक पहल की गई थी। यह निरन्तर प्रयासों का नतीजा है कि अब इस संवाद ने एक व्यापक रूप धारण कर लिया है। आरम्भ में सचिन कुमार जैन ने स्वास्थ्य के सरोकारों से वाक़िफ़ कराया तो दूसरी ओर चिन्मय मिश्र ने विषय की गम्भीरता की चर्चा करते हुए कहा कि- ‘‘एक ओर देश जहाँ पोलियो उन्मूलन की सफलता के लिये जय जयकार कर रहा है तो यह भी तल्ख सच्चाई है कि पोलियो की खुराक लेने के बावजूद जल के कारण लोग विकलांग हो रहे हैं, यह हाहाकार को बयाँ करने के लिये काफी है।

‘समाज में स्वास्थ्य’ विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में विचार व्यक्त करती हुई जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्राध्यापक डॉ. ऋतुप्रिया ने कहा कि स्वास्थ्य सेवा और नीतियों को लेकर भ्रामकता है। मीडिया की भूमिका विकास के साथ स्वास्थ्य सेवा तक ही अटक कर रह जाती है। आज हर नीति में स्वास्थ्य को देखना और तलाशना होगा। इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि मौजूदा विकास नीति में स्वास्थ्य कहाँ है। स्वास्थ्य सेवा का मामला टीकाकरण तक आकर अटक जाता है। जल का सवाल स्वास्थ्य से जुड़ा है।

पारिस्थितिकी स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इसी दृष्टिकोण को लेकर नदियों के किनारे हमारी सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई। आदमी की मूल जरूरत थी खेती और इसके लिये वहाँ जल आसानी से उपलब्ध होता था। विकास के दौर में वे तौर तरीके बदल गए। हरित चक्र नष्ट हो गए। ज्ञान की पारम्परिक पद्धतियों को दरकिनार कर मॉडर्न यूरोपीय स्वास्थ्य ज्ञान राजनीति का हिस्सा बन गया है। इसे समझना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्वास्थ्य का तात्पर्य शारीरिक, मानसिक सामाजिक खुशहाली है न कि व्यक्ति का सिर्फ बीमार नहीं होना। स्वास्थ्य नीति पानी, स्वच्छता के बीच समन्वय स्थापित कर बनना चाहिए।

वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत ने कहा कि एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढाँचा तो दीखता है, लेकिन संसाधन नहीं हैं। वहीं महानगरों में आम लोगों के लिये सीधे डॉक्टर से मिलना आसान नहीं रह गया है। यह स्वास्थ्य सेवा के निगमीकरण का क्रूर चेहरा है कि डॉक्टर से मिलने से पहले कंसलटेंट से मिलना पड़ता है और वहीं तय करता है कि किस डॅाक्टर से इलाज होगा। जनविरोधी तमाम साजिशों के खिलाफ सशक्त मोर्चाबन्दी की आवश्यकता है। वहीं स्वतंत्र मिश्र ने कहा कि स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता के मामले में महिलाओं के साथ हमेशा से सौतेला व्यवहार होता आया है, उन्हें कभी भूखा रहना पड़ता है तो कभी बासी खाना खाना पड़ता है, ऐसे में वह बीमार होती है।

क्राय के शुभेन्दु भट्टाचार्य ने कहा कि मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था दवा, सरकार और बाजार के त्रिकोण में जकड़ा हुआ है। मीडिया बाजार का हिस्सा है। यह स्वास्थ्य खतरनाक स्थिति में है, जन स्वास्थ्य के जनपक्षीय होने पर सवाल खड़े करती है।

सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने कहा कि महात्मा गाँधी ने समाज में डॅाक्टरों की मौजूदगी पर सवाल उठाते हुए कहा था कि हमें रोग निवारण नहीं निरोग रहने वाली जीवनशैली को अपनाना चाहिए। आज जो चिकित्सा या स्वास्थ्य सेवा के नाम पर जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं उसे उन्होंने काफी पहले स्पष्ट कर दिया था। कार्यक्रम के आरम्भ में के.के. त्रिवेदी ने झाबुआ के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित किया। वहीं शंकर भाई ने झाबुआ में इस आयोजन के सन्दर्भ को बताया।

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