तराजू में एक तरफ नमक तो दूसरी तरफ मेवा
प्रवीर कृष्ण (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)लघु वनोपज (minor forest produce - MFP) पर आदिवासियों का एकाधिकार होने के बावजूद वे उसके उचित दामों से वंचित हैं। बस्तर क्षेत्र में आदिवासी चिरौंजी जैसे महंगे मेवे को नमक के भाव बेचते हैं। तराजू में एक तरफ नमक होता है तो दूसरी और मेवा (ड्राइफूड) लघु वनोपज पर निर्भर आदिवासियों के शोषण की ये एक मिसाल है। शोषण की इस खाई को पाटने के लिये आदिवासियों को उनके लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूूल्य दिलाने के लिये ट्राइफेड (tribal cooperative marketing development federation of india limited) अब वन-धन योजना शुरू कर रही है। उसका दावा है कि आदिवासियों को उनके वनोपज का सही दाम मिलेगा। सरकार अब तक लघु वनोपज का सही मूल्य नहीं दिला पाई है। सही मूल्य दिलाने में योजना कितनी कारगर होगी? प्रस्तुत है ट्राइफेड के प्रबन्ध निदेशक प्रवीर कृष्ण से अनिल अश्विनी शर्मा की बातचीत पर आधारित साक्षात्कार।
लघुवनोपज पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का कितना प्रभाव पड़ेगा? संग्रहित वनोपज की संख्या और कितनी बढ़ाई जाएगी?
कायदे से देखा जाय तो इसका असर शून्य है। लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य केन्द्र सरकार ने 2013-14 में लागू किया था। इसमें तब 10 लघु वनोपज शामिल थीं। जैसे इमली, महुआ, तोरा, आँवला आदि। इस आधार पर 2014-15 में रुपए 55 से रुपए 60 करोड़ की खरीद की गई इसके बाद 2016-17 में 10 लघु वनोपज बढ़ाकर 23 कर दिया गया। इस पर लगभग रुपए 125 करोड़ की खरीदारी की गई, लेकिन हम मानते हैं कि यह बहुत ही कम है। इसकी क्षमता लगभग रुपए 1200 करोड़ प्रतिवर्ष है। इससे अभी हम बहुत पीछे हैं।
इसकी क्षमता को बढ़ाने के लिये क्या-क्या उपाय किये जा रहे हैं?
अब हमें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये कम-से-कम 75 वनोपज को शामिल करना होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बाजार मूल्य के आस-पास रखना होगा। क्योंकि अभी लघु वनोपज के मूल्य वास्तविक रूप से कम हैं। इस बरसात बाद 75 वनोपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर ग्रामीण हाट बाजारों से खरीदने की कार्य योजना तैयार की जा रही है। 27 राज्यों के साथ समझौते पत्रों पर हस्ताक्षर करने की तैयारी है। इस योजना से देश भर के ढाई करोड़ आदिवासी सीधे तौर पर जुड़ेंगे।
आदिवासियों को उनके लघु वनोपज का सही दाम मिले, इसके लिये वन-धन योजना कितनी कारगर साबित होगी?
वन-धन योजना के तहत देश भर में 3000 वन-धन केन्द्र स्थापित किये जाएँगे। हर केन्द्र पर लगभग 300 आदिवासी अपनी लघु वनोपज लाएँगे व उनकी उपज को परिष्कृत करने की व्यवस्था होगी। योजना का उद्देश्य है लघु वनोपज को परिष्कृत करना। इस काम में जिलाधीश को शामिल किया गया है। जैसे सामान्य इमली रुपए 30 किलो बिकती है। लेकिन उसी इमली के बीज व रेशे निकाल दिये जाएँ तो वह रुपए 120 किलो में बिकेगी। आदिवासियों को इस कार्य में निपुण करना होगा। तभी उनका सतत विकास सम्भव होगा। यही नहीं, लगभग 20 से 25 लाख आदिवासियों को इस योजना के माध्यम से उद्यमी बनाया जाएगा। जब तक सरकार हाट बाजार में जाकर आदिवासियों के लघु वनोपज नहीं खरीदेगी तब तक उन्हें सीधे लाभ नहीं मिलेगा। अकेले क्रय से ही काम नहीं चलेगा बल्कि इसके बाद उस उपज का भण्डारण, परिवहन, फिर विक्रय और आखिरी में मूल्य संवर्धन व परिष्कृत करना। प्राइमरी बाजार से लेकर मुख्य बाजार तक की कड़ी को देखना होगा।
आदिवासियों के विकास के लिये उनके जंगल की उपज को सही समर्थन मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार क्या उपाय कर रही है?
देश भर के जंगलों में लगभग 10 करोड़ आदिवासी रहते हैं। उनकी 40 से 60 फीसद आय वनोपज से होती है। यदि उनके वर्तमान मूल्य के मुकाबले सही समर्थन मूल्य दें तो उनकी आय में दो गुनी से अधिक वृद्धि होगी। अगर उनकी उपज को परिष्कृत (वैल्यू एडिशन) किया जाये तो उनकी आय तीन से चार गुणा हो जाएगी।
आदिवासियों कल्याण के लिये योजनाएँ तो बीते 7 दशकों में कई बनीं, लेकिन उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी क्या रह जाती है?
इस बार हमारा लक्ष्य यही है कि योजना के क्रियान्वयन पर अधिक जोर रहेगा। कारण कि कागजों पर तो योजना बहुत अच्छी होती है, लेकिन सही क्रियान्वयन नहीं होने से वे बस कागजों में ही रह गईं। जमीनी क्रियान्वयन के लिये सही मूल्य का निर्धारण, हाट बाजारों में खरीद-बिक्री की व्यवस्था, बाजार में क्रय करने वाली समितियों को सही मात्रा में भुगतान, एडवांस भुगतान को स्थायी रूप से निर्धारित कर, दिशा-निर्देश बनाकर उसे राज्य सरकार व जिला कलेक्टरों के माध्यम से क्रियान्वयन किये जाने की योजना है।
यह काम कब से शुरू हो रहा है?
बस, इस बरसात के बाद यह योजना शुरू हो जाएगी। क्योंकि बरसात में वनोपजों का संग्रहण कार्य ठीक से नहीं हो पाता। आगामी नवम्बर-दिसम्बर में लघु वनोपज का मौसम आएगा। हम 27 राज्यों के लगभग 5000 हाट बाजारों में इस योजना को अमल में लाएँगे।
आपने बस्तर क्षेत्र में काम किया है और वहाँ दशकों से नक्सलवाद का असर है। क्या ट्राइफेड की योजनाओं के माध्यम से नक्सलवाद के दुष्प्रभावों का इलाज सम्भव है?
हाँ, बस्तर में मैंने काम किया है और इसके आधार पर मैंने मंत्रालय के सामने प्रस्ताव रखा है। आदिवासियों के लघु वनोपज व हस्तशिल्प का व्यापार रुपए 20-25 करोड़ का नहीं है बल्कि इसके रुपए 2000 करोड़ तक के बढ़ने की क्षमता है। आज रुपए 2 लाख करोड़ का लघु वनोपज देश में उपलब्ध हैं। और हम इसके माध्यम से प्रतिवर्ष दो से तीन हजार करोड़ रुपए का व्यापार कर सकते हैं। और यदि इसमें वैल्यू एडिशन जोड़ दिया तो यह 10 हजार करोड़ रुपए का व्यापार तक बढ़ सकता है। आज आदिवासी रुपए 20 से 25 कमा रहा है। यदि उसके हाथ में रुपए 200 रोज के आएँगे तो वह दिन भर काम करेगा। उसका ध्यान नक्सलवाद की ओर जाएगा ही नहीं। आदिवासी क्षेत्रों में बिचौलिए शोषण करते हैं। ये आदिवासियों से चिरौंजी नमक के भाव खरीदते हैं। अभी रुपए 2000 के सामान पर आदिवासी के हाथ में रुपए 100 आता है जबकि उसे रुपए 1200 मिलने चाहिए। क्योंकि दुनिया की कोई ऐसी तकनीक नहीं विकसित हुई है, जिसके माध्यम से जंगलों से आदिवासियों को छोड़ कोई दूसरा समुुदाय लघु वनोपज संग्रहित कर सके। उसकी इस दक्षता को थोड़ा और परिष्कृत कर आदिवासियों का एक जनआन्दोलन खड़ा करने की तैयारी है।
बाँस आदिवासियों के लिये अहम वनोपज है, इनके उपयोग पर आदिवासियों को उत्पीड़न झेलना पड़ता है। इस सम्बन्ध में ट्राइफेड क्या कर रहा है?
यह एक अच्छी बात हुई है कि जिस बाँस को पहले लकड़ी की श्रेणी में रखा जाता था, अब यह ग्रास (झाड़ियों) की श्रेणियों में आ गया है। इससे अब कोई भी व्यक्ति अपने निजी क्षेत्र में लगए गए बाँस को बिना किसी सरकारी अनुमति के खरीद व बेच सकता है। अब आदिवासी समुदाय बाँस का व्यावसायिक उपयोग भी कर सकेगा।
आदिवासी हस्तशिल्प कला उत्पादों के लिये ट्राइफेड की क्या योजना है?
आदिवासी हस्तशिल्प कला के अन्तर्गत लगभग 5000 किस्म की चीजें बनाते हैं। काठ, लोहे, मिट्टी के सामान व आभूषण आदि को हम ‘ट्राइब्स इण्डिया’ ब्रांड के तहत विक्रय करते हैं। अभी हमारे पास 100 दुकानें हैं और इसे 3000 तक बढ़ाने की योजना है। इसके माध्यम से रुपए 20 से रुपए 25 करोड़ का विक्रय हो रहा है। इसे रुपए 100 करोड़ तक पहुँचाने का लक्ष्य है। इससे लगभग ढाई लाख आदिवासी परिवारों की आजीविका जुड़ेगी।
ट्राइफेड की योजनाओं से कितनी आदिवासी परिवारों को रोजगार मिलेगा?
लघु वनोपज के माध्यम से लगभग 25 लाख आदिवासी परिवारों का सीधा लाभ पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है। जबकि उनके द्वारा तैयार किये गए हस्तशिल्प उत्पाद से लगभग ढाई लाख आदिवासी परिवारों की आय में दोगुनी वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है।
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