वायुमंडल में जल (Water in the atmosphere in Hindi)
हमें पता ही है कि हवा में जलवाष्प मौजूद होती है। इसमें वायुमंडल के आयतन में 0 से लेकर 4 प्रतिशत तक की भिन्नता पाई जाती है। मौसम की परिघटना में इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है। जल वायुमंडल में तीन अवस्थाओं गैस, द्रव तथा ठोस के रूप में उपस्थित होता है। वायुमंडल में आर्द्रता, जलाशयों से वाष्पीकरण तथा पौधों में वाष्पोत्सर्जन से प्राप्त होती है। इस प्रकार वायुमंडल, महासागरों तथा महाद्वीपों के बीच जल का लगातार आदान-प्रदान वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, संघनन एवं वर्षा की प्रक्रिया द्वारा होता रहता है।
हवा में मौजूद जलवाष्प को आर्द्रता कहते हैं। मात्रात्मक दृष्टि से इसे विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया जाता है। वायुमंडल में मौजूद जलवाष्प की वास्तविक मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहा जाता है। यह हवा के प्रति इकाई आयतन में जलवाष्प का वजन है एवं इसे ग्राम प्रति घन मीटर के रूप में व्यक्त किया जाता है। हवा द्वारा जलवाष्प को ग्रहण करने की क्षमता पूरी तरह से तापमान पर निर्भर होती है। निरपेक्ष आर्द्रता पृथ्वी की सतह पर अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग होती है। दिए गए तापमान पर अपनी पूरी क्षमता की तुलना में वायुमंडल में मौजूद आर्द्रता के प्रतिशत को सापेक्ष आर्द्रता कहा जाता है। हवा के तापमान के बदलने के साथ ही आर्द्रता को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है तथा सापेक्ष आर्द्रता भी प्रभावित होती है। यह महासागरों के ऊपर सबसे अधिक तथा महाद्वीपों के ऊपर सबसे कम होती है।
एक निश्चित तापमान पर जलवाष्प से पूरी तरह पूरित हवा को संतृप्त कहा जाता है। इसका मतलब यह है कि हवा इस स्थिति में दिए गए तापमान पर और अधिक आर्द्रता को ग्रहण करने में सक्षम नहीं है। हवा के दिए गए प्रतिदर्श (52777९) में जिस तापमान पर संतृप्ता आती है उसे ओसांक कहते हैं।
वाष्पीकरण तथा संघनन
वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा वाष्पीकरण तथा संघनन के कारण क्रमशः घटती-बढ़ती रहती है। वाष्पीकरण वह क्रिया है जिसके द्वारा जल द्रव से गैसीय अवस्था में परिवर्तित होता है। वाष्पीकरण का मुख्य कारण ताप है। जिस तापमान पर जल वाष्पीकृत होना शुरु करता है उसे वाष्पीकरण की गुप्त ऊष्पा कहा जाता है। दिए गए हवा के अंश में जल को अवशोषित करने एवं धारण रखने की क्षमता तापमान में वृद्धि के साथ बढ़ती है। उसी प्रकार, यदि आर्द्रता कम है तो हवा में नमी को अवशोषित करने तथा धारण करने की क्षमता होती है। हवा की गति संतृप्त परत को असंतृप्त परत के द्वारा हटा देती है। इस प्रकार, हवा की गति जितनी तीव्र होगी वाष्पीकरण उतना ही तीव्र होगा।
जलवाष्प का जल के रूप में बदलना संघनन कहलाता है। ऊष्मा का हास ही संघनन का कारण होता है। जब आर्द्र हवा ठंडी होती है, तब उसमें जलवाष्प को धारण रखने की क्षमता समाप्त हो जाती है। तब अतिरिक्त जलवाष्प द्रव में संघनित हो जाता है और जब यह सीधे ठोस रूप में परिवर्तित होते हैं तो इसे ऊर्ध्वापातन कहते हैं। स्वतंत्र हवा में, छोटे-छोटे कणों के चारों ओर ठंडा होने के कारण संघनन होता है तब इन छोटे-छोटे कणों को संघनन केंद्रक कहा जाता है। खासकर धूल, धुंआं तथा महासागरों के नमक के कण अच्छे केंद्रक होते हें क्योंकि वे पानी को अवशोषित करते हैं। संघनन उस अवस्था में भी होता है जब आर्द्र हवा कुछ ठंडी वस्तुओं के संपर्क में आती है तथा यह उस समय भी हो सकता है जब तापमान ओसांक के नज़दीक हो। इस प्रकार संघनन ठंडा होने की मात्रा तथा हवा की सापेक्ष आर्द्रता पर निर्भर होता है। संघनन हवा के आयतन, ताप, दाब तथा आर्द्रता से प्रभावित होता है।
संघनन तब होता है जब () वायु का आयतन नियत हो एवं तापमान ओसांक तक गिर जाए; (#) वायु का आयतन तथा तापमान दोनों ही कम हो जाएँ; (8) वाष्पीकरण द्वारा
वायु में और अधिक जल बाष्प प्रविष्ट हो जाए। फिर भी, हवा के तापमान में कमी संघनन के लिए सबसे अच्छी अवस्था है।
संघनन के बाद, वायुमंडल की जलवाष्प या आर्द्रता निम्नलिखित में से एक रूप में परिवर्तित हो जाती है- ओस, कोहरा, तुषार एवं बादल। स्थिति एवं तापमान के आधार पर संघनन के प्रकारों को वर्गीकृत किया जा सकता है। संघनन तब होता है जब ओसांक जमाव बिंदु से नीचे होता है तथा तब भी संभव है जब ओसांक जमाव बिंदु से ऊपर होता है।
ओस
जब आर्द्रता धरातल के ऊपर हवा में संघनन केंद्रकों पर संघनित न होकर ठोस वस्तु जैसे पत्थर, घास, तथा पौधों की पत्तियों की ठंडी सतहों पर पानी की बूँदों के रूप में जमा होती है तब इसे ओस के नाम से जाना जाता है। इसके बनने के लिए सबसे उपयुक्त अवस्थाएँ साफ आकाश, शांत हवा, उच्च सापेक्ष आर्द्रता तथा ठंडी एवं लंबी रातें हैं। ओस के बनने के लिए यह आवश्यक है कि ओसांक जमाव बिंदु से ऊपर हो।
तुषार
तुषार ठंडी सतहों पर बनता है जब संघनन तापमान के जमाव बिंदु से नीचे (0"से.) चले जाने पर होता है, अर्थात् ओसांक जमाव बिंदु पर या उसके नीचे होता है। अतिरिक्त नमी पानी की बूँदों की बजाय छोटे-छोटे बर्फ के रबों के रूप में जमा होती हैं। उजले तुषार के बनने की सबसे उपयुक्त अवस्थाएँ, ओस के बनने की अवस्थाओं के समान हैं, केवल हवा का तापमान जमाव बिन्दु पर या उससे नीचे होना चाहिए।
कोहरा एवं कुहासा
जब बहुत अधिक मात्रा में जलवाष्प से भरी हुई वायु संहति अचानक नीचे की ओर गिरती है तब छोटे-छोटे धूल के कणों के ऊपर ही संघनन कौ प्रक्रिया होती है। इसलिए कोहरा एक बादल है जिसका आधार सतह पर या सतह के बहुत नज़दीक होता है। कोहरा तथा कुहासा के कारण दृश्यता कम से शून्य तक हो जाती है। नगरीय एवं औद्योगिक केंद्रों में धुएँ की अधिकता के कारण केंद्रकों की मात्रा की भी अधिकता होती है जो कोहरे और कुहासे के बनने में मदद देती हैं। ऐसी स्थिति को, जिसमें कोहरा तथा धुआँ सम्मिलित रूप से बनते हैं, 'धूम्र कोहरा' कहते हैं। कुहासे एवं कोहरे में केवल इतना अंतर होता है कि कुहासे में कोहरे की अपेक्षा नमी अधिक होती है। कुहासा पहाड़ों पर अधिक पाया जाता है, क्योंकि ऊपर उठती हुई गर्म हवा ढाल पर ठंडी सतह के संपर्क में आती है। कोहरे कुहासे की अपेक्षा अधिक शुष्क होते हैं तथा जहाँ गर्म हवा की धारा ठंडी हवा के संपर्क में आती है वहाँ ये प्रबल होते हैं। कोहरे छोटे बादल होते हैं जिसमें धूलकण, धुएँ के कण तथा नमक के कण होते हैं। केंद्रकों के चारों ओर संघनन की क्रिया होती है।
बादल
बादल पानी की छोटी बूँदों या बर्फ के छोटे रबों कौ संहति होता है जो कि पर्याप्त ऊँचाई पर स्वतंत्र हवा में जलवाष्प के संघनन के कारण बनते हैं। चूँकि बादल का निर्माण पृथ्वी की सतह से कुछ ऊँचाई पर होता है इसलिए ये विभिन्न आकारों के होते हैं। इनकी ऊँचाई, विस्तार, घनत्व तथा पारदर्शिता या अपारदर्शिता के आधार पर बादलों को चार रूपों में वर्गीकृत किया जाता है- 0) पक्षाभ मेघ; (॥) कपासी मेघ; (!/) स्तरी मेघ; (9) वर्षा मेघ।
/. पक्षाभ मेघ
पक्षाभ मेघों का निर्माण 8,000-2 000 मी० की ऊँचाई पर होता है। ये पतले तथा बिखरे हुए बादल होते हैं, जो पंख के समान प्रतीत होते हैं। ये हमेशा सफेद रंग के होते हैं।
2. कपासी मेघ
कपासी मेघ रूई के समान दिखते हैं। ये प्राय: 4,000 से 7,000 मीटर की ऊँचाई पर बनते हैं। ये छितरे तथा इधर-उधर बिखरे देखे जा सकते हैं। ये चपटे आधार वाले होते हैं।
3. स्तरी मेघ
जैसा कि नाम से प्रतीत होता है ये परतदार बादल होते हैं जो कि आकाश के बहुत बड़े भाग पर फैले रहते हैं। ये बादल सामान्यतः: या तो ऊष्मा के हास या अलग-अलग तापमानों पर हवा के आपस में मिश्रित होने से बनते हैं।
4. वर्षा मेघ
वर्षा मेघ काले या गहरे स्लेटी रंग के होते हैं। ये मध्य स्तरों या पृथ्वी के सतह के काफी नजदीक बनते हैं। ये सूर्य की किरणों के लिए बहुत ही अपारदर्शी होते हैं। कभी-कभी बादल इतनी कम ऊँचाई पर होते हैं कि ये सतह को छूते हुए प्रतीत होते हैं। वर्षा मेघ मोटे जलवाष्प की आकृति विहीन संहति होते हैं।
ये चार मूल रूपों के बादल मिलकर निम्नलिखित
रूपों के बादलों का निर्माण करते हैं-
ऊँचे बादल - पक्षाभ, पक्षाभ स्तरी, पक्षाभ कपासी,
मध्य ऊँचाई के बादल - स्तरी मध्य तथा कपासी मध्य,
कम ऊँचाई के बादल - स्तरी कपासी, स्तरी वर्षा मेघ
एवं कपासी वर्षा मेघ।
वर्षण
स्वतंत्र हवा में लगातार संघनन कौ प्रक्रिया संघनित कणों के आकार को बड़ा करने में मदद करती है। जब हवा का प्रतिरोध गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध उनको रोकने में असफल हो जाता है तब ये पृथ्वी की सतह पर गिरते हैं। इसलिए जलवाष्प के संघनन के बाद नमी के मुक्त होने की अवस्था को वर्षण कहते हैं। यह द्रव या ठोस अवस्था में हो सकता है। वर्षण जब पानी के रूप में होता है उसे वर्षा कहा जाता है, जब तापमान 0*से० से कम होता है तब वर्षण हिमतूलों के रूप में होता है जिसे हिमपात कहते हैं। नमी षट्कोणीय रबों के रूप में निर्मुक्त होती है। ये रबे हिमतूलों का निर्माण करते हैं। वर्षा तथा हिमपात के अतिरिक्त वर्षण के दूसरे प्रकार सहिम वृष्टि तथा करकापात हैं, यद्यपि करकापात काफी सीमित मात्रा में होता है एवं समय तथा क्षेत्र की दृष्टि से यदाकदा ही होता है।
सहिम वृष्टि जमी हुई वर्षा की बूँदे हैं या पिघली हुई बर्फ के पानी की जमी हुई बूंदें हैं। जमाव बिंदु के तापमान के साथ जब वायु की एक परत सतह के नजदीक आधे जमे हुए परत पर गिरती है तब सहिम वृष्टि होती है। वर्षा की बूँदें जो गर्म हवा से निकलती हैं तथा नीचे की ओर ठंडी हवा से मिलती हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे ठोस हो जाती हैं तथा सतह पर वर्षा की बूँदों से भी छोटे आकार में बर्फ के रूप में गिरती हैं।
कभी-कभी वर्षा की बूँदें बादल से मुक्त होने के बाद बर्फ के छोटे गोलाकार ठोस टुकड़ों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा पृथ्वी की सतह पर पहुँचती हैं जिसे ओलापत्थर कहा जाता है। ये वर्षा के जल से बनती हैं जो कि ठंडी परतों से होकर गुजरती हैं। ये ओला पत्थर एक के ऊपर एक बर्फ की कई सकेंद्रीय परतों वाले होते हैं।
वर्षा के प्रकार
उत्पत्ति के आधार पर वर्षा को तीन प्रमुख प्रकारों में बाँटा जा सकता है- संबहनीय, पर्वतीय तथा चक्रवातीय या फ्रंटल
संवहनीय वर्षा
हवा गर्म हो जाने पर हल्की होकर संबहन धाराओं के रूप में ऊपर की ओर उठती है, वायुमंडल की ऊपरी परत में पहुँचने के बाद यह फैलती है तथा तापमान के कम होने से ठंडी होती है। परिणामस्वरूप संघनन की क्रिया होती है तथा कपासी मेघों का निर्माण होता है। गरज तथा बिजली कड़कने के साथ मूसलाधार वर्षा होती है, लेकिन यह बहुत लंबे समय तक नहीं रहती है। इस प्रकार की वर्षा गर्मियों में या दिन के गर्म समय में प्राय: होती है। यह विषुवतीय क्षेत्र तथा खासकर उत्तरी गोलार्ध के महाद्वीपों के भीतरी भागों में प्रायः होती है।
पर्वतीय वर्षा
जब संतृप्त वायु की संहति पर्वतीय ढाल पर आती है, तब यह ऊपर उठने के लिए बाध्य हो जाती है तथा जैसे ही यह ऊपर की ओर उठती है, यह फैलती है, तापमान गिर जाता है तथा आर्द्रता संघनित हो जाती है। इस प्रकार की वर्षा का मुख्य गुण है कि पवनाभिमुख ढाल पर सबसे अधिक वर्षा होती है। इस भाग में वर्षा होने के बाद ये हवाएँ दूसरे ढाल पर पहुँचती हैं, वे नीचे की ओर उतरती हैं तथा उनका तापमान बढ़ जाता है। तब उनकी आर्द्रत धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है एवं इस प्रकार, प्रतिपवन ढाल सूखे तथा वर्षा विहीन रहते हैं। प्रतिपवन भाग में स्थित क्षेत्र, जिनमें कम वर्षा होती है उसे वृष्टि छाया क्षेत्र कहा जाता है। यह पर्वतीय वर्षा या स्थलकृत वर्षा के नाम से जानी जाती है।
चक्रवातीय वर्षा या फ्रंटल वर्षा
आप पहले ही इस पुस्तक के दसवें अध्याय में बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवातों तथा चक्रवाती वर्षा का अध्ययन कर चुके हैं, अत: चक्रवाती वर्षा समझने के लिए अध्याय दस को देखें।
संसार में वर्षा वितरण
एक साल में पृथ्वी की सतह पर अलग-अलग भागों में होने वाली वर्षा की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है तथा यह अलग-अलग मौसमों में भी होती है।
सामान्य तौर पर जब हम विषुवत् बृत्त से ध्रुव की तरफ जाते हैं, वर्षा की मात्रा धीरे-धीरे घटती जाती है। विश्व के तटीय क्षेत्रों में महाद्वीपों के भीतरी भागों की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। विश्व के स्थलीय भागों की अपेक्षा महासागरों के ऊपर वर्षा अधिक होती है, क्योंकि वहां पानी के स्रोत की अधिकता के कारण वाष्पीकरण की क्रिया लगातार होती रहती है। विषवत् बृत्त से 35 से 40% उ0 एवं द0 अक्षांशों के मध्य, पूर्वी तटों पर बहुत अधिक वर्षा होती है तथा पश्चिम की तरफ यह घटती जाती है। लेकिन विषुवत् वृत्त से 45" तथा 65% उ0 एवं द0 के बीच पछुआ पवनों के कारण सबसे पहले महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर वर्षा होती है तथा यह पूर्व की तरफ घटती जाती है। जहाँ भी पहाड़ तट के समानांतर हैं, वहां वर्षा की मात्रा पवनाभिमुख तटीय मैदान में अधिक होती है एवं यह प्रतिपषन दिशा की तरफ घटती जाती है।
वार्षिक वर्षण की कुल मात्रा के आधार पर विश्व की मुख्य वर्षण प्रवृति को निम्नलिखित रूपों में पहचाना जाता हैः
विषुवतीय पट्टी, शीतोष्ण प्रदेशों में पश्चिमी तटीय किनारों के पास के पर्वतों के वायु की ढाल पर तथा मानसून बाले क्षेत्रों के तटीय भागों में वर्षा बहुत अधिक होती है, जो प्रति वर्ष 200 सेन्मी० से ऊपर होती है। महाद्वीपों के आंतरिक भागों में प्रतिवर्ष 00 से 200 सेन्मी० वर्षा होती है। महाद्वीपों के तटीय क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा मध्यम होती है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के केंद्रीय भाग तथा शैतोष्ण क्षेत्रों के पूर्वी एवं भीतरी भागों में वर्षा की मात्रा 50 से 00 सेन्मी> प्रतिवर्ष तक होती है।
महाद्वीप के भीतरी भाग के वृष्टि छाया क्षेत्रों में पड़ने वाले भाग तथा ऊँचे अक्षांशों वाले क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 50 सेन्मी० से भी कम वर्षा होती है। वर्षा का मौसमी वितरण इसकी प्रभाविता को समझने का एक महत्वपूर्ण पहलू है। कुछ क्षेत्रों जैसे विषुवतीय पट्टी तथा ठंडे समशीतोष्ण प्रदेशों में वर्षा पूरे वर्ष होती रहती है।