वेंटिलेटर पर सांसें गिनती ‘नारायणपुर वाली’ गुमनाम नदी
राजस्थान के अलवर जिले के थानागाजी अंचल की पहचान सूखती नदियों को पुनः सदानीरा बनाकर दिखाने वाले इलाके के तौर पर रही है। यह अंचल उन सब लोगों के लिए काशी या काबा से कम नहीं रहा जो सूखती छोटी-छोटी नदियों के पुनःजीवित होने की रूमानी कहानी को देखना, समझना और परखना चाहते थे। यह इलाका उन लोगों को भी अपनी ओर खींचता था, जो नदियों के सदानीरा बनने वाले चमत्कार को, अपनी आंखों से देखना चाहते थे। अध्ययन करना चाहते थे। अब इस इलाके की कहानी बदल रही है। कहानी को बदलने की इबारत लिखी है थानागाजी ब्लाक के नारायणपुर कस्बे के मध्य से बहने वाली, लगभग सौ किलोमीटर लम्बी नदी ने, जो साबी की सहायक नदी है और अब, धीरे-धीरे बरसात के तुरन्त बाद सूख रही है। यह नदी ‘नारायणपुर वाली नदी’ के नाम से जानी जाती है।
नारायणपुर की उपर्युक्त नदी सन 1971 तक, साल में लगभग आठ माह बहती थी। गर्मी के चार माह सूखे होते थे। अब उसका अस्तित्व, नारायणपुरा आते-आते लगभग समाप्त हो जाता हैं। वह एक छोटे नाले के साथ-साथ कचरे के ढेर में तब्दील हो जाती है। गुमनामी का यह आलम है कि लगभग सौ किलोमीटर की लम्बी यात्रा करने के बावजूद नदी अनाम है। उल्लेखनीय है कि हर साल लगभग आठ माह तक प्रवाह बनाए रखने वाली इस नदी ने अपने कछार के भूजल स्तर को सम्बल प्रदान किया था और गंगा के जैसा सम्मान पाया था।
नारायणपुर की उपर्युक्त यह नदी अपने उद्गम से निकलकर ग्राम पंचायत आगर के काकड की ढ़ांणी से आगे चलकर वह दो धाराओं में विभाजित हो जाती है। पहली धारा गोच्छ्या के नाम से झांकडी और गोवडी होते हुए आगे बढ़ती है। दूसरी धारा भृगु ऋषि के पवित्र स्थल (भिण्डी रूख) अर्थात नांगल बानी से निकलकर धुणी नाथजी की पहाडियों के इलाके में बहती है और बस्सी नदी कहलाती है। दोनों धाराओं का संगम ग्राम भोपाला में होता है। भोपाला में यह नदी नई गंगा के नाम से पूजी जाती है। पर ढ़िगरिया ग्राम तक पहुँचते-पहुँचते उसका नाम ढिगरिया वाली नदी हो जाता है। उसका यह नाम भी स्थायी नहीं है। ढ़िगरिया ग्राम के बाद उसे बतौर, ‘नारायणपुर वाली नदी’ पहचान मिलती है। इस नदी का कछार लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर है और यह कभी तबाही मचाने वाली बाढ़ के लिए जानी जाती थी।
बाढ़ मुक्ति के लिए सबसे पहले इस नदी पर बीसा का बांध बनाया गया लेकिन बाढ़ काबू में नहीं आई। कुदरत ने उसका कहर सन 1981 से 1984 के बीच दिखाया। इसके बाद नदी के पेटे पर बांध बनाने की होड़ मची और उस पर दो दर्जन से अधिक कच्चे पक्के बांध बने। इन बाधों में धुणीनाथजी का बांध, गड्बसई बांध, गुजरो की ढ़ांणी का बांध, झाकडी का बांध, ढ़िगरिया का बांध, हरिगुर्जर के खेत का बांध, बीसा का बांध प्रमुख हैं। दो बांध तरुण भारत संघ ने भी बनवाए। इन बांधों का असर अकल्पनीय रहा लेकिन सच्चाई जानने के लिए वह अनुसन्धान का विषय है। बांधों के बढ़ते कुनबे के कारण नदी का प्रवाह बाधित हुआ। भूजल भी प्रभावित हुआ। जहाँ-जहाँ बाँध बने वहाँ-वहाँ अतिक्रमण हुआ। कई जगह नदी अपना अस्तित्व खोकर खेतों में तब्दील हो गई। बाकी हिस्सा कूड़ेदान में परिवर्तित हो गया या उस पर वैध/अवैध बसाहटें बस गईं। अनेक अवरोध पनपे। समाज में लालच ने परिभाषायें बदलीं पर कुदरत के आगे समाज और बांधों का काम बौना सिद्ध हुआ। पानी के उपयोग के असन्तुलन ने सिंचाई का गणित बिगाड़ दिया। संचित पानी कम पड़ने लगा। भूजल पर दबाव बढ़ा तो भूजल स्तर की गिरावट नजर आने लगी। कुल मिलाकर कुदरती जलचक्र गडबड़ा गया। नदी को आकृति प्रदान करने वाले नाले खत्म होने लगे। नदी का अस्तित्व खत्म होना प्रारंभ हो गया है। यह गंभीर पर्यावरणी नुकसान है। इसका खामियाजा आमजन के साथ-साथ पशु-पक्षी और जंगली जीव-जन्तुओं को भोगना होगा। परिणाम है पलायन, प्रथम चरण के तौर पर किसानों का बेघर होना प्रारंभ हो गया है।
लेखक, जो पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था - एलपीएस विकास संस्थान से सम्बद्ध हैं, का मानना है कि नदी को मूल स्वरुप और उसकी खोई अस्मिता प्रदान करना आवश्यक है। नदी को लालच से बचाना आवश्यक है। उनको लगता है कि बदलते मौसम अर्थात क्लाईमेट चेन्ज के कारण नदी में या उसके मार्ग में बढ़ते अवरोध कभी भी तबाही मचा सकते हैं। यह तबाही मानव निर्मित संरचनाओं के कारण होगी जिसे कुदरत अंजाम देगी। नदी मार्ग के अवरोध दो प्रकार के हैं- पहली श्रेणी में बांध हैं। दूसरी श्रेणी में अतिक्रमण, नदी मार्ग में बदलाव, नदी पथ को खेतों में तब्दील करना प्रमुख है। लेखक को विश्वास है कि नदी को बचाने से प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र बचा रहता है। वह लौट सकता है। कछार का ग्राउंड वाटर स्तर सुरक्षित बचा रह सकता है। इस तंत्र को बचाने की आवश्यकता है। उस पर काम करने की आवश्यकता है।
स्थानीय पर्यावरण की सलामती का अर्थ है, जीव-मात्र का कछार में निरापद जीवन। हमें अवरोधों को हटवाना चाहिए ताकि वाटर लेवल सुरक्षित रहे। नदी को अपना खोया गौरव वापिस मिल सके। पर्यावरण सुरक्षित रहे। लेखक का सम्बन्धित विभागों से अनुरोध है कि नदी अस्मिता का सम्मान हो। नदी को जो जीवित व्यक्ति का दर्जा मिला है, वह कागजों से बाहर आकर जमीन पर दिखाई दे।
लेखक का ईमेल आईडी lpsvikassansthan@gmail.com