वनों की रक्षा : गुंडूरिबाड़ी की महिला प्रहरी

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ओडीशा के छोटे से आदिवासी गाँव गुंडूरिबाड़ी की महिलाएँ रोजाना तंगापल्ली यानी अपने गाँव के इर्द-गिर्द मौजूद वनों की गश्त के लिये निकलती हैं। वे अपने वन संरक्षण समिति की सदस्य भी हैं जो कि यह फैसला करती है कि वन और उसके संसाधनों का प्रबन्धन किस प्रकार किया जाये। सोनाली पाठक ने गुंडूरबाड़ी की प्रहरी महिलाओं के साथ एक दिन बिताकर यह जानना चाहा कि किस प्रकार इस आन्दोलन ने वनों को कायम रखा और गाँव वालों का सबलीकरण किया। गुंडूरिबाड़ी गाँव के लिये वह अन्य दिनों की तरह से ही एक दिन था। कुल जमा 27 घरों का यह आदिवासी गाँव ओडीशा के नयागढ़ जिले के रानपुर विकासखण्ड के साता भाई (पहाड़ों और पर्वतों की एक शृंखला) की तलहटी में स्थित है। गाँव की करीब 45 वर्षीय दो महिलाएँ जान्हा प्रधान और सरोजिनी प्रधान गाँव की अन्य महिलाओं को आवाज़ लगाती हुई मुख्य मार्ग के किनारे इकट्ठा होने को कहती हैं। उनकी आवाज पर गाँव की 30 से 60 वर्षीय दस महिलाएँ तत्काल अपने मुख्य देवता कालिया संधा के मन्दिर के पास तंगापल्ली यानी वन की गश्त के लिये इकट्ठा हो जाती हैं। यह उनके दैनिक जीवन का हिस्सा है जिसके तहत अदला-बदली के आधार पर सात से दस महिलाएँ रोजाना वनों की गश्त करती हैं।

ओडीशा में वन संसाधन के पतन और निरन्तर ह्रास के कारण समुदाय आधारित वन संरक्षण और प्रबन्धन की पहल बीसवीं सदी के आरम्भ से ही शुरू हो गई थी। अविभाजित सम्भलपुर और कोरापुट जिलों ने इस पहल का नेतृत्व किया और ओडीशा के दूसरे जिलों के लिये उदाहरण कायम किया, जहाँ इसने अस्सी और नब्बे के दशक में गति पाई और धीरे-धीरे एक जनान्दोलन बन गया।

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार ओडीशा राज्य में वनों के बीच या करीब स्थित 12000 गाँवों में से 5000 गाँव (ओडीशा में तकरीबन 51000 गाँव हैं) अपने करीब स्थित सरकारी वन भूमि का संरक्षण कर रहे हैं। वनों पर आधारित इन समुदायों की महिलाएँ अपनी आजीविका और आय के लिये बिक्री के माध्यम से गैर काष्ठ वनोपज (एनटीएफपी) को इकट्ठा करने पर व्यापक रूप से निर्भर हैं।

घरेलू उपयोग में आने वाले कन्द में पत्ती वाली सब्जियों, फलों और रसभरियों के अलावा पिचुली, कडाबा और तुंगा शामिल हैं। व्यावसायिक उपयोग के लिये गाँव वाले जंगल से सियाली की पत्तियाँ, शाल की पत्तियाँ और शाल के बीच इकट्ठा करते हैं।

वन सम्पदा के ह्रास के कारण जब समुदाय पर दिक्कतें आईं तो महिलाओं ने पारम्परिक संस्थागत प्रक्रियाओं में सक्रिय भूमिका निभाई। इन प्रक्रियाओं में एनटीएफपी तक पहुँच और उसके उपयोग के बारे में नियम बनाना, वन संरक्षण समितियों का गठन, चौकसी और वनों पर निगाह रखना और वनों को नुकसान पहुँचाने वाले दोषियों को दंड देना शामिल है।

गुंडूरिबाड़ी के आसपास तकरीबन 200 हेक्टेयर संरक्षित वन और 30 एकड़ ग्राम्य वन हुआ करता था। सन् 2012 में गाँव वालों ने सन् 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत संरक्षित वन और ग्राम्य वन पर अपने सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के लिये आवेदन किया। लेकिन उनमें से किसी को भी व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि एफआरए के तहत उनका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि एफआरए के तहत बने प्रावधान की बजाय वे किसी और किस्म की जमीन के लिये दावा कर रहे हैं।

वन की बहू से संरक्षक बनीं

“मेरी सास उन दिनों की भयानक कहानियाँ सुनाती हैं जब अकाल के दौरान भोजन के जबरदस्त संकट का सामना करना पड़ता था। तब वे वन विभाग के गार्डों से संरक्षित वनों में नजर बचाकर घुसती थीं ताकि अपने बच्चों और अन्य आश्रितों का पेट भरने के लिये किसी प्रकार कुछ कन्द ला सकें।

गश्त

प्रहरियों की प्रगति

``हम वनों को अपने बच्चों की तरह मानते हैं, हम उसकी परवाह करते हैं, संरक्षण करते हैं और अपने बच्चे की तरह उसे बचाते हैं। अगर कोई उसे नुकसान पहुँचाता है तो उसे दंड मिलना चाहिए। हम उसे किसी भी कीमत पर छोड़ने वाले नहीं हैं। लकड़ी और आटो जब्त करने के बाद महिलाएँ उन व्यक्तियों को पकड़ कर गाँव लाती हैं। पता चलता है कि वे पुरुष बगल के गाँव के हैं। महिलाओं द्वारा कड़ी पूछताछ और फटकार के बाद वे लोग माफी माँगते हैं और कसम खाते हैं कि वे भविष्य में फिर कभी भी गाँव की वन संरक्षण समिति से पूछे बिना जंगल में नहीं घुसेंगे। काफी चर्चा के बाद सन्तरी उन लोगों को इस शर्त पर जाने देती हैं कि वे दोबारा जंगल से लकड़ी नहीं चुराएँगे।

भावी दृष्टि

सन्दर्भ और अन्य अध्ययन सामग्री

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