वृक्ष विछोह : एक सामाजिक समस्या
आमने-सामने दो बड़े-बड़े बंगले हैं। लेकिन मुझे इन्हें 'घर' कहना अच्छा लगता है। मेरी समझ से घरौंदे से ही घर का स्वरूप आया होगा। 'घर' दो शब्द है 'घ' और 'र'। उसी तरह पति-पत्नी एक पुरुष, एक नारी, दोनों होते हैं एक। दोनों के सहयोग से ही बनता है एक घर। और इसी श्रेणी में आमने-सामने के दोनों 'घर' आते हैं। दोनों परिवारों ने बड़े प्रेम-सहयोग से एक साथ आमने-सामने घर बनवाया था। बीच में मात्र सड़क, आपस में अच्छा मिलना-जुलना था। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गये। पैसे की दौड़ में सब ऐसे उलझे कि प्यार बरकरार रहते हुये भी समयाभाव ने दूरियाँ बढ़ा दी। परिवार से बच्चे दूर देश-विदेश कमाने चले गये। बुढ़ापे में दोनों घरों में बुढ़े, बुढ़िया रह गये। पैसा आवश्यकता से अधिक, सुख-सुविधा की सामग्री से सुसज्जित, आराम ही आराम है, किंतु आराम की जिंदगी ने दूरी बढ़ा दी है। एसी आन, टीवी आन, लोग अपने-अपने घरों में बंद। अब गाहे-बगाहे मौकों पर ही मुलाकात होती है। वरना कई-कई दिन बातों की कौन कहे एक दूसरे का चेहरा भी देखने को नहीं मिलता। बनावट की नकाब ने दूरियाँ और बढ़ा दी हैं। आवश्यकता पड़ने पर फोन और मोबाइल, कभी-कभी ई-मेल भी सहारा बनकर समाचार ले लेता है और संबंधों की इतिश्री हो जाती है। शायद इसी को प्रगति कहते हैं।