भारत में हरित क्रांति के पूर्व एवं पश्चात कृषि उत्पादकता का विश्लेषणात्मक अध्ययन (An analytical study of agricultural productivity in India in pre & post Green revolution era)
सारांश
-डा. नारमन ई. बारलाग (नोबेल भाषण, दिसम्बर 11, 1970)
1943 के बंगाल भुखमरी की भयावह स्मृतियों के पश्चात खाद्य सुरक्षा भारत के नीति निर्धारिकों के लिये प्रमुख मुद्दा बन गया। एक राष्ट्र जो हरित क्रांति से पूर्व अनेक बार भुखमरी एवं भीषण खाद्य अपर्याप्तता से ग्रस्त था, वो आज खाद्य आधिक्यता से परिपूर्ण है। हरित क्रांति ने भारतीय कृषि को आकर्षक एवं जीवन शैली को जीवन निर्वाहक के स्थान पर व्यापारिक आयाम प्रदान किया है। भारत आज आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी, भौतिक एवं जैविक विज्ञान पर निर्भर है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 51 मिलियन टन के खाद्य उत्पादन से आज हम अवर्णनीय प्रगति करते हुए 257 मिलियन टन के खाद्य उत्पादन पर हैं। भारत आज विश्व के 15 अग्रणीय कृषि उत्पादक निर्यातकों में से एक है। यह शोधपत्र भारत में हरित क्रांति युग से पूर्व एवं पश्चात कृषि उत्पादकता का समीक्षात्मक एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन करने का एक प्रयास है। किसी भी अन्य वस्तु की भांति हरित क्रांति भी दोषमुक्त नहीं है। भारत में हरित क्रांति की विफलताओं एवं चुनौतियाँ और उन्हें दूर करने के उपायों को भी दर्शाने का प्रयास किया गया है।
Abstract
प्रस्तावना
‘‘कहीं भी होने वाली खाद्य असुरक्षा, सर्वव्यापी शांति के लिये खतरा है।’’
भारत सदैव से अकाल एवं सूखे का देश रहा है। भारत में ग्यारवहीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य 14 अभिलेखित अकाल हुए है। अंतिम प्रमुख अकाल भारत की स्वतंतत्रता प्राप्ति से ठीक चार वर्ष पूर्व 1943 में बंगाल में हुआ, जिसके उपरांत 1966 में बिहार का अकाल एवं 1970-73 में महाराष्ट्र, 1979-80 में पं. बंगाल, 2013 में महाराष्ट्र में सूखा पड़ा। भारत को स्वतंत्रता तब प्राप्त हुई जब कृषि अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही थी। अत: यह स्वाभावित है कि खाद्य सुरक्षा स्वतंत्र भारत के कार्यसूची में प्रमुख मुद्दा बन गया। खाद्य सुरक्षा से अभिप्राय समस्त व्यक्तियों की हर समय पर्याप्त, सुरक्षित एवं पौष्टिक आहार के प्रति भौतिक एवं आर्थिक पहुँच से हैं जिसके माध्यम से वे एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन निर्वाह के लिये अपनी आहार संबंधी आवश्यकताओं एवं खाद्य प्राथमिकताओं को पूरा कर सकें (वर्ल्ड फूड सम्मिट, 1996)। खाद्य सुरक्षा के तीन स्तंभ हैं- खाद्यान्न की भौतिक उपलब्धता, खाद्यान्न के प्रति सामाजिक एवं आर्थिक पहुँच एवं खाद्य उपभोग।
खाद्य सुरक्षा के प्रति जागरूकता एवं खतरे ने जहाँ एक ओर 70 के दशक के मध्य में हरित क्रांति का जन्म, स्वपर्याप्तता की उपलब्धि एवं खाद्य आधिक्यता प्रदान की वहीं दूसरी ओर सरकार ने व्यापारियों द्वारा स्वयं के लाभार्जन के लिये खाद्य संचय पर रोक लगाने के लिये अधिनियमों द्वारा नकेल लगाने का प्रयास किया। इस प्रकार भारतीय कृषि परंपरागत जीवन निर्वाहक क्रिया से परिवर्तित होकर आधुनिक बहु-आयामीय उद्यम बन गईं। पूर्ण खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिये सरकार ने हरित क्रांति की तकनीकियों का तीव्रता से प्रसार किया। सौभाग्यवश, आज के भारत में इस प्रकार की खाद्य असुरक्षा नहीं है। 1967-68 से 1977-78 के मध्य हरित क्रांति के तीव्रतम प्रसार ने भारत को एक खाद्य अपर्याप्य राष्ट्र से विश्व के प्रमुख कृषि राष्ट्रों में स्थान प्रदान करवाया। भारत उन कुछ राष्ट्रों में से एक हैं जहाँ हरित क्रांति सबसे अधिक सफल रही है। भारत में हरित क्रांति की सफलतम यात्रा के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-
* भारत विश्व के 15 अग्रणीय कृषि उत्पाद निर्यातकों में से एक है। कुछ विशिष्ट उत्पादों जैसे तिलहन, चावल (विशेषकर बासमती चावल), कपास इत्यादि में भारत की निर्यातक क्षमता प्रशंसनीय है।
* भारत का कृषि निर्यात संपूर्ण विश्व के व्यापार का 2.6 प्रतिशत है (डब्ल्यूटीओ, 2012)। कृषि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में कृषि निर्यात 2008-09 में 9.10 प्रतिशत से 2012-13 में 14.10 प्रतिशत हो गये है।
* भारत के कृषि एवं सहायक क्षेत्रों ने सकल घरेलू उत्पाद में 2009-10, 2010-11, 2011-12, 2012-13 एवं 2013-14 में क्रमश: 14.6 प्रतिशत, 14.56 प्रतिशत, 14.4 प्रतिशत, 13.9 प्रतिशत एवं 13.9 प्रतिशत का योगदान दिया है।
* कुल खेतिहर क्षेत्रफल 198.9 मिलियन हेक्टेयर हैं। भारत में कृषि घनत्व 140.5 प्रतिशत है।
* भारत के कृषि उत्पाद निर्यातों में 2011-12 से 2012-13 के मध्य 24 प्रतिशत की बढ़त हुई है।
* कुल निर्यातों में कृषि उत्पाद निर्यात का प्रतिशत 2011-12 में 12.8 प्रतिशत से बढ़कर 2012-13 में 13.1 प्रतिशत हो गया है।
* प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खाद्यान्न उपलब्धता 1951 में 349.9 ग्राम से बढ़कर 2011 में 462.9 ग्राम हो गई है। औद्योगिक क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व प्रगति के बाद भी कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग है। भारतीय कृषि नवीन युग में अनेक क्षेत्रों में विविधिकृत हो गई है जैसे- बागवानी, फूलबानी, मत्स्यपालन, मधुमक्खी पालन इत्यादि।
भारत में कृषि का स्थान एवं महत्ता-
भारतीय कृषि सफलता की एक कहानी है। भारत आज कृषि रूपांतरण के अष्टम चरण में है। भारतीय कृषि के विभिन्न चरणों में विभाजन को लेकर मतैक्य नहीं है। विभिन्न अध्ययनों में विभाजन एवं चरणों की समय सीमा में परिवर्तन है। भारतीय कृषि की संक्षिपत प्रगति यात्रा इस प्रकार है-
सारणी 1 : भारतीय कृषि के विभिन्न चरण | |
चरण | लक्षण |
ब्रिटिश काल से पूर्व (1600 पूर्व) | कृषि मात्र एक आर्थिक क्रिया नहीं थी। यह एक परंपरा थी। कृषि सहायक के रूप में पशुपालन भी मुख्य कार्यों में से एक था। |
ब्रिटिश काल (1600-1947) | कृषि कभी भी पुन: जीवन शैली एवं परंपरा का हिस्सा नहीं बन पायी। कृषि मात्र एक आर्थिक क्रिया बन गई। आधुनिकृत कृषि जीवन साधन के स्थान पर प्रगति साधन बन गई। ब्रिटिश शासकों के राजस्व का स्रोत। |
स्वतंत्रता प्राप्ति चरण (1947-1950) | भारतीय कृषि का सबसे बुरा दौर, भयानक अकाल, निम्नतम उत्पादकता, कृषकों की अति ऋणग्रस्तता, विभाजन के कारण भू-स्वामियों एवं भू-श्रमिकों की बिगड़ती स्थिति। |
नियोजन काल (1950-1951 से 1967-68) | मोटे अनाज (ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का) का भूमि प्रति इकाई बढ़ता उत्पादन (शोध एवं विस्तार सेवाओं का विस्तार) |
हरित क्रांति का प्रारंभिक काल (1968-69 से 1985-86) | कृषि, शोध, विकास एवं अन्य सहायक सेवाओं के माध्यम से गेहूँ एवं चावल के उत्पादन में वृद्धि |
विस्तृत प्रचार काल (1986-87 से 1996-97) | आधुनिक तकनीकियों शोध, विकास, शिक्षा व जागरूकता, सिंचाई में विनियोग, इंफ्रास्ट्रचर, गोदाम, बाजार इत्यादि का विकास। |
सुधार के पश्चात (1997-98 से 2005-06) | रसायनों व श्रम के प्रयोग से उत्पादकता में निरंतर वृद्धि (परंतु वृद्धि दर के विकास में कमी), मक्का, कपास, गन्ना, तिलहन के क्षेत्रों में वृद्धि। |
पुनर्वापसी काल (2006-07 से आज तक) | कृषि व्यवसायीकरण फसल के पैटर्न में विविधिकरण, फलों, सब्जियों, फूलों की खेती पर जोर, निर्यातों में वृद्धि। |
सारिणी-2 भारतीय कृषि कला में परिवर्तन | ||
घटक | 1950 में | आज |
बीज | कृषक खाद्य उत्पादन का निश्चित भाग बीज के रूप में प्रयुक्त करते थे | एचवाईवी बीजों का प्रयोग |
भूपोषक आवश्यकता | एफवाईएम एवं कम्पोस्ट द्वारा | उर्वरक+ एफवाईएम+जैविक उर्वरक |
कीटनाशक | डीडीटी का विस्तृत प्रयोग | इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेज्मेंट का प्रयोग |
पर्यावर्णीय जागरूकता | रसायनों का अनावश्यक एवं अन्यायपूर्ण प्रयोग | मृदा आवश्यकताओं के अनुसार उर्वरकों का प्रयोग |
सूचना तंत्र | कृषकों को कृषि की आधुनिक कलाओं का ज्ञान न होना | सूचना तकनीकी का विस्तृत प्रयोग |
कृषि सहयोगी सेवायें | सरकार पर निर्भरता | निजी क्षेत्रों का बढ़ता महत्व |
श्रमिक | घर के सदस्यों का प्रयोग | किराये का श्रम |
मशीनों का प्रयोग | अत्यंत निम्न प्रयोग | कृषि मशीनीकरण का प्रभुत्व |
उत्पादन | पण्य आधिक्यता का कम होना | अधिकतम पण्य आधिक्यता |
उद्देश्य | पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति | अत्यधिक लाभार्जन |
दृष्टिकोण | जीवन निर्वाहक | व्यापारिक |
सारणी -3- भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में 1950-51 से 2010-11 तक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर (प्रतिशत/ वर्ष) की प्रवृत्ति (1999-00 के मूल्यों पर) | ||||
चरण | समस्त क्षेत्र | कृषि एवं सहायक क्षेत्र | कृषि | गैर कृषि |
हरित क्रांति से पूर्व | 3.71 | 2.00 | 1.97 | 5.42 |
हरित क्रांति काल | 3.72 | 2.38 | 2.63 | 4.62 |
विस्तृत प्रचार काल | 5.52 | 3.57 | 3.58 | 6.40 |
सुधार के पश्चात | 6.01 | 2.08 | 2.04 | 7.23 |
पुर्नवापसी काल | 8.24 | 2.62 | 2.55 | 9.47 |
स्रोत- एचटीटीपी://एमओएसपीआईएनआईसीइन/एमओएसपीआईऋन्यू/अपलोड/एसवाईबी2015/सीएच-8एग्रीकल्चर/एग्रीकल्चर राइटअप.पी.डी.एफ. |
हरित क्रांति तकनीकियों के विस्तृत प्रसार का चरण भारतीय कृषि का श्रेष्ठ चरण है जिसमें भारत के कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद में कुल 3.5 प्रतिशत का योगदान दिया। 1997-98 से इस वृद्धि दर का घटना प्रारंभ हुआ जोकि 2005-06 तक दृष्टिगोचर रहा। यह कमी कृषि क्षेत्र के संसाधनों को अन्य क्षेत्रों में विस्थापित करने के कारण हुई है। इसके बाद भी सुधार काल के समय कृषि क्षेत्र ने पुन: वृद्धिदर प्राप्त करने का प्रयास किया।
भारत में हरित क्रांति
- डॉ. नॉरमन बॉरलाग
‘हरित क्रांति’ इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग डॉ. विलियम गैड ने किया था। परंतु जिस व्यक्ति ने इस शब्द को एक शाब्दिक अर्थ प्रदान किया वह डा. नॉरमन बॉरलाग हैं। उन्हें विश्व में ‘‘हरित क्रांति के जनक’’ के रूप में जाना जाता है। हरित क्रांति से अभिप्राय शोध एवं विकास, तकनीकी स्थान्तरण, एचवाईवी बीजों के प्रयोग, सिंचाई सुविधाओं के विस्तार, प्रबंधकीय तकनीकियों के आधुनिकीकरण, एवं कृषकों को हाइब्रिड बीजों, सिंथेटिक उर्वरकों व कीटनाशकों के वितरण की पहल की श्रृंखला से है। यह श्रृंखला 40 के दशक से 60 के दशक के अंत तक प्रभावी हुई, जिसके माध्यम से विश्व के विशेषकर विकासशील राष्ट्रों की कृषि उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इन तकनीकियों का सर्वप्रथम प्रयोग मैक्सिकों में रोग प्रतिरोधक उच्च प्रजन्न क्षमता के हाइब्रिड बीजों को बनाकर किया गया। इस कारण मैक्सिकों में गेहूँ के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई। 60 के प्रारंभ के अकाल एवं तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव ने भारत सरकार को बॉरलाग को आमंत्रित करने के लिये विवश किया।
एमएस स्वामीनाथन, जिनके सुझावों पर यह आमंत्रण प्रेषित हुआ, को ‘‘भारत में हरित क्रांति के जनक’’ के रूप में जाना जाता है। बॉरलाग समूह ने भारत में आईआर 8 नाम के चावल की बौनी प्रजाति को निर्मित किया, जिससे कि आज भारत विश्व के प्रमुख चावल निर्यातकों में से है। गेहूँ के एचवाईवी बीजों जैसे- के68, मैक्सिकन प्रजाति (लर्मा, रोजो, सोनारा-64, कल्याण एवं पीवी 18) एवं चावल के बीजों की विभिन्न प्रजातियों (टीएन-1, टिनिन-3 इत्यादि) का प्रयोग भी उल्लेखनीय है। 60 के दशक के मध्य से 80 के दशक के मध्य तक हरित क्रांति उत्तर पश्चिम राज्यों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी) से लेकर दक्षिण भारतीय राज्यों तक फैल गई। 80 के दशक के प्रारंभ से ही इस तकनीकी का प्रयोग मध्य भारत एवं पूर्वी राज्यों में भी मंदगति से होने लगा। भारत सरकार ने हरित क्रांति के लिये विभिन्न पहल की। यह सारे घटक अकेले कार्य नहीं कर सकते हैं। हरित क्रांति तकनीकियों की सफलता निम्नलिखित समस्त घटकों के उपयुक्त मिश्रण पर निर्भर करती है-
* ज्वार, बाजरा, मक्के विशेषकर चावल एवं गेंहू के एचवाईवी बीजों के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को पर्याप्त तेजी प्रदान की। यह बीज उर्वरकों के प्रति अधिक सक्रिय, दोहरी फसल में सहायक, अल्प परिपक्वता काल व छोटे तने की फसल (जो उर्वरकों के बोझ को आसानी से संभाल सकते थे एवं हवा से होने वाले खतरों से सुरक्षित थे) की विशेषताओं से परिपूर्ण थे। इसके अतिरिक्त इनकी पत्तियों का वृहद क्षेत्रफल इन्हें फोटोसिन्थेसिस की क्रिया में भी अधिक सहायता प्रदान करता है। भारतीय बीज कार्यक्रम के अंतर्गत बीजों की तीन किस्में हैं : - प्रजनक बीज, आधार बीज एवं प्रमाणित बीज। 2005-06 से 2012-13 के मध्य प्रजनक बीज, आधार बीज एवं प्रमाणित बीज के उत्पादन में क्रमश: 61.51 प्रतिशत, 116.18 प्रतिशत एवं 133.86 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाओं से संरक्षण के लिये 2.27 लाख क्विंटल का बीज बैंक भी रखा गया है।
* भारतीय मानसून अत्यधिक अनिश्चित, अनियमित एवं मौसम आधारित है। एचवाईवी बीजों को सिंचाई एवं उर्वरकों की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है। अत: सिंचाई साधनों के लिये पम्प सेट, ट्यूब वेल, ड्रिप सिंचाई, रेनफेड एरिया डेवलप्मेंट, वाटरशेड डेवलप्मेंट फंड इत्यादि को प्रोत्साहित किया गया। कृत्रिम मानसून, डैम परियोजनाओं द्वारा जल रोकने जैसे उपाय भी उल्लेखनीय है। भारत में खाद्यान्नों का कुल सिंचित क्षेत्र 1970-71 में मात्र 24.1 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 48.3 प्रतिशत हो गया है।
* उर्वरकों की आवश्यकताओं को मृदा की गुणवत्ता एवं आवश्यकताओं, एवं नाइट्रोजन, फास्फेट व पोटाश की उपलब्धता के आधार पर निर्धारित किया गया। 2000-01 से 2012-13 में यूरिया, डी अमोनियम फास्फेट, म्यूरियट ऑफ पोटाश, मिश्रित उर्वरक एवं एनपीके के उपभोग में क्रमश: 56.37 प्रतिशत, 55.57 प्रतिशत, 20.89 प्रतिशत, 57.47 प्रतिशत एवं 52.89 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
* उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण सरकार ने मृदा संरक्षण के लिये विभिन्न प्रयोगशालायें बनवायी। वर्तमान में 1206 मृदा परीक्षण प्रयोगशालायें हैं जिनकी वार्षिक विश्लेषण क्षमता 128.31 लाख नमूनों की है।
* हरित क्रांति को और प्रभावी बनाने के लिये उच्च क्षमता, विश्वसनीय और कम ऊर्जा उपभोग करने वाले उपकरणों एवं मशीनों की आवश्यकता अनुभव हुई। कृषि मशीनीकरण से न केवल उत्पादकता बढ़ी अपितु मानवीय श्रम एवं लागत मूल्य में भी कमी आयी। 2004-05 से 2012-13 के मध्य ट्रैक्टर एवं पावर टिलर्स के विक्रय में क्रमश: 11.23 प्रतिशत व 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
* शोध एवं विकास हरित क्रांति के आधारभूत तत्व हैं। 2007-08 के दौरान 7235 बीजों के नमूने राष्ट्रीय बीज शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र द्वारा लिये गये, जिनमें 2012-13 में 146.14 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
* वित्तीय आवश्यकताओं एवं जोखिम से सुरक्षा के लिये सरकार ने ऋण एवं बीमा की सुविधायें भी प्रदान की है। राष्ट्रीय फसल बीमा कार्यक्रम के दौरान 2012-13 में 319.86 लाख कृषकों का बीमा कराया गया।
* सिंचाई साधनों के लिये ऊर्जा स्रोतों की महत्ता को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण विद्युतीकरण पर जोर दिया जा रहा है। कृषि द्वारा 1950-51 में मात्र 3.9 प्रतिशत ऊर्जा उपभोग किया जा रहा था जो 2009-10 में बढ़कर 20.98 प्रतिशत हो गया। इसके अतिरिक्त ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर (सड़क व यातायात) की भी सुविधाओं को उच्चीकृत किया जा रहा है।
* स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने अनेक भू-सुधारों (मध्यस्थों का उन्मूलन, काश्तकारों के लिये स्वामित्व की व्यवस्था, भू-धारण की सुरक्षा, भूमि की अधिकतम सीमा का निर्धारत इत्यादि) को लागू किया। जमींदारी, महोतवारी व रैयतवाड़ी के उन्मूलन ने एक स्थायी, समान एवं पुर्नगठित काश्तकारी तंत्र का निर्माण किया।
* छोटे, अनउपजाऊ व छितरे हुए भू-खण्डों को एकत्रित करके सरकार ने चकबंदी की व्यवस्था प्रारंभ की।
* अनेक प्रकार के पौध संरक्षण तरीके (कीटनाशकों का प्रयोग, रेगिस्तान में लोकुस्ट नियंत्रण इत्यादि) का भी प्रयोग हुआ। 2012-13 में 7.65 लाख हेक्टेयर भूमि पर पेस्ट नियंत्रण सर्वे किया गया। अब तक कुल 736.01 हजार हेक्टेयर की भूमि का संरक्षण किया गया है।
इसके अतिरिक्त गहन कृषि जिला कार्यक्रम, बहुफसली कार्यक्रम इत्यादि को भी लागू किया गया।
भारत में कृषि उत्पादकता का विश्लेषण
सारणी-4 : भारत में खाद्य उत्पादकता (1950 से 2013-14) | |||||||
वर्ष | क्षेत्रफल | उत्पादन | उत्पादकता | वर्ष | क्षेत्रफल | उत्पादन | उत्पादकता |
1950-51 | 97.32 | 50.82 | 0.522 | 1982-83 | 125.09 | 129.52 | 1.035 |
1951-52 | 96.96 | 51.99 | 0.536 | 1983-84 | 131.16 | 152.37 | 1.162 |
1952-53 | 102.09 | 59.20 | 0.580 | 1984-85 | 126.67 | 145.54 | 1.149 |
1953-54 | 109.07 | 69.82 | 0.640 | 1985-86 | 128.03 | 150.44 | 1.175 |
1954-55 | 107.86 | 68.03 | 0.631 | 1986-87 | 127.20 | 143.42 | 1.128 |
1955-56 | 110.56 | 66.85 | 0.605 | 1987-88 | 119.69 | 140.35 | 1.173 |
1956-57 | 111.14 | 69.86 | 0.629 | 1988-89 | 127.67 | 169.92 | 1.331 |
1957-58 | 109.48 | 64.31 | 0.587 | 1989-90 | 126.77 | 171.04 | 1.349 |
1958-59 | 114.76 | 77.14 | 0.672 | 1990-91 | 127.84 | 176.39 | 1.380 |
1959-60 | 115.82 | 76.67 | 0.662 | 1991-92 | 121.87 | 168.38 | 1.382 |
1960-61 | 115.58 | 82.02 | 0.710 | 1992-93 | 123.15 | 179.48 | 1.457 |
1961-62 | 117.23 | 82.71 | 0.706 | 1993-94 | 112.76 | 184.26 | 1.501 |
1962-63 | 117.84 | 80.15 | 0.680 | 1994-95 | 123.71 | 191.50 | 1.548 |
1963-64 | 117.42 | 80.64 | 0.687 | 1995-96 | 121.01 | 180.42 | 1.491 |
1964-65 | 118.11 | 89.36 | 0.757 | 1996-97 | 123.58 | 199.43 | 1.614 |
1965-66 | 115.10 | 72.35 | 0.629 | 1997-98 | 123.85 | 193.12 | 1.559 |
1966-67 | 115.30 | 74.23 | 0.644 | 1998-99 | 125.16 | 203.61 | 1.627 |
1967-68 | 121.42 | 95.05 | 0.783 | 1999-2000 | 123.11 | 209.80 | 1.704 |
1968-69 | 120.43 | 94.01 | 0.781 | 2000-01 | 121.05 | 196.81 | 1.626 |
1969-70 | 123.57 | 99.50 | 0.805 | 2001-02 | 122.77 | 212.85 | 1.34 |
1970-71 | 124.32 | 108.42 | 0.872 | 2002-03 | 113.87 | 174.78 | 1.535 |
1971-72 | 122.62 | 105.17 | 0.858 | 2003-04 | 123.45 | 213.19 | 1.727 |
1972-73 | 119.28 | 97.03 | 0.813 | 2004-05 | 12.08 | 198.36 | 1.652 |
1973-74 | 126.54 | 104.67 | 0.827 | 2005-06 | 121.60 | 208.59 | 1.715 |
1974-75 | 121.08 | 99.83 | 0.824 | 2006-07 | 123.70 | 217.28 | 1.757 |
1975-76 | 128.18 | 121.03 | 0.944 | 2007-08 | 124.06 | 230.78 | 1.860 |
1976-77 | 124.35 | 111.17 | 0.894 | 2008-09 | 122.83 | 234.47 | 1.909 |
1977-78 | 127.52 | 126.41 | 0.991 | 2009-10 | 121.12 | 218.11 | 1.801 |
1978-79 | 129.01 | 131.90 | 1.022 | 2010-11 | 126.67 | 244.49 | 1.930 |
1979-80 | 125.21 | 109.70 | 0.876 | 2011-12 | 124.76 | 259.32 | 2.079 |
1980-81 | 126.67 | 129.59 | 1.023 | 2012-13 | 120.78 | 257.13 | 2.129 |
1981-82 | 129.14 | 133.30 | 1.032 |
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स्रोत- कृषि मंत्रालय, भारत सरकार। नोट- क्षेत्रफल (मिलियन हेक्टेयर), उत्पादन (मिलियन टन), उत्पादकता (टन/हेक्टेयर) स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1950-51 में उत्पादकता 0.522 टन प्रति हेक्टेयर थी जो 1967-68 में हरित क्रांति के आगमन तक 20.49 प्रतिशत बढ़कर 0.629 टन हेक्टेयर हो गई। हरित क्रांति के प्रारंभिक प्रसार के दौरान 1968-69 से 1985-86 तक यह उत्पादकता 50 प्रतिशत बढ़कर 1.175 टन प्रति हेक्टयर हो गई। इसके पश्चात व्यापक प्रसार के चरण में मात्र अगले 10 वर्षों में कृषि उत्पादकता में 43 प्रतिशत की बढ़त हुई जो अत्यंत सराहनीय है। इसके बाद अगले 9 वर्ष हरित क्रांति युग के सबसे खराब वर्ष थे जिसके दौरान उत्पादकता में मात्र 10 प्रतिशत की बढ़त हुई। उत्पादकता की वृद्धि दर में यह कमी कृषि संसाधनों के अन्य क्षेत्रों में प्रतिस्थान के कारण थी। 2006-07 से 2012-13 के मध्य कृषि क्षेत्र ने पुनर्वापसी करते हुए 21.17 प्रतिशत की उत्पादकता वृद्धि प्राप्त की है। |
हरित क्रांति युग के दौरा विभिन्न प्रकार के फसलों की उत्पादकता का भी विश्लेषण किया गया है। (सारिणी-5)। नियोजन काल से हरित क्रांति आगमन तक सबसे अधिक उत्पादकता गेहूँ की फसल में 47 प्रतिशत की थी। हरित क्रांति के प्रारंभिक दौर में भी गेहूँ की उत्पादकता में 75 प्रतिशत की बढ़त उल्लेखनीय थी। व्यापक प्रसार के दौर में मोटे अनाज में सबसे अधिक 59 प्रतिशत की बढ़त हुई। आर्थिक सुधार के पश्चात समस्त फसलों की उत्पादकता वृद्धि दर में कमी आयी जिसमें सबसे अधिक 34 प्रतिशत गेहूँ की उत्पादकता वृद्धि दर में कमी आयी। पुनर्वापसी के दौरान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दालों का रहा जिसकी उत्पादकता वृद्धि दर में 23 प्रतिशत की बढ़त हुई।
सारणी- 5 : भारतीय कृषि के विभिन्न चरणों के दौरान विभिन्न खाद्यान्नों की उत्पादकता वृद्धि दर | ||||||||
वर्ष | चावल | गेहूँ | मोटा अनाज | दलहन | ||||
उत्पादन | वृद्धि दर | उत्पादन | वृद्धि दर | उत्पादन | वृद्धि दर | उत्पादन | वृद्धि दर | |
1953-54 | 902 | 14.41 | 750 | 47.07 | 506 | 20.16 | 489 | 9.20 |
1967-68 | 1032 | 1103 | 608 | 534 | ||||
1968-69 | 1076 | 44.24 | 1169 | 75.02 | 545 | 21.83 | 490 | 11.63 |
1985-86 | 1552 | 2046 | 664 | 547 | ||||
1986-87 | 1471 | 27.94 | 1916 | 39.82 | 675 | 58.81 | 506 | 25.49 |
1996-97 | 1882 | 2679 | 1072 | 635 | ||||
1997-98 | 1900 | 10.63 | 2485 | 5.39 | 986 | 18.86 | 567 | 5.47 |
2005-06 | 2102 | 2619 | 1172 | 598 | ||||
2006-07 | 2131 | 15.53 | 2708 | 15.10 | 1182 | 36.80 | 612 | 28.92 |
2012-13 | 2462 | 3117 | 1617 | 789 | ||||
स्रोत- कृषि मंत्रालय, भारत सरकार। नोट- उत्पादकता (किग्रा/हेक्टेयर), उत्पादकता वृद्धि दर (प्रतिशत)। |
भारत में हरित क्रांति सीमायें व चुनौतियाँ
सुझाव व उपाय
निष्कर्ष
संदर्भ
प्रीति पंत
असिस्टेंट प्रोफेसर, वाणिजय विभाग, बीएसएनवी पीजी कालेज, लखनऊ-226001, यूपी, भारतpreeteepant@gmail.com
Preeti Pant
Assistant Professor, Deptt. Of Commerce, B.S.N.V.P.G. College, Lucknow-226001, U.P., India, preeteepant@gmail.com
प्राप्त तिथि- 14.05.2015, स्वीकृत तिथि- 07.06.2015