सन् 2004: जयपुर जिले के एक छोटे से गांव लापोड़िया के लिए इस तारीख, इस सन् का मतलब है 4 और 2 यानि 6 साल का अकाल। आसपास के बहुत सारे गांव इस लम्बे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाये मजबूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीका खोजने का प्रयत्न किया है। इस लम्बी यात्रा ने लापोड़िया गांव को लापोड़िया की जमीन में छिपी जड़ों तक पहुँचाया है। इन जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूल कर जमीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है और इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया को अपने पसीने से सींचकर हरा-भरा बनाया है।
कोई भी समाज शून्य में जीवित नहीं रह सकता। उसे अपने लोगों, अपने पशुओं, अपनी जमीन, अपने पेड़ पौधों, अपने कुएं, अपने तालाबों, अपने खेतों के लिए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ती है, जो समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध हो। काल के किसी खंड विशेष में समाज के सभी सदस्यों के साथ मिल-जुलकर जो व्यवस्था बनती है, उसे फिर सभी सदस्य मिल-जुलकर पाल-पोसकर बड़ा करते हैं और मजबूत बनाते हैं। अपने ऊपर खुद लगाया हुआ यह अनुशासन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता है। एक पीढ़ी अपनी उम्र पूरी करे, उससे पहले वैसी ही परिपक्व पीढ़ी फिर सामने आ जाती है, इस धरोहर की रखवाली करने तब समाज का जीवन बिना रुके, अबाध गति से चलता - रहता है।
पिछले दो सौ वर्षों की उथल-पुथल ने समाज को चलाने वाले इन नियमों को, अनुशासन को काफी हद तक तोड़ा था। समाज को जो चीजें टिकाती थीं, संचालित करती थीं, उनकी प्रतिष्ठा को इस दौर ने नष्ट किया। पुरानी व्यवस्थायें टूटीं, लेकिन इनके बदले कोई नई कारगर व्यवस्थायें उनकी जगह नहीं ले पायीं। लापोड़िया कोई अनोखा गांव नहीं था इसीलिए वह भी इस उथल-पुथल के दौर में, इस आंधी के सामने अपने पैर जमाकर खड़ा नहीं रह सका था अन्य दूसरे गांव की तरह वह भी साधनों की गरीबी, लाचारी के आगे माथा झुका चुका था।
अपनी जड़ों को पहचानना
लेकिन आज लापोड़िया का माथा फिर ऊंचा हुआ है। अपनी जड़ों को पहचानने, उनको तलाशने की यह यात्रा बहुत लंबी रही है। लेकिन प्रकृति में कोई भी काम बिना धीरज के फल नहीं देता है। बहुत पहले लापोड़िया गांव टूट चुका था, उसके खेत उजड़ गये थे, उसका गोचर सूख गया था। गोचर पर यहां-वहां कब्जे हो चले थे और उसके दो पुराने तालाब भी पाल टूटने के कारण नष्ट हो गये थे। लापोड़िया के लोगों ने इस बुरे दौर में गांव से 80 किलोमीटर दूर जयपुर जैसे शहर में धीरे-धीरे पलायन कर अपने को बचाने का प्रयत्न किया था। कभी जो परिवार इस पूरे गांव की व्यवस्था संभालता था, इस बुरे समय में उसके सबसे अच्छे सदस्य भी लापोड़िया छोड़कर कहीं और नौकरी करने चले गये थे। इन्हीं में एक थे श्री लक्ष्मण सिंह गांव के ठिकानेदार, ठाकुर परिवार में जन्मे लक्ष्मण सिंह तब भी आदर के साथ 'बनाजी' कहलाते थे। उजड़े गांव के 'बनाजी' भी उखड़कर यहां से दूर चले गये थे।
लेकिन लापोड़िया गांव को 'बनाजी' से कोई बड़ा काम लेना था। इसीलिए बनाजी सन् 1988 में इसी प्रदेश के अलवर जिले में काम प्रारंभ कर रही संस्था तरुण भारत संघ में जा पहुंचे। यहां आने से पहले वे थोड़े समय के लिए भारत सरकार के खेल और युवा मंत्रालय द्वारा चलाये जा रहे नेहरू युवा केन्द्र के कामों से भी जुड़े रहे थे। उस माध्यम से अपने गांव में शायद बिना ज्यादा कुछ सोचे उन्होंने गांव के युवकों को संगठित कर 'ग्राम विकास नवयुवक मंडल' की स्थापना भी कर दी थी। ऐसे नवयुवक मंडलों की कोई कमी नहीं थी और उनसे होने वाला काम भी कुछ नया नहीं कर पाया था। फिर भी सन् 1984 से पहले के दौर में लक्ष्मण जी ने युवकों को संगठित कर श्रमदान के माध्यम से लापोड़िया के अलावा आसपास के 10 गांव में कुछ काम किये थे और कभी स्कूल न जा सकने वाले बच्चों के लिए एक स्कूल भी चलाया था।
तरुण भारत संघ में लक्ष्मण सिंह ने राजेन्द्र सिंह जी के साथ काम करते हुए अकाल से उजड़े गांव में पानी का छोर पकड़कर जीवन की खुशी लाने का रहस्य जानना शुरू किया। लेकिन फिर उनको लगा कि इस रहस्य की बाकी परतें खोलने का प्रयोग उन्हें अपने उजड़े गांव में ही लौटकर करना चाहिए। लापोड़िया के 'बनाजी' यानि लक्ष्मण सिंह वापिस लापोड़िया लौटे। उनके पीछे धीरे-धीरे लापोड़िया का पुराना वैभव भी लौटने लगा वह वैभव जो यहां की कुछ पीढ़ियों की तरह बाहर पलायन कर गया था।
धरती की पूजा
गांव छोड़ने से पहले लक्ष्मण सिंह जी ने गांव के युवकों के लिए खेलकूद के माध्यम से जो साधारण संगठन बनाया था, उसी संगठन को फिर से आधार बनाकर उन्होंने ग्राम सेवा और ग्राम विकास के पिछले छूटे हुए कार्यों को उठाना शुरू किया। 1984 में भी ऐसे कुछ काम शुरू कर के ही वे गांव से बाहर गये थे। इन कामों को करने के लिए कोई पैसा या बजट नहीं था। सार्वजनिक काम की कोई विशेष समझ भी तब नहीं रही होगी। जो काम लोगों ने तब करने बंद कर दिये थे, उन्हीं को धीरे-धीरे फिर से शुरू करने का वातावरण बनाना था। इसमें गांव के पशुओं की सेवा के लिए पीने का पानी जुटाना, खेती करना भी शामिल था। कभी वे गांव के उपेक्षित चौक से सफाई शुरू करते, तो कभी पूरे दिन गांव के इस कोने से उस कोने तक बगरा हुआ गोबर उठाते और फिर उसे रात को खेतों में डालते कचरे को खाद में बदलते थे। इस काम में उनके मित्र श्री रामअवतार कुमावत भी साथ थे। ये दोनों युवक रोज गांव के फूट चुके बड़े तालाब को देखते, लेकिन इसे ठीक कैसे करना है, यह उनकी समझ और क्षमता से बाहर की बात लगती। लेकिन फिर 1982 में एक दिन अचानक इन दोनों ने अपने कुदाल फावड़े उठाये और लग गये बड़े तालाब को ठीक करने कितने बरस लगते उसे ठीक करने में, यह उन्हें नहीं मालूम था। लोगों ने उन्हें रोका और समझाने की कोशिश की कि इस तरीके से कुछ होने नहीं वाला। लेकिन तभी गांव के प्रतिष्ठित पुजारी स्वामी सियाराम जी भी धरती की इस पूजा में शामिल हुए। फिर श्री श्योकरण बैरवा भी साथ हो गये। चारों लोग मिलकर दिन भर मिट्टी खोदते और एक दो पीढ़ी से टूटे पड़े तालाब की पाल पर एक-एक टोकरी मिट्टी डालकर धीरे-धीरे पाल ऊपर उठाने लगे। फिर कुछ दिन बाद इनकी मेहनत और धीरज देखकर लापोड़िया के 15-20 और लोग भी साथ हो गये। एक से दो और अब दो से बीस लोगों के हाथ लगे तो पहली बार इन सबने अपना दिमाग भी लगाया। एक बैठक हुई और इसमें तय किया गया कि यह गांव का काम है, तो पूरे गांव को बुलाना चाहिए।
गांव के घरों की जिम्मेदारी बांटी गयी। सब मिलकर सबका काम करें- ऐसी कड़ी जो टूट गई थी, अब फिर से जुड़ गयी थी। गरमी के दो महीनों में सबने मिलकर बड़े तालाब की टूटी पाल को सुधारा। लेकिन प्रकृति शायद अभी लापोड़िया की परीक्षा लेना चाहती थी।पहली बरसात में ही तालाब फिर टूट गया। लेकिन लापोड़िया में वर्षों बाद उभर रहे संगठन ने धीरज नहीं खोया। लाउडस्पीकर से आवाज देकर पूरे गांव को इकट्ठा किया और मिट्टी से भरी बोरियां डालकर टूटी हुई पाल को किसी तरह संभाल लिया। आने वाले वर्षों में तरुण भारत संघ ने इस बड़े तालाब को ठीक करने में मदद दी और तब दस वर्ष की तपस्या के बाद लापोड़िया को बड़े तालाब का फिर से वरदान मिला तालाब में इतना पानी रुका कि उसके नीचे के खेतों से धीरे-धीरे बहुत से परिवारों को सुधरती खेती से कुछ कहने लायक लाभ भी मिलने लगा। उस समय गांव के 100 बीघा, 100 बीगोड़ी में सिंचाई उपलब्ध होने लगी थी।
छूटे हुए छोर पकड़ना
इसी बीच लक्ष्मण जी ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' पुस्तक पढ़ी। इसे उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी पढ़ाया। सभी को लगा कि इसमें जिन परंपराओं का वर्णन है, वे उनकी अपनी परंपराएं रही हैं। इसलिए उन छूटे हुए छोरों को फिर से अपने गांव में मजबूती से अपनाना चाहिए। बड़े तालाब को सुधारने के बाद फिर गांव में उससे पहले बने दो छोटे तालाबों को भी सुधारने का काम हाथ में लिया। तीनों तालाबों ने यहां होने वाली वर्षा को अपने खजाने में भरना शुरू किया और फिर उसे गांव के कुओं के माध्यम से साल भर तक उपयोग में लाने का रास्ता खोला।
इन तीनों तालाबों ने अपने में पानी समेट कर गांव में सुख बांटने का जो रास्ता खोला था उसके प्रति गांव ने अपना आभार भी जताया। उस पुस्तक में वर्णित तालाबों के नामकरण की परंपरा को सबसे पहले जीवित किया गया। तीनों तालाबों के गुण और स्वभाव को देखते हुए एक सादे और भव्य समारोह में इनका नामकरण किया गया। पहले तालाब का नाम रखा गया देवसागर, दूसरे का नाम फूलसागर और तीसरे का नाम अन्नसागर पहले दो तालाबों से समाज के लिए पानी न लेने का नियम बनाया गया। फूलसागर के आसपास अच्छे पेड़-पौधे जैसे सफेद आंकड़ा, बेलपत्र के पौधे और बगीची आदि लगाई गई। देवसागर की पाल पर छतरी, पनघट पक्षियों के लिए चुगने का स्थान और धर्मशाला आदि स्थापित की गई। तीसरे सबसे बड़े तालाब से गांव की जरूरत के मुताबिक सिंचाई की व्यवस्था फिर से खड़ी की गई। पहले दो तालाबों से अपने लिए नहीं, लेकिन पशु-पक्षियों, पौधों के लिए पानी लेना और अन्नसागर से अपने लिए पानी निकालना तय किया गया। अपने उपकार और परोपकार का एक सुन्दर ढांचा फिर खड़ा हो सका।
गांव में खेती की परिस्थिति कुछ सुधर चली थी, लेकिन किसानी केवल खेती पर नहीं टिकती। पशुपालन उसका एक मजबूत आधार होता है। लापोड़िया का गोचर पूरी तरह से उजड़ चुका था। देखरेख के अभाव में गांव की यह सार्वजनिक भूमि अब किसी की नहीं रही थी। गोचर की घास तो छोड़िये, वहां के पेड़ भी कट चले थे।
गोचर की सुध
गांव की जो सार्वजनिक बुद्धि तालाबों को सुधारने में लगी थी, अब उस बुद्धि ने गोचर को भी सुधारने का निश्चय किया। फिर से छोटी-छोटी बैठकें शुरू हुईं, कुछ मोटे-मोटे निर्णय लिये गये। अब गोचर में कोई कुल्हाड़ी लेकर नहीं जायेगा, घास नहीं खोदी जायेगी। वन्य जीवों को नहीं मारना, उनका पूरा संरक्षण और गोचर में उनके लिए पानी की व्यवस्था और घोंसले और अण्डे देने की जगहों को बचाने का भी निर्णय लिया गया। बड़े तालाब अन्नसागर में तालाब के बीच में बने लाखेटा को भी इन्हीं सब कारणों से सुरक्षित रखने का मन बनाया गया। गोचर के पुराने वैभव को याद किया गया। किसी बुजुर्ग ने बताया कि एक समय में इस गोचर में इतने पेड़ थे कि इन पर इस कोने से उस कोने तक गांव के युवक पेड़ों पर चलने की प्रतियोगिता में भाग लेते थे। घास और उपयोगी पेड़ों से ढके ऐसे गोचर की बात तब फिर से एक नया सपना बनकर सामने आई। लेकिन इसे पूरा करना तालाब के काम से कहीं ज्यादा कठिन था।गोचर को सुधारने का संकल्प था, उसका अनुभव किसी के पास नहीं था। इसीलिए बैठकों में तय हुआ कि इस बारे में जहां कहीं से भी कुछ सीखा जा सकता हो, उसे सीखकर लापोड़िया में उतारना चाहिए।
उन दिनों सरकार के ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में गोचर की कहीं कोई जगह नहीं थी। जो जमीन सार्वजनिक उपयोग की थी अब वह केवल ऐसी सरकारी जमीन मानी जाती थी, जिस पर चाहे जब चाहे जो कोई कब्जा कर ले गोचर को फिर से ठीक किया जा सकता है ऐसा अनुभव कहीं था नहीं, फिर भी - लापोड़िया के नवयुवक आसपास जानकारी बटोरने के लिए घूमते रहे। कंटूर बंडिंग का एक तरीका उन्हें बताया गया। लापोड़िया के लोग कंटूर बंडिंग का काम देखने गए।
अजमेर के पास तिहरी नामक एक गांव में विश्व बैंक जैसी प्रसिद्ध संस्था की मदद से भारी पैसा बहाकर पांच साल तक एक गोचर को बंद रखा गया और यहां पशुओं को नहीं जाने दिया। गांव में खूब तनाव रहा, लड़ाई दंगे हुए और बाद में तो लोगों ने गोचर की सीमा पर सुरक्षा के लिए बनी खाई को पाटकर अपने पशु घुसा दिये थे। सामाजिक इंजीनियरिंग की इन कमियों को फिलहाल भूल भी जायें तो यहां तकनीकी रूप से जो काम किया था, उसे खुद प्रकृति भी याद नहीं रखना चाहती थी। पैसा खूब था, इसीलिए सारा काम धीरज और हाथ के बदले ट्रेक्टर से किया गया था। डेढ़ फुट की ऊंचाई के कंटूर ट्रेक्टर के काम के कारण भीतर से पोले थे। पहली बरसात में ही ये पानी के दाब से दबकर 6 इंच के हो गये और फिर तेज बहता पानी इनको तोड़कर गोचर विकास का सारा काम अपने साथ बहाकर ले गया था।
इसी तरह के एक और काम में गोचर में ट्रेंच या खाई बनाकर नमी लाने का प्रयत्न किया गया था। यहां भी सफलता हाथ नहीं आयी। इसका कारण यह समझ में आया कि बरसात के दौरान खाई में पूरा पानी भर जाता है। ऐसे में उसमें घास नहीं पनप पाती। फिर गर्मी के दिनों में यह पानी तेजी से उड़ने लगता है और खाई की गहराई से जुड़ी भूमि की परतों में समाई जा चुकी नमी भी इस तेज तापमान के दौरान वापस तेजी से सूखने लगती है। यह प्रयोग यदि सफल भी होता, तो लापोड़िया को उसमें कुछ अन्य कमियां भी दिखी थीं। इस काम के लिए काफी समय तक गोचर को बंद करके रखना पड़ता। फिर जो कंटूर बनाये गये थे वे गोचर से आसपास के गांवों से निकलने वाले रास्तों के बीच आते थे। अपना गांव इस रुकावट को स्वीकार भी कर लेता तो दूसरे गांव वाले भला उसे क्यों मानते ? फिर कुछ समय के लिए गोचर बंद करते तो गांव के पशु कहां जाते ?
बरसों की प्यास
ऐसे बहुत से प्रश्नों का उत्तर न बैठकों में मिला और न आसपास देखे गये कामों से मिला। लेकिन लापोड़िया के लोग उजड़े पड़े गोचर के चक्कर लगाते रहे। ऐसे ही किसी चक्कर में श्री लक्ष्मण सिंह को सूझा कि गोचर में बरसने वाले पानी को वहीं के वहीं भीतर डालकर इसकी बरसों पुरानी प्यास बुझानी चाहिए और यह काम कुछ इस ढंग से हो सके कि न पशु रुकें और न रास्ता। गोचर खुला रखा जाये, पानी इस प्रकार से रोका जाये कि गांव का भूमिगत जल भी बढ़े और फिर नमी बढ़ने से गोचर हरा भरा बने।
खेती का अनुभव गोचर में
गोचर की सार संभाल करने की इच्छा रखने वाले इन लोगों के पास अपने खेतों में पानी के प्रबंध का, सिंचाई का, नमी फैलाने का अनुभव तो पीढ़ियों से था। लेकिन गोचर खेत नहीं है। इसमें घास, झाड़ी, पेड़-पौधे पनपाने के लिए अब जो कुछ भी तरीका अपनाना था, वह उनके हाथ में नहीं था। इसका एक कारण तो यह था कि गोचर में इससे पहले ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। उन्हें गोचर पीढ़ियों से हरा भरा मिला था। लेकिन पिछले दौर में यह सब उजड़ गया था, उसमें कोई नई युक्ति लगाये बिना पानी ठहरने वाला नहीं था।
किसानी के अनुभव ने इतना तो बता ही दिया था कि गोचर में पानी को ठहराना जरूरी नहीं है। पानी का संग्रह तालाब में होता है। यहां तो वर्षा के दौरान तुरंत बह जाने वाले पानी को थोड़ी देर के लिए थामना है। पूरा पानी रोक लें तो घास अच्छी नहीं होती। प्रकृति को इतनी नमी भर चाहिए कि वह गोचर भूमि में घास की कोमल जड़ें जमा सके। एक बार घास जम जाये तो उसे बाद की वर्षा में फिर इतना पानी, इतनी नमी चाहिए कि वह सूरज के प्रकाश के साथ इस नमी को जोड़कर घास को और ऊपर उठा सके।
चौका लगा हाथ
गोचर में क्या नहीं करना चाहिए और क्या-क्या करना है। - इन दोनों का पूरा ध्यान रखकर 'बनाजी' ने पहली बार चौका शब्द खोज निकाला। लेकिन जब इस चौका पद्धति को गोचर में उतारा तो चौके की चार भुजाओं में से एक भुजा हटा दी। अब यह चौका एक बड़ी भुजा और दो छोटी भुजाओं का रूप ले बैठा । संभवतः गोचर विकास के इतिहास में यह 'बनाजी' की देन की तरह दर्ज होने लायक घटना घटी थी। इस ढांचे में अब तीन भुजायें और दो कोने थे। लेकिन वर्षा में जब पानी भरेगा तो यह एक लंबी आयत यानि चार कोनों का रूप ले लेगा। इसीलिए नाम चौका ही रहा।
उजड़ चुके गोचर को फिर से ठीक करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ-साथ पूरी सावधानी बरती गयी। ये युवक गांव के बुजुर्ग लोगों के साथ पूरे गोचर में दो-चार बार घूमे। इससे पता चला कि ढाल किस तरफ है, कितना है। फिर देखना था कि सारे गोचर में चौका बन जाने के बाद उनमें से बहने वाला पानी निकल कर किस जगह आयेगा। इस अतिरिक्त पानी को वहां किसी तालाब या नाडी में डालना था। जहां पशु चरें, वहीं पास में पानी चाहिए। यदि पानी दूर हुआ तो दोपहर को पानी पीने दूर जाना पड़ेगा और फिर दुबारा वापसी कठिन होगी।
बुजुर्ग लोगों के साथ गोचर घूमने से ये सब बातें अच्छी तरह से ध्यान आ गई थीं। तब फिर कागज पर एक कच्चा नक्शा बनाया गया। फिर गोचर में काम शुरू करने से पहले इस नक्शे के अनुसार जमीन पर भी निशान लगाये गए। कहां से कितनी मिट्टी उठेगी और कहां कैसे पड़ेगी, इसे देखा परखा गया। खुदाई और पटकाई वाली जगह में कोई पांच फुट का अन्तर छोड़ा, ताकि पटकाई से बनी मेड़ या दीवार पर पानी का दवाब न पड़े और यहां की मिट्टी भी धीरे-धीरे खिसककर खुदाई वाली चौकड़ी में वापस न भर जाय अन्तर और अन्तरा शब्द सभी ने सुना है लेकिन यहां अन्तरा के साथ सन्तरा शब्द भी वापस आया है। अन्तरा चौकड़ी और मेड़ के बीच का अन्तर है और सन्तरा खुदाई की जगहों के बीच छोड़ी गई दूरी को कहते हैं। इसका पूरा ध्यान रखा गया।इतना सब हो जाने के बाद चौके की बारी आयी। इसे बनाने से पहले सबके साथ बातचीत की गई। सबके मन में कागज और जमीन पर खींची रेखाएं, नक्शा ठीक से बसाया गया।
घास से पहले राजनीति पनपी
आज हमारे गांव जिस तरह से टूट चुके हैं, उनमें चौके के माध्यम से पूरे गांव को, किसानों को, पशुपालकों को जोड़ने का काम चुटकी भर में हो जाता, ऐसा मान लेना बहुत भोलापन होगा। इस काम को शुरू करते ही घास पनपने से पहले गांव में गंदी और स्वार्थी राजनीति पनप उठी। पूरे गांव की एकता को तोड़ते हुए कुछ लोग उठ खड़े हुए। उन्होंने चौके का विरोध किया। अफवाह फैल गयी कि संस्था के लोग गोचर पर कब्जा करना चाहते हैं। बचे-खुचे पेड़ों को न काटने का जो संकल्प गांव ने लिया था, उसी पर इन लोगों ने कुल्हाड़ी मार दी। चुने हुए जन प्रतिनिधि, गांव की पंचायत उनके साथ हो गयी। पंचायत ने 16 सितम्बर 1995 को मात्र दो हजार रुपये में पूरे गोचर में कटाई का ठेका उठा दिया। यह भी घोषणा उन्होंने की कि यदि गोचर को सुधारना है, उसका विकास करना है तो यह काम ग्राम पंचायत ही करेगी।
लेकिन सत्य गांव के साथ था, संस्था के साथ था, इसीलिए इस बेहद अप्रिय प्रसंग में लोगों ने सत्य का आग्रह भी जता दिया गोचर में सत्याग्रह शुरू हुआ। ठंड के दिन थे। दिनभर स्त्री-पुरुष पूरे गोचर में घूम-घूम कर उसकी रखवाली करने लगे। लेकिन दिन की रखवाली पर्याप्त नहीं हुई। तब गोचर बचाने वाले लोग ठंड की रात में अपने घरों को छोड़कर रजाई और कंबल लेकर गोचर में सोये भविष्य में पूरा गांव चैन की नींद सो सके, इसके लिए 1995 की ठंड में गोचर के ये रखवाले खुले आकाश के नीचे बैठे रहे और बारी-बारी से पहरा देते रहे। बड़ी उमर के लोगों के साथ युवा, महिलायें और परिवार के छोटे बेटे-बेटियों ने भी अपने दादा, काका, पिता और मां का साथ दिया। फिर पुलिस आयी, कलेक्टर आये, छोटे-बड़े अधिकारी, पटवारी आए। सबने दोनों पक्षों के साथ बैठकर सारी परिस्थिति समझी। गोचर में पेड़ काटने का ठेका निरस्त किया गया। उसके बदले तय हुआ कि गोचर के लिए नुकसानदेह पेड़ विलायती बबूल ही काटा जायेगा।
धरती का अच्छा काम किया तो पुण्य मिला और गोचर बच गया। इस बैठक में निर्णय लिया गया कि गोचर पर से कब्जे भी हटेंगे। पटवारी ज़रीब लेकर इस काम में आगे आये। गांव के नक्शे के आधार पर पूरी नपाई हुई और इसमें न रिश्तों का ध्यान रखा गया और न दोस्ती का लक्ष्मणजी ने पूरे प्रेम के साथ, लेकिन पूरी दृढ़ता से बता दिया था कि दोस्ती सिर्फ गोचर से है, क्योंकि इस गोचर से पूरे गांव की खुशहाली जुड़ी है।
बरसों का कब्जा छुड़ाना आसान काम नहीं होता। जिसका कब्जा हटाया जाता है, उसके मन में बहुत कड़वाहट आ जाती है। इस कड़वाहट को दूर करने के लिए गोचर में ही पूरे गांव का सामूहिक भोज रखा गया पूरी के साथ सीरा, हलवा परोसा गया। गांव के 200 घरों से कोई 400 लोगों ने भोजन किया। सहभोज में परोसे गए मीठे सीरे ने सारी कड़वाहट मिटा दी।
विलायती बबूल हटाने का देसी अभियान
इसी भोज के बाद गोचर से विलायती बबूल हटाने का काम शुरू हुआ। सभी लोग जानते हैं कि गोचर गांव के पशुओं के चरने की जगह है। लेकिन पिछले दौर में गोचर के पेड़ कट गये थे, घास खोद ली गयी थी। फिर इस तरह की गलती को छिपाने के लिए सूखे और उजड़े गोचरों में यहां वहां हरा रंग बिखेरने के लिए, हरियाली दिखाने के लिए कुछ समय पहले विलायती बबूल का रोपण किया गया था। यह लापोड़िया के गोचर में भी आ जमा था। इसमें कोई शक नहीं कि यह जल्दी बढ़ता है, लेकिन कोई भी पशु इसे खाता नहीं है। फिर इसके आसपास कोई दूसरा उपयोगी पौधा भी नहीं पनप पाता। हर मौसम में इसकी फलियां चारों तरफ बिखरती हैं, और विलायती बबूल का साम्राज्य बढ़ता जाता है और पूरे गोचर को अपना गुलाम बना लेता है। इसीलिए इस सामुहिक भोज के बाद विलायती बबूल को पूरे गोचर से हटाने का सुन्दर देसी अभियान भी प्रारंभ हुआ। गांव के लोगों ने पूरे गोचर में घूम कर विलायती बबूल की गिनती की। फिर उस गिनती को गांव के कुल परिवारों में बांटा। कोई छः सौ पेड़-पौधे विलायती बबूल के थे और गांव में 200 परिवार थे। तय किया गया कि प्रति परिवार तीन विलायती बबूल जड़ समेत उखाड़ना है इस पेड़-झाड़ी का जरा-सा हिस्सा भी छूट जाये तो इसे फिर से बढ़ने में देर नहीं लगती। इसलिए बिना देरी किये अगले छः महीने में गोचर से इसे हटाना तय हुआ। जड़ समेत खोदने के बाद जो गड्डे निकले, उनमें इन्हीं परिवारों ने देसी बबूल, बेर, तरह-तरह की उपयोगी घास के बीजों का रोपण किया।
शुरू के दिनों में चौका बनाने के बाद उत्साह में बाहर से पौधे और तरह-तरह की घास के बीज भी लाकर लगाये गये। लेकिन इनके परिणाम बहुत अच्छे नहीं निकले। गोचर में जितना जरूरी था उतना पानी रोका गया था। बाकी अतिरिक्त पानी चौकों को बिना तोड़े आगे बहता रहा था। इसीलिए भले ही बाहर से लाकर बोये गये बीज अंकुरित नहीं हुए, लेकिन बिना बोये बीजों ने तर हुई गोचर की भूमि में अपना सिर उठाकर इसे हरा-भरा करना शुरू कर दिया। वर्षा के दिनों में पूरे गोचर में जैसे पानी चलता, उसके सूखते ही नमी वाली उस जगह पर प्रकृति तरह-तरह की घास से हरे रंग की जाजम, दरी बिछा देती। पिछली कुछ पीढ़ियों ने घास के जो प्रकार खो दिये थे, उनकी स्मृति और बोलियों में घास और झाड़ियों के जो नाम गायब हो गये थे, वे एक-एक कर लापोड़िया के गोचर में लौटने लगे। विलायती बबूल हटा दिया गया, देसी बबूल बोया नहीं गया था, लेकिन नमी मिलते ही पुरानी दबी जड़ों में प्राण आ गये और जगह-जगह उपयोगी घास, पौधे और झाड़ियां बढ़ने लगीं। प्रकृति की स्मृति में यह मिटा नहीं था, इसीलिए फिर लापोड़िया के समाज की स्मृति में भी ये नाम एक-एक करके वापिस आने लगे।
संकल्प का विस्तार
अपने गोचर को सुधारने के इस संकल्प को लापोड़िया ने कर्म में बदला और फिर उसका विस्तार भी किया। आसपास के सभी गांव में युवा मंडल बनाए गये। सभी से सम्पर्क किया गया और गोचर, तालाब, पेड़ पौधों और वन्य जीवों को बचाने के लिए बैठकें की गई, पदयात्राएं निकाली गईं। आस-पड़ौस के गांव से शुरू हुआ यह काम बाद में और आगे बढ़कर 84 गांव में फैल गया। देवउठनी ग्यारस से तालाब और गोचर पूजन का काम प्रारंभ हो जाता है और फिर जगह-जगह ऐसी पदयात्राएं, जन-जागरण के लिए निकल पड़ती हैं। सब का काम सबको साथ लिए बिना सध नहीं सकता। इसलिए गोचर आन्दोलन में हर जगह इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई छूट न जाय आज यदि कोई स्वार्थवश इस काम में शामिल नहीं हो रहा है तो यहां पूरा धीरज रखा गया है। उसे समझाया गया है कि उसका भी हित सार्वजनिक हित से ही जुड़ा हुआ है।
लापोड़िया वापस लौटें। शुरू से ही पूरे गांव को गौचर से जोड़ने की चाल और व्यवस्था बनाई गई। अभी पेड़ नहीं थे, लेकिन छोटी छोटी झाड़ियां मजबूत होने लगी थीं, उन्हें और अधिक सहारा देने के लिए वातावरण बनाया जाना था। इसीलिए इन झाड़ियों की रखवाली के लिए कानून या सख्ती के बदले प्रेम और श्रद्धा का सहारा लिया गया। लापोड़िया गांव के स्त्री-पुरुषों ने इन छोटी-छोटी झाड़ियों को राखी बांधी और इनकी रक्षा का वचन लिया। शायद इन झाड़ियों ने भी मन ही मन लापोड़िया की रक्षा करने का संकल्प ले लिया था।
तभी तो आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया में इतना चारा है, इतना हरा चारा है, पशु इतने प्रसन्न हैं कि यहां अकाल के बीच में भी की दूध बड़ी न सही, लेकिन एक छोटी नदी तो बह ही रही है। आज लापोड़िया में प्रतिदिन 40 केन यानि कोई 1600 लीटर दूध हो रहा है। घर परिवार और बच्चों की जरूरतें पूरी करने के बाद ही दूध की बिक्री की जाती है। जयपुर डेयरी यहां से हर महीने ढाई लाख रुपए का दूध खरीद रही हैं। इस तरह आज लापोड़िया हर वर्ष लगभग 30 लाख रुपए का दूध पैदा कर रहा है और यह दूध गांव में लौटी हरियाली से है।
उजड़े हुए गोचर में आज चौका पद्धति के कारण न जाने कितने तरह की घास और तरह-तरह के पौधे वापिस आये हैं। इन सबकी गोचर में अपनी-अपनी विशेष जगह तय हो रही है। ऐसा लगता है कि प्रकृति इनके स्थान का आरक्षण करती चल रही है। कहीं पसरकटेली है, तो कहीं ऊंटकटेला कहीं खरगोश चूंटी हैं, तो कहीं गंदेल और लापणा तो कहीं झेरणा अब गोचर में लोग प्रवेश करते हैं। तो उत्सुकता के साथ निकल रही हर कोंपल को, पत्ती को, अंकुर को पहचानने की, नाम बताने की या नाम पूछने की कोशिश करते हैं। लापोड़िया का गोचर वनस्पति शास्त्र की एक नई पाठशाला बन गया है। आपस की बातचीत में किसान, पशुपालक और ग्वालों की टोली में नये नामों को पहचानने और खोजने की होड़-सी लग गयी है। कोई बतायेगा कि इस घास का क्या नाम है, तो कोई उसके गुण और लाभ करेगा, तो कोई सबके आगे बढ़कर उस घास के स्वभाव का ऐसा वर्णन करेगा जैसे वह उसके परिवार का सदस्य हो - "गांठ-गठीली घास कूदते चलती है।" यहां अब पुरानी किस्मों के इतने सारे नाम इकट्ठा हो गये हैं कि नये जमाने के नाम जैसे स्टाइलो, धामन और रिजका पीछे छूट जाते हैं।
घास के साथ-साथ फिर लापोड़िया गांव का ध्यान गोचर और गांव में पेड़ों पर गया है। विलायती बबूल पूरे गांव ने मिलकर गोचर से हटा दिया था। अब प्रकृति को थोड़ी राहत मिली थी, इसीलिए गोचर में नमी पाते ही देसी बबूल, राँझ, खेजड़ी, कैर, जाल, जहां जो संभव हुआ धीरे-धीरे पनपने लगा। प्रकृति में तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों की कोई खास जगह नहीं होती। यह धीरज का काम है। इसीलिए लापोड़िया गांव ने अपना धीरज नहीं खोया और जो पेड़ आने लगे थे, उन्हें बचाने और बढ़ने का अवसर देने का वातावरण बनाया। लेकिन इसके लिए पशुओं को रोका नहीं। गांव ने माना कि पशु इस व्यवस्था में शत्रु नहीं हैं। वे मित्र हैं और उनकी मित्रता गोचर को हरा-भरा बनाती है। गाय का गोबर बकरी और खरगोश की मैंगनी अपने में तरह-तरह की घास और पेड़ों के बीज लिये रहती है पशु-पक्षी के पेट की रासायनिक क्रिया इनके कठोर कवच को नरम बनाती है और मँगनी आदि के रूप में इन बीजों के आसपास खाद बांधती है। पूरे गोचर में बिखरी मँगनी चौके में पानी भरने, बहने और फिर यहां-वहां आने-जाने के कारण अपने-अपने भार को देखते हुए तैरती हैं और उचित मौका देखकर ठहर जाती हैं। फिर नमी और धूप इनके अंकुरण में सहायक बनती है
अंश से सम्पूर्ण की वापसी
लापोड़िया में गोचर विकास के इन प्रारंभिक कामों के साथ-साथ लोगों का ध्यान गोचर की पूरी व्यवस्था की ओर भी जाने लगा है। गांव पिछले दौर में जिस परंपरा को, जिस ज्ञान को और जिस अनुशासन को खो बैठा था, भुला बैठा था, अब उसका थोड़ा सा अंश जब वापिस आने लगा, तो उसके सम्पूर्ण रूप, सम्पूर्ण दर्शन की स्मृति भी लौटने लगी है।आज लापोड़िया में पशुओं की संख्या बढ़ी है। पक्षियों की संख्या भी बढ़ी है और उनकी जातियाँ भी इसी तरह वन्य जीवों की भी उपस्थिति दिखने लगी है। मोर, कोयल, पपीहा, खरगोश, नेवला, जंगली बिल्ली, गिलहरी, झामूसा और तरह-तरह के मित्र कीट-पतंगे खेतों और गोचर में सहज मिलने दिखने लगे हैं। गांव में मकानों पर, दीवारों पर पशु-पक्षियों के जो चित्र बनाए जाते थे, आज वे दीवारों से उतर कर गांव में फैल गए हैं।
गांव में अब बेगसा की बात होती है। बेगसा यानि गांव और गोचर के बीच पशुओं के बैठने की, एकत्र होने की या आराम करने की जगह कुछ क्षेत्रों में बेगसा को गोठान भी कहा जाता है, जो संस्कृत शब्द 'गोस्थान' से बना है। राजस्थान के इन क्षेत्रों में वर्षा कम ही होती है, इसीलिए परंपरा से यहां के किसान खेती के साथ-साथ पशुपालन पर पूरा ध्यान देते रहे हैं। पशु उनके लिए सिर्फ कमाई का साधन नहीं थे। ये उनके सांस्कृतिक और दार्शनिक समाज के जीवंत सदस्य थे। इसीलिए इन्हें यहां से वहां हांक कर नहीं ले जाना है। उसकी पूरी व्यवस्था बनायी गयी थी। 'बेगसा' इसी बड़ी व्यवस्था का एक छोटा-सा अंग था।प्रायः हर घर में पशु होते थे, लेकिन उस घर के सदस्य पशुओं के साथ खुद गोचर नहीं जा पाते थे। इस जिम्मेदारी को गांव के ग्वाले निभाते थे। हर मुहल्ले और टोले से गोचर में जाने वाले पशुओं का झुंड धीरे-धीरे निकलता। किसी गली से पांच-दस पशु निकलते तो कहीं से बीस-तीस ये सब गाँव से गोचर के रास्ते में गांव के पास बने 'बेगसा' में बिठा दिये जाते। फिर जब सब ग्वाले अपने-अपने पशुओं के साथ आ जाते, तो फिर सब एक साथ गोचर की तरफ बढ़ते।
लेकिन आज जब गांवों में गोचर ही नहीं बचा है, तो किस गांव में बेगसा या गोठान मिल पायेगा ? कभी लापोड़िया में बेगसा पैंतीस बीघा में थी, लेकिन फिर धीरे-धीरे गोचर उजड़ा और फिर उसी के साथ बेगसा भी पुरानी पीढ़ियों ने गांव के पास ही इतनी बड़ी जगह पशु समाज के आराम के लिए छोड़ी थी लेकिन नई पीढ़ियों को यह कीमती जगह की बर्बादी लगी होगी। इसीलिए इस पर भी कब्जे होते गये। आज जिन पंचायतों के हाथ में गांव के विकास की जिम्मेदारी है, वहां का नेतृत्व इस कीमती जगह को गुमटी, दुकान या हाट-बाजार में बदलने के लिए आतुर है लेकिन लापोड़िया फिर से 'बेगसा' को भी बचाने का मन बना रहा है।
पशु दर्शन का विस्तार
इस पूरी व्यवस्था के विस्तार में जायें, तो समझ में आयेगा कि गांव का हमारा किसान समाज कितना संगठित था। कहीं-कहीं गांव से गोचर का रास्ता बिलकुल अलग रखा जाता था। यह लोगों के पैदल चलने या बैलगाड़ी चलाने वाले रास्तों से दूर रहता था। ऐसे रास्तों को कांकड की गैली कहा जाता था। ग्वाले हर घर से पशु निकालते और फिर गैली से बेगसा होते हुए गोचर जाते। ग्वालों का पारिश्रमिक पशुओं की गिनती के अनुसार प्रायः अनाज में और कभी-कभी पैसे के रूप में भी मिलता था। इस बंधी आमदनी के अलावा साल भर आने वाले तीज-त्योहारों पर किसान परिवार ग्वालों को कपड़ा, छाता, जूते, अपनी-अपनी हैसियत से देते थे। दीपावली पर ग्वालों के नाच का विशेष महत्व था। लक्ष्मी पूजन आज सबको मालूम है, लेकिन उसी दिन गो-पूजन भी होता था। गोधन से ही लक्ष्मी आती थी। दीपावली की सुबह पूरे गांव को जगाने का काम सुरीले गीत गाकर ग्वाले ही करते थे। गांव में इसी दिन या कहीं-कहीं दशहरे के दिन बैलों को सजाया जाता, उनकी दौड़ होती और कहीं-कहीं बैलों की लड़ाई भी। इन कुछ विशेष दिनों में गाय-बैलों को अलग से पकवान भी बनाकर खिलाये जाते थे।
इन्हीं दिनों मौसम बदलता, फसलें कटतीं और खेत खाली हो जाते थे। तब कई ग्रामीण क्षेत्रों में खाली खेत बेलगाड़ियों की दौड़ का मैदान बन जाते। ऐसे आयोजनों से पहले अलसी और गुड़ के लड्डू, गुड़-दलिया और कहीं-कहीं तो घी भी बैलों को पिलाया जाता था। खेतिहर समाज अपनी नींव बैल और गाय को मानता था और इस पर किसानी का पूरा वैभव खड़ा होता था।
लापोड़िया और उसके आसपास के कई गांव में आज भी बैलों के शक्ति प्रदर्शन के खेल होते हैं। यहां कहीं भी चलते-फिरते आपको एक ऐसा बड़ा सजा हुआ पत्थर पड़ा हुआ दिखे तो समझ लें कि यह घांस बाबा है। यह शब्द पत्थर को घसीटने बेंसने से बना है। एक विशेष दिन, प्रायः दीपावली के दूसरे दिन गांव के सब परिवार अपने-अपने बैलों की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठे होते हैं। बैल के पीछे इस पत्थर को बांधा जाता है और वह बैल इसे लेकर कितने दूर जा सकता है इसकी परीक्षा होती है जो बैल सबसे अधिक दूरी तय करता है, उसको पुरस्कार मिलता है और फिर साल भर तक उस बैल की और उसके मालिक परिवार की गांव में विशेष हैसियत बनी रहती है।
कल्पना कीजिये उस ढांचे की, जिसमें खेतिहर समाज अपने पशुओं का इतना अधिक ध्यान रखता था तब आज की तरह दूध का उद्योग नहीं था, डेयरी व्यवस्था नहीं थी, न दूध का संग्रह होता था और न दूध बिकता ही था। दूध की तुक पूत से थी और दोनों को बेचना अच्छा नहीं माना जाता था। तब इन गांवों में दूध की नदियां कैसे बहती थीं, इस बात को आसानी से समझा जा सकता है।l