धान के पौधे की सबसे बड़ी एक विशेषता उसकी विविधता है, जो करोड़ों लोगों के लिये अन्न का स्रोत है। संसार में 12000 धान की किस्में उगाई जाती है। उनमें से पाँच हजार से भी अधिक किस्में मध्य प्रदेश में होती है।
उत्पादन सफलता की कुंजी इन्हीं किस्मों के सुधार में पाई जा सकती है क्योंकि इन किस्मों में वातावरण के अनुकूल सुदृढ़ शस्य आधार मौजूद हैं। इन प्रयासों से कम उत्पादन देने वाली आवश्यक किस्में अपने आप ही समाप्त हो जाती है और उनका स्थान विपुल उत्पादन देने वाली किस्में ले लेती हैं। विदेशी जनन द्रव्य (Exotie blood) वाली किस्मों से स्थानीय देशी किस्मों को बदलने के हमारे सतत प्रयास वर्षों तक सफल नहीं होंगे जब तक कि अपने देश में ही उपलब्ध साधनों जैसे- स्थानीय उर्वरक एवं कीटनाशक दवाइयों का उत्पादन और सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएँ आदि को विकसित न किया जाए और उन्हें स्थानीय तौर पर उपलब्ध न कराया जाए।
यदि हम इस बात पर विचार करें कि चावल उत्पादन के लिये स्थानीय अनुकूल किस्मों के स्थान पर बौनी धान की किस्में, उनके लिये की गई पूर्ण सिफारिशों के साथ लगाते हैं तो क्या स्थिति उत्पन्न होती? जबकि उर्वरक एवं पौध संरक्षण उपायों की कमी है, आसानी से उपलब्ध भी नहीं है और बाजार में उनकी कीमत भी बहुत अधिक है। इसका नतीजा आंशिक एवं पूर्ण रूप से चावल का अभाव हो सकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में यह अभी तक सिद्ध नहीं किया गया है कि विपुल उत्पादक बौनी किस्में बिना उवर्रक दिए भी देशी किस्मों से ज्यादा उत्पादन दे सकती है। इसलिये छत्तीसगढ़ चावल उत्पादक क्षेत्र में सभी दृष्टियों से जहाँ वातावरण अधिकतम परिवर्तनशील देखा जाता है, फिर से बौनी किस्मों को लगाने का आग्रह करना विवेकपूर्ण नहीं होगा।
संवेदनशील बौनी किस्में (susceptible dwarf varieties) जो कि उर्वरक के निम्न स्तर पर रोग एवं कीट आक्रमण के प्रति प्रभावित होती है जिससे कई समस्याएँ निर्माण हो जाती हैं तथा स्थिति और बिगड़ सकती है। यदि इस पर समुचित नियंत्रण नहीं किया गया तो रोग एवं कीड़ों का प्रभाव शीघ्रता से बढ़ेगा और आस-पास में बोई गई धान किस्मों पर भी इनका प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसलिये ऐसी किस्में, जो 40 से 60 किलो ग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर से निम्न एवं उच्च दोनों स्तरों के उर्वरीकरण में रोग एवं कीट निरोधक तथा विपुल उत्पादन देने वाली हो, को बोने के लिये प्रोत्साहित करने का हमारा उद्देश्य होना चाहिए, जिस पर यहाँ जोर दिया गया है।
पैदावार क्षमता
बुनियादी भूमि की उर्वरा शक्ति एवं सामान्य धान के खेती में (उर्वरता का शून्य स्तर) स्थानीय ऊँची अनुकूल देशी किस्में, बौनी किस्मों की अपेक्षाकृत अच्छी पैदावार देती हैं और 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर उर्वरीकरण क्षेत्र में तुलनात्मक स्थानीय अनुकूल देशी किस्में प्रति किलो पोषक तत्व उपयोग पर अधिक पैदावार दे सकती है, यह उपज प्रयोग की गई विभिन्न किस्मों के आधार पर अलग-अलग हो सकती है। इसका विश्लेषण चित्र नं. 1 में दिए गए ग्राफ के द्वारा किया जा सकता है। इसलिये हमारी नीति ''न्यूनतम लागत और अधिकतम उत्पादन'' पर केन्द्रित होना चाहिए। शक्ति संचालन हेतु तेल, उर्वरक, रोग व कीटनाशक दवाइयों के लिये आवश्यक रसायन तत्वों की कर्म की स्थिति में अनुसंधान पर आधारित भावी विकास कार्यक्रम के सफल होने तक चुनी हुई स्थानीय अनुकूल ऊँची धान किस्मों को स्वीकार करना व अपनाना ही वर्तमान समस्या का निदान है, जबकि उपरोक्त चीजें कम मात्रा में अधिक कीमत पर इस समय उपलब्ध होती हैं।
उर्वरकों का मितव्ययी उपयोग
उपलब्ध कम उर्वरक का मितव्ययी उपयोग करने से विस्तृत क्षेत्र में अनुकूल स्थानीय किस्मों की खेती की जा सकती है साथ ही साथ इनके रोग व कीट निरोधक और सूखा सहन करने की शक्ति, होने का भी लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उपलब्ध उर्वरक का विभाजित मात्रा में उपयोग करने से धान का अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। परंतु छत्तीसगढ़ की कृषि दशाओं के अंतर्गत ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि आधारीय (Basal) उर्वरक के न प्रयोग करने से चावल की उपज में कोई कमी नहीं होगी इसलिये आधारीय उर्वरक देना उचित ही होगा।
बरोंडा धान अनुसंधान केन्द्र पर एक किए गए परीक्षण से यह निष्कर्ष निकला कि समान दशाओं में पौध संरक्षण उपाय अपनाएँ बिना 'फलाई पद्धति' के अंतर्गत 40 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के प्रयोग पर दो देशी किस्म सुरमटिया एवं बैकोनी ने बौनी विपुल किस्म सोना एवं रत्ना जिसमें 100 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर दिया गया था, अपेक्षाकृत बियासी पद्धति के अंतर्गत अच्छी अथवा सोना एवं रत्ना के समान पैदावार दी। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रयोग है क्योंकि छत्तीसगढ़ क्षेत्र के 92 प्रतिशत क्षेत्र में बियासी पद्धति अपनाई जाती है और इन दिनों उर्वरक तथा पौध संरक्षण दवाइयाँ कम मात्रा में मिलते हैं अथवा अधिक कीमत पर मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि : -
(1) बौनी किस्में बियासी पद्धति के लिये उपयुक्त नहीं है।
(2) बौनी किस्में पौध संरक्षण उपायों के अभाव में कम उत्पादन देती है।
(3) उर्वरक की कम मात्रा एवं पौध संरक्षण उपाय अपनाए बगैर अनुकूल देशी किस्में बौनी किस्मों के अपेक्षाकृत, जिनके लिये अधिक उर्वरक एवं पौध संरक्षण उपायों की आवश्यकता होती है, अच्छी अथवा बौनी किस्मों के समान पैदावार देती हैं।
संक्षिप्त में उपलब्ध बौनी किस्मों के लिये विस्तार सेवाओं को निम्न तीन मोर्चों का सामना करना होगा :-
(1) वातावरण
(2) उर्वरक की पर्याप्त पूर्ति
(3) पूर्ण पौध संरक्षण उपाय
दूसरी ओर अनुकूल देशी विपुल उत्पादक किस्मों के लिये केवल स्थानीय साधनों के साथ प्रोत्साहन देना आवश्यक है जिससे शुरू में एक टन प्रति हेक्टेयर निश्चित औसत उपज प्राप्त की जा सके। यह भी कहना यहाँ उचित होगा कि हमारी यह सिफारिश उस समय तक के लिये महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिए जब तक कि हमारे सर्वस्रोत हमारे देश में ही भरपूर उपलब्ध न हो जाए। जैसे उर्वरक एवं पौध संरक्षण उपाय और पर्याप्त सिंचाई साधनों की पूर्ति आदि। साथ ही साथ मिट्टी व पानी निकास व्यवस्था (Soil and water management) की ओर भी पूरा ध्यान रखना पड़ेगा।
परिस्थितियों की विविधता
राज्य का कुल चावल उत्पादन प्रत्येक चावल के खेत के उत्पादन का योग है। राज्य में ऐसी बहुत सी विशेष परिस्थतियाँ हैं जिनके अंतर्गत धान के खेतों में उत्पादन बढ़ाने के लिये ध्यान देने योग्य आवश्यक प्रतीत होती हैं जैसे- वर्षाऋतु में बरसात के महीनों में राज्य के कई क्षेत्रों की भूमि धीरे-धीरे 5 से 10 फुट पानी में डूब जाती है और किन्हीं-किन्हीं स्थानों पर तो भूमि जलमग्न रहती है, जबकि कुछ भूमि दलदल का रूप धारण कर लेती है। ऐसी परिस्थितियों के लिये उपयुक्त किस्मों की आवश्यकता है। ऐसे क्षेत्रों के लिये, देश में ही उपलब्ध सात किस्मों से साधारण अनुकूल परीक्षण कर बीज मांग की पूर्ति की जा सकती है, जैसे- आसाम की गहरे पानी वाली एक किस्म एवं दूसरी एक बिहार की किस्म जो अब अनुकूलता धान अनुसंधान केन्द्र पर उपलब्ध है।
राज्य के कुछ निश्चित क्षेत्रों में कुछ धान किस्मों की काश्त में बहुत विशेषताएँ पाई जाती है, जिन पर उन क्षेत्रों के विस्तार कार्यकर्ताओं को ध्यान देना चाहिए। जैसे- एक धान की किस्म जिसे 'जगन्नाथ प्रसाद' के नाम से जानते हैं, 135 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है, धरसींवा विकासखंड के मालोद एवं खुटानेल ग्राम में उगाई जाती है, कभी-कभी यह धान की किस्म सकरी-17 की पैदावार से भी अधिक उपज देती है। इसी प्रकार सरायपाली विकासखंड के कुछ क्षेत्र में दो धान की किस्म 'सरिया' एवं 'कोलिया' के नाम से बहुत ही प्रचलित हैं, ये किस्में छिटकवां पद्धति से बोई जाती है। कुछ बहुत ही कम प्रचलित धान की किस्में कुछ निश्चित वातावरण में अच्छी पैदावार दे रही हैं, जैसे- उदयपुर विकासखंड में 'धनियाफूल', सीतापुर विकासखंड में 'काला कन्हैया', भैयाधान विकासखंड में 'मोतीचूर' (सुगंधित) और ओडगी विकासखंड में 'केतकी-चमेली' (सुगंधित)। ये सब विकासखंड सरगुजा जिले के हैं।
कुछ विकासखंडों में अधिकांश धान की किस्में देर से पकने वाली है। बिलासपुर जिले के लोरमी विकासखंड में देर से पकने वाली किस्में अच्छी पैदावार दे रही हैं और बहुत ही कम किस्में ऐसी हैं जो जल्दी पकती हैं। इस प्रकार के क्षेत्रों में एक नई किस्म की धान 'सी.आर. 1014' व 'वरोंडा कम्पोजिट-6' सफल हो सकती है। कुछ ऐसे विकासखंड हैं जहाँ पर धान उत्पादन अधिकतम प्राप्त होता है तथा कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ धान का उत्पादन कम होना एक नियमित लक्षण सा बन गया है।
इस प्रकार की धान की किस्में जिनमें अच्छा उत्पादन देने की क्षमता है, विकास खंडवार प्रसार करना, निश्चित ही इन क्षेत्रों के लिये उत्पादन बढ़ाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस संबंध में यह भी समझ लेना लाभदायक होगा कि विस्तार सेवकों को अपने अनुभव एवं विचार नेतृत्व के आधार पर अपनी काम करने की भी छूट दी जाए क्योंकि वे गाँव के वातावरण में काम करते हैं और वहाँ के रवैये से पूरा वाकिफ रहते हैं। वैसे तो विभाग की सिफारिशों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता ही है पर इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि सिफारिशें सब वातावरणों के लिये एक सी ध्रुव-सत्य सिद्ध हो सकेंगी।
राज्य में फैले बीज प्रगुणन प्रक्षेत्रों को अनुकूलता धान अनुसंधान केन्द्रों के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है जहाँ पर देशी विपुल उत्पादन देने वाली किस्मों का उन्नत बीज समुचित देखरेख में बढ़ाया जा सकता है एवं वितरण किया जा सकता है। इस प्रकार की विपुल उत्पादन देने वाली किस्में व्यावहारिक रूप से धान उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिनको कि आसानी से पहचाना जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है और उनका प्रसार भी किया जा सकता है। इन किस्मों के पहचानने की जानकारी अब उपलब्ध है।
कृषकों का किस्मों के प्रति लगाव
क्या कारण है कि किसान इतनी ज्यादा धान की किस्मों (पाँच हजार से भी अधिक) के प्रति लगाव रखते हैं और अभी भी वे इन किस्मों की संख्या को और भी बढ़ाते ही रहते हैं। पिछले 25 वर्षों की समयावधि में उनके द्वारा एक भी किस्म छोड़ी नहीं गई है। इन वास्तविकताओं पर हमें पूरा ध्यान देना होगा।
यह कृषकों की सुदृढ़ धारणा ही इसके लिये जवाबदार है क्योंकि इन नई बौनी किस्मों के द्वारा हमारे धान की खेती में अभी तक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं किया जा सका है। ऐसी कृषकों की धारणाओं ने ही उत्पन्न होने वाले धान के संकट से बचाया जबकि नई बौनी किस्मों के लिये उर्वरक एवं पौध संरक्षण उपायों की कमी है।
ये इस प्रकार की प्रतिष्ठित किस्मों को छोड़ नहीं सके जैसे- सिहावा नगरी का दुवराज, बालाघाट का चिन्नौर, ग्वालियर की कालीमूंछ, तिलकस्तूरी, बादशाहभोग, बासमती, तुलसीभोग तथा अन्य अच्छे गुण वाली किस्में। सामान्यत: प्रत्येक विकासखंड में बहुत सी अच्छी सुगंधित धान की किस्में उगाई जाती हैं जो अभी भी उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित हैं और जिनकी बहुत अधिक मांग है। सुप्रसिद्ध एवं स्थानीय मान्यता प्राप्त किस्मों को छोड़ना संभव नहीं है जैसे- चीनी समुंद्र, तुलसीवास, गंधक, मनकी काठी, चमेली एवं इलायची आदि।
बहुत सी किस्में, जिनमें विपुल उत्पादन देने की क्षमता है, पाई जाती हैं जैसे - पंडरीलुचई, क्षत्री एवं सफरी समुदाय की किस्में जो आधारीय भूमि उर्वरा शक्ति में औसतन 3000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पैदावार देती हैं। किसान ऐसी धान की किस्मों की खेती को भी छोड़ना नहीं चाहते हैं जैसे - आसामचुड़ी एवं अन्य चुड़ी ग्रुप की किस्में जो मुख्यत: बस्तर क्षेत्र तक ही सीमित हैं क्योंकि जलवायु वरीयता के आधार पर पसंद हैं और उनमें से कुछ में न गिरने के गुण भी पाए जाते हैं। धान किस्में जैसे- नारियल चूड़ी जो 42 बोरे प्रति एकड़ अथवा 7780 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पैदावार देती हैं। इसी प्रकार नैनाकाजल जल्द पकने वाली किस्म नारियल चूड़ी के समतुल्य उपज देती है।
धान की किस्में जैसे-आलचा, सोंठ, गड्डवन, करहनी और महाराजी अपने औषधि गुणों के कारण स्थानीय प्रचलित हैं और जिसके कारण उनको एक खास दर्जा दिया गया है को छोड़ा नहीं जा सकता है।
मुझे संदेह है कि यह धान चिकित्सा विज्ञान (Rice Therapy) एक पौराणिक कथा (Myth) है अथवा आधुनिक औषधि उपचार की दवा के काम आती है, को अभी देखना है क्योंकि उनके गुणों को आधुनिक वैज्ञानिक नाम देना भी अभी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह वास्तविक है कि उनकी खेती साधारणतया छोड़ी नहीं जा सकती है। जंगली धान (करघा) के उन्मूलन के लिये नागकेसर ग्रुप की किस्में बोना छत्तीसगढ़ में एक पुरानी प्रथा है। इन किस्मों में लगभग 42 किस्में स्थानीय धान की काश्त के अंतर्गत अनुकूल पाई गई हैं यद्यपि ये किस्में पैदावार कम देती हैं, को छोड़ा नहीं जा सकता है क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से पैदावार बढ़ाने में विशेष रूप से सहायक हैं।
कभी-कभी तो कुछ जातियाँ अपना व्यक्तिगत विशेष स्वाद रखने से धान किस्मों में एक विशेष स्थान रखती हैं जैसे- एक धान की किस्म जिसको 'खोवा' के नाम से जानते हैं, इसकी खेती कृषक द्वारा इसलिये ही नहीं की जाती है कि उसने इसे खोज निकाला है, बल्कि पकाने पर उसका स्वाद भी 'खोवा' (मावा) के समान ही लगता है इसीलिये कृषक इसकी खेती के प्रति चिपका रहता है और दूसरों को भी इसके लगाने हेतु प्रोत्साहित करता है।
छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली डोकरा-डोकरी एक ऐसी धान की किस्में हैं जिसके दानों की सबसे अधिक लम्बाई 14 मि.मी. से भी अधिक है जिसने लम्बाई में सबसे अधिक होने का कीर्तिमान स्थापित किया है। इसी प्रकार सबसे अधिक चौड़ाई वाली धान किस्म 'भीमसेन' है यह भी छत्तीसगढ़ में पाई जाती है, अपने कुछ विशेष सार्थक विशेषताओं के कारण बोई जा रही है न कि वैज्ञानिक उत्सुकतावश। ऐसी अनेक उपयोगी किस्में हैं जिन्हें कृषक विभिन्न गुणों के कारण छोड़ना पसंद नहीं करते हैं जैसे कि राजनांदगाँव जिले के मोहला विकासखंड में खेती की जाने वाली 'हरदीगाभ' जो कि रोग एवं कीट की प्रतिरोधक है और गठुवन धान की किस्म माहो की प्रतिरोधक है। जिसका वर्ष 1973 में धान की फसल पर भयंकर आक्रमण हुआ था।
प्रसिद्ध गुरमटिया समूह जिनके अंतर्गत लगभग 52 गुरमटिया टाइप प्रचलित हैं जोकि राज्यभर में स्थानीय जलवायु के बहुत ही अनुकूल पायी जाती है, साधारण जनता एवं श्रमिकों में काफी लोकप्रिय है, आसानी से कई शताब्दियों तक इसको हटाना संभव नहीं है, जब तक कि समान स्वाद वाली उत्तम किस्म विकसित नहीं की जाती है।
कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा यह दावा किया गया है कि पंखे समान बनावट वाली धान किस्मों में प्रोटीन की मात्रा काफी होती है, 9.4 से 11.3 प्रतिशत तक पायी जाती है जोकि गेहूँ में पायी जाने वाली प्रोटीन की प्रतिशत के आस-पास तक पहुँच गयी है। पोषक तत्वों से पूर्ण 'उडन पखेरू' और इसी के समान अन्य किस्में छत्तीसगढ़ क्षेत्र में पायी जाती हैं। हमारे सर्वेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि एक धान किस्म जो बोरा के नाम से प्रचलित है, जिसके चावल को पारम्परिक तरिके से नहीं पकाया जाता है बल्कि इसके चावल के आटे को ठीक उसी प्रकार से काम में लाते हैं जैसे कि गेहूँ के आटे से चपातियाँ बनाना।
छत्तीसगढ़ की धान किस्मों में विभिन्न रंग एवं स्वाद संबंधी बहुत सी दूसरी विशेषताएँ हैं, यदि ये समाप्त हो जाती है तो इस कृषि उद्योग को, जो राष्ट्रीय आय में एक हजार करोड़ रुपयों का वार्षिक सहयोग देता है, बहुत भारी धक्का लगेगा। अब एक ऐसा अवसर प्राप्त हुआ है जबकि अधिक पैदावार के लिये इन किस्मों को जनन आधार पर विकसित कर अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
वहाँ जल्दी पकने वाली ऐसी बहुत सी किस्में हैं जो भूमि की सामान्य उर्वरता पर 25 बोरे प्रति एकड़ अथवा 4631 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी अधिक उपज देती हैं। दो फसली कार्यक्रम अपनाए जाने के अलावा इन किस्मों से चुनाव की गयी विपुल पैदावार देने वाली किस्में एवं उनके लिये निर्धारित किए गए कृषि कार्यमाला की सहायता से उत्पादन काफी बढ़ सकता है।
मध्य प्रदेश की विभिन्न पाँच हजार धान किस्मों के संक्षिप्त विवेचन (Cross Section) से ज्ञात होता है कि यदि उन पर ध्यान दिया जाए और उनका वैज्ञानिक तौर पर अध्ययन किया जाए तथा उन्हें ठीक ढंग से अपनाया जाए तो धान के क्षेत्र में क्रांति लाना कोई दूर नहीं है बशर्ते कि इन प्राथमिक तथ्यों के आधार पर विस्तार से सिफारिशें तैयार की जाएँ तथा विस्तार कार्यकर्ता उनके वातावरण के संदर्भ में अग्रसर हों।
वातावरण एवं धान किस्मों के पकने की अवधि
विपुल धान उत्पादन के लिये रूपरेखा तैयार करते समय इन बातों पर विचार करना आवश्यक होगा जैसे कि- किस्मों की उपयुक्तता, उनकी वानसपतिक वृद्धि के लिये प्रचलित वातावरण तथा जन्मात्मक क्रिया। इन उपयोगी विशेषताओं में 'पकने की अवधि' एक प्रमुख है जो किसी क्षेत्र विशेष के लिये धान किस्म के चुनाव हेतु विशेष महत्त्व रखती है।
मध्य प्रदेश में काश्त की जाने वाली धान किस्मों के पकने के समय में 55 से 170 के बीच अंतर (Variation) पाया जाता है। कुल 5368 संकलित धान की किस्मों में से 423 (7.88 प्रतिशत) किस्में जल्दी पकने वाली हैं (100 दिन अथवा इससे कम) तालिका 1 में वर्णित आठ मुख्य धान उत्पादक जिलों के अविराम वितरण (प्रतिशत आंकड़ें) से बहुत से अर्थ पूर्ण लक्षण (Significant features) प्रकट होते हैं जिनका उपयोग विस्तार कार्य की प्राथमिकता निर्धारित करने में और उपयुक्त विपुल उत्पादन देने वाली किस्मों के चुनाव में किया जा सकता है। धान की कुल किस्मों में से 62.37 प्रतिशत किस्में देर से पकने वाली हैं (131 दिन अथवा इससे अधिक)। इसलिये जिन क्षेत्रों में धान के अंतर्गत 72 प्रतिशत क्षेत्र आता है, देर से पकने वाली किस्मों की सिफारिश पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। जब सिफारिशों को अंतिम रूप देते हैं तो इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि ये निष्कर्ष आगे स्पष्ट करते हैं कि सकरी-17 इस क्षेत्र में इतनी क्यों लोकप्रिय है और उसका अभी भी लगातार विस्तार हो रहा है।
तालिका-1 से स्पष्ट है कि जल्द पकने वाली धान किस्मों का समुदाय आठ जिलों की तुलना में सबसे अधिकतम प्रतिशत 10.95 बस्तर जिले में है। इस क्षेत्र के लिये ऐसी किस्मों के विकास की प्राथमिकता को निरूपित करना ही होगा जबकि बस्तर जिले में सिंचाई लगभग नहीं के बराबर है। धान खेतों की प्राकृतिक दशा की स्थिति में बहुत अंतर होने के कारण जैसा कि हाल ही के साल में परीक्षण किया गया कि जल्दी पकने वाली बौनी किस्में सफल नहीं हो सकती है और ऐसा ही पाया गया है।
तालिका - 1 आठ धान उत्पाकद जिलों में धान किस्मों का विभिन्न पकने की अवधि के साथ अविराम वितरण (Frequency-distribution) [प्रतिशत में प्रदर्शित] | |||||||
अ.क्र. |
विभिन्न समय में पकने वाली किस्मों का विभाजन (दिनों में) |
क्षेत्रफल हेक्टेयर में | |||||
जिले का नाम |
100 और कम |
101 से 115 |
116 से 130 |
131 से 145 |
145 और अधिक | ||
1 |
रायपुर |
5.66 |
6.92 |
22.42 |
21.22 |
43.76 |
753200 |
2 |
बिलासपुर |
4.86 |
14.04 |
29.40 |
31.27 |
20.41 |
363800 |
3 |
बस्तर |
10.95 |
9.02 |