केन्द्रीय विषय वस्तु को छूने से पूर्व, हमारा प्रयास विषय की गहनता व वैश्विक स्वीकार्यता का एक परिचय कराने का रहेगा। कोशिश यह भी रहेगी कि चयनित क्षेत्र की बात करने से पूर्व हम हिमालय, जिसका छोटा सा प्रतिनिधि क्षेत्र है पिथौरागढ़-चम्पावत, के सन्दर्भ में इस विषय वस्तु की झलक देखें।
विगत कुछ दशकों में, खासकर 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के पश्चात, पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास के मुद्दों पर एक व्यापक सोच व सहमति कायम करने में जैव विविधता विषय एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है। इसे क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं के निदान हेतु बनने वाली नीतियों व कार्य योजनाओं में सम्मिलित किया जाने लगा है। परिणाम स्वरूप विश्वव्यापी परामर्श से विकसित सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत जैव विविधता से जुड़े संकेतकों को विकास के संकेतकों से जोड़ा गया। ये सभी तथ्य जैव विविधता की व्यापक भूमिका को दर्शाते हैं।
जैव विविधता-क्रमिक विकास
वर्तमान में मौजूद जैव विविधता लाखों वर्षों के क्रम-विकास का परिणाम है और पृथ्वी की जैविक सम्पूर्णता का द्योतक भी। इस विषय को समझने के दृष्टिकोण में बदलाव आते रहे हैं, परन्तु बहुधा जैव विविधता को जीवों की भिन्नता के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। तथापि इसके आयामों व जटिलताओं को परिभाषा में समाहित किये जाने पर निरन्तर जोर दिया जाता रहा है।
इसी क्रम में विश्व जैव विविधता नीति (1992) में जैव विविधता को संक्षिप्त परन्तु समग्रता के साथ यों परिभाषित किया गया-जैव विविधता किसी क्षेत्र की आनुवंशिक, प्रजातीय तथा पारितंत्रीय विविधता का समुच्चय है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार-जैव विविधता, जीव धारियों एवं उन जटिल पारिस्थितिक तंत्रों की भिन्नता है जिसमें वे पाए जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जैव विविधता को समझने या समझाने के लिये हमें जीवन के विभिन्न स्तरों, आनुवंशिक से पारिस्थितिक का ज्ञान रखना होगा। यदि हम ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो हमें जीवन की जटिलता का अहसास खुद-ब-खुद होने लगता है। जैव विविधता विषय पर ज्ञान बढ़ने के साथ ही अधिकांश लोग अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि यह न केवल सांसारिक वैभव का पर्याय है, वरन सौन्दर्य का अनन्त भण्डार भी है। यहाँ तक कि अब विश्व स्तर पर जैव विविधता को विकास व समृद्धि का इंजन तथा इसमें आने वाले ह्रास को गरीबी व भुखमरी का कारक माना जाने लगा है। मुख्यतः विकासशील देश, जो कि जैव विविधता से समृद्ध हैं, अपने इस भण्डार पर विकास की दौड़ में निरन्तर आगे बढ़ने हेतु आशा लगाए बैठे हैं।
जैव विविधता के अन्तर्गत विभिन्न पादप प्रजातियाँ, जीव जन्तु, सूक्ष्म एक-कोशिकीय जीव इत्यादि सम्मिलित हैं जो जल, थल एवं वायु में निवास करते हैं। जीवधारियों का परस्पर भिन्न, पृथक एवं असमान होने का यह गुण ही जैव विविधता का मूल है। यह एक ऐसा विशाल एवं विलक्षण विषय है जिसके अनेकानेक रूप हैं। विषय विशेषज्ञों का मानना है कि हम जितना इस विषय को जानते हैं उससे कहीं अधिक अभी हमें जानना है। विविधता को तीन स्तरों में समझा जाता है। 1. पारिस्थितिक विविधता, 2. प्रजातीय विविधता, 3. आनुवंशिक विविधता। अतः किसी स्थान विशेष अथवा भौगोलिक क्षेत्र की जैव विविधता की पूर्णता का ज्ञान तभी हो सकेगा जब हम इन तीनों स्तरों को भली-भाँति समझ पाएँगे।
विकास का आधार स्तम्भ
क्रम विकास से अभिप्राय विकास के साथ हुए परिवर्तनों को प्रदर्शित करना है। जीव जातियों के लक्षणों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। हजारों-लाखों वर्षों में यही परिवर्तन एक जाति से नई और अधिक संगठित एवं जटिल जातियों के विकास का कारण बनते हैं। जैसे मानव सभ्यता के आरम्भ में सम्भवतः धान व मक्का की प्रजातियाँ एक जंगली पौधे से अधिक कुछ नहीं रही होंगी। जिसे एक दिन आदिमानव ने खाना आरम्भ कर दिया और सुविधा के लिये इनकी खेती करने लगा। धीरे-धीरे उसने इन पौधों के गुणों व अवगुणों को परखा और चुने हुए बीजों को ही बोने लगा। इन बीजों से बने धान व मक्के की उन्नत नस्ल के पौधों का संकरण कर उसने अनेक उपजातियों को खोज निकाला। यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है।
यह मानने में हमें कदापि संकोच नहीं करना चाहिए कि धरती पर मानव सभ्यता सदैव ही प्रकृति व उसमें उपलब्ध जैव विविधता पर निर्भर रही है। जंगली प्रजातियों की खेती से बनी फसलें ही आज की कृषि का आधार हैं। वन्य स्थानों से एकत्रित आनुवंशिक संसाधनों ने ही वर्तमान मानव सभ्यता को भोजन, चारा, औषधि एवं अनेक उद्योगों के लिये सामग्री मुहैया कराई है।
जैव विविधता मानव स्वास्थ्य तथा समृद्धि हेतु एक सशक्त कारक है। जोहान्सबर्ग (2002) सम्मेलन में इसे समग्र विकास व गरीबी उन्मूलन हेतु महत्त्वपूर्ण कारक तथा पृथ्वी के ऐसे अवयव के रूप में स्वीकारा गया जो मनुष्य की उन्नति व सांस्कृतिक अक्षुण्णता का द्योतक है। दूसरे शब्दों में जैव विविधता का महत्व आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के अतिरिक्त ऐसी सेवाओं के रूप में भी है जो कि मानव जीवन का अवलम्ब हैं और सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सन्तुष्टि देती हैं। यद्यपि इसका मौद्रिक महत्व ज्ञात करना जटिल है तथा इसकी विधियाँ भी विवादों से परे नहीं हैं। तथापि यह कहना उचित ही होगा कि जैव विविधता के बगैर आर्थिक उन्नति अकल्पनीय है। उदाहरणार्थ आनुवंशिक स्तर पर प्राकृतिक रूप से विद्यमान भिन्नता पादप प्रजनन कार्यक्रम का आधार बनती है और परिमार्जित फसलों व अधिक उपज की कृषि का कारक बन अन्न सुरक्षा प्रदान करती है। इसी प्रकार प्राकृतिक वास तथा पारितंत्र ऐसी सेवाएँ देते हैं, जैसे पानी का प्रवाह, भू-क्षरण रोकना जो मानव को प्राकृतिक त्रासदियों से रक्षा के साथ उसके जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।
इन सबके बावजूद वैश्विक जैव विविधता की स्थिति से जुड़े भयावह तथ्य जैव विविधता सन्धि सचिवालय की एक रपट में परिलक्षित होते हैं। इसके अनुसार – पिछले सौ वर्षें में प्रजातियों का विलुप्तीकरण लगभग 1000 गुना बढ़ा है। ज्ञात संख्या से 20 प्रतिशत पक्षी लुप्त हो चुके हैं। लगभग 41 प्रतिशत स्तनधारियों की जनसंख्या घट रही है व 28 प्रतिशत प्रत्यक्षतः खतरे में हैं। अभी हाल तक पृथ्वी की सतह का 47 प्रतिशत वन आच्छादित था। परन्तु आज करीब 25 देशों से ये पूर्णतः समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा 29 राष्ट्रों में लगभग 90 प्रतिशत वन क्षेत्र घट चुका है। कैरेबियन द्वीप में सामान्य ठोस-कोरल क्षेत्र >50 प्रतिशत पिछले तीन दशकों में कम हुआ है। यहाँ तक कि 35 प्रतिशत मैंग्रोव पिछले 20 वर्षों में समाप्त हो चुके हैं।
सतत विकास का अभिप्राय हमारी आज की आवश्यकता की आपूर्ति बिना भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की पूर्ति में बाधक बने प्राप्त हो। यदि इसको वैश्वीकरण की वर्तमान परिस्थितियों में रखा जाय तो सतत विकास आर्थिक, सामाजिक व पारिस्थितिक विकास के स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व विश्व स्तर पर परस्पर निर्भर सम्बन्धों का युग्मन है। विश्व शिखर सम्मेलन (2002) में जल, ऊर्जा, कृषि व जैव विविधता को जीवन की आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है। ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्य’ की प्राप्ति में जैव विविधता के महत्व को वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया गया है। इन लक्ष्यों को विश्व ने ऐसे समय में अंगीकार किया है जबकि आर्थिक विकास, तकनीकी उन्नति व वैज्ञानिक प्रगति की गति अकल्पनीय है। साथ ही ऐसी परिस्थितियाँ बन पड़ी हैं कि मानव आज अपनी जैविक आवश्यकताओं से लगभग 20 प्रतिशत अधिक उपभोग कर रहा है। आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं।
यह बात भी उजागर हो चुकी है कि यदि विश्व में सभी का जीवन स्तर एक आम ब्रिटिश नागरिक की तरह हो जाए तो हमें पृथ्वी से लगभग साढ़े तीन गुना बड़ी पृथ्वी की आवश्यकता पड़ेगी। यदि हम सभी एक आम अमरीकी के समान जैविक संसाधनों का उपयोग करना चाहें तो पृथ्वी का आकार लगभग 5 गुना बढ़ाना पड़ेगा। अतः तय है कि बदलती उपभोगवादी संस्कृति के तहत मनुष्य पृथ्वी की क्षमता से कहीं अधिक इसका उपभोग करने जा रहा है। इससे पारिस्थितिक तंत्र को अपूरणीय क्षति पहुँचनी निश्चित है। अभिप्राय यह है कि मुकाबले की रणनीतियों, यदि कोई हो, में हमें व्यक्तिगत स्तर से लेकर विश्व स्तर तक भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य, खासतौर पर-1, गरीबी उन्मूलन व भुखमरी कम करने के संकल्प को लिये हैं, जो सीधे जैविक संसाधनों के उपयोग से जुड़ा है।
संवेदनशील पर्वतीय पारितंत्र
विगत वर्षों में जैव विविधता के उपयोग व संरक्षण की बन रही विश्व नीतियों के केन्द्र में पर्वतीय पारितंत्र रहे हैं। इन पारितंत्रों की विशेषताओं एवं जीवन सहायक मूल्यों को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है। इनको विकास कार्यक्रमों से अत्यन्त गहनता के साथ जोड़ा जाने लगा है। साथ ही इन पारितंत्रों की भंगुरता व इनकी मानव व जलवायुविक परिवर्तनों के प्रति संवेदनशीलता इन तंत्रों के महत्व को बढ़ाती है।
मानव जीवन के सहायक तंत्र के रूप में एक उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है- विश्व की 80 प्रतिशत भोजन की आवश्यकता पूर्ति हेतु उत्तरदायी 20 पादप प्रजातियों में से 6 की उत्पत्ति पर्वतीय क्षेत्रों में हुई है। इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करते हैं जहाँ पर अत्यन्त संवेदी जैव विविधता घटक जैसे-स्थानिक संकटग्रस्त व बहुमूल्य साथ-साथ रह सकते हैं।
प्रतिनिधित्व, बहुलता व संवेदनशीलता के गुण तथा विस्तृत जीवन सहायक मूल्य के आधार पर हिमालय को राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु प्राथमिक क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है। कंजर्वेशन इंटरनेशनल 2007, की रपट के अनुसार सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र को विश्व में चिन्हित 34 ‘जैव विविधता हॉट स्पॉट’ में स्थान दिया गया है। इस क्षेत्र की जैव विविधता की प्रचुरता व विशिष्टता को तालिका 1 में दर्शाया गया है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में, जो कि सम्पूर्ण हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा बनाता है, जैव विविधता प्रतिनिधित्व का भारत के सापेक्ष विवरण तालिका 2 में दिया गया है। इससे हमें एक अन्दाज मिलता है कि हिमालय क्षेत्र जैव विविधता के दृष्टिकोण से कितना महत्त्वपूर्ण है।
पिथौरागढ़-चम्पावत : एक परिप्रेक्ष्य
हिमालय की जैव विविधता की एक झलक और इसके वैश्विक महत्व को समझने के पश्चात, अब हम कोशिश करते हैं एक प्रतिनिधि क्षेत्र के रूप में पिथौरागढ़ की जैव विविधता के विविध पहलुओं को समझने की। इस क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार, सीमाएँ, जलवायुविक, सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ व अनेक अन्य आवश्यक जानकारियाँ इस अंक के विभिन्न लेखों में दी गई हैं। अतः इन विषयों पर न जाकर हम सीधे यहाँ के जैव विविधता के विविध आयामों को समझने का प्रयास करेंगे।
अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति (पूर्वी व पश्चिमी हिमालय के ‘ट्रांजिशन’ क्षेत्र के कारण लक्षित क्षेत्र का जैव-भौगोलिक महत्व सभी को विदित है। साथ ही अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं (चीन-तिब्बत तथा नेपाल) की अवस्थिति इसे सामरिक व सामाजिक दृष्टिकोण से भी संवेदनशील बना देती है। यह क्षेत्र सुदूर दक्षिण पूर्व के शिवालिक क्षेत्रों की उप उष्ण कटिबन्धीय परिस्थितियों से लेकर उत्तर-पश्चिम की उच्च शिखरीय जलवायु के मध्य अनेक छोटे-बड़े जलवायुविक एवं पारिस्थितिक परिवर्तनों को दर्शाता है। जैव-भौगोलिक दृष्टि से देखा जाय तो यह वास्तव में सम्पूर्ण हिमालय का प्रतिनिधि क्षेत्र बनने का हक रखता है।
विगत कुछ दशकों में, खासकर 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के पश्चात, पर्यावरण संरक्षण व सतत विकास के मुद्दों पर एक व्यापक सोच व सहमति कायम करने में जैव विविधता विषय एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है। इसे क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अथवा अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं के निदान हेतु बनने वाली नीतियों व कार्य योजनाओं में सम्मिलित किया जाने लगा है। परिणाम स्वरूप विश्वव्यापी परामर्श से विकसित सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत जैव विविधता से जुड़े संकेतकों को विकास के संकेतकों से जोड़ा गया। ये सभी तथ्य जैव विविधता की व्यापक भूमिका को दर्शाते हैं।
जैव विविधता-क्रमिक विकास
वर्तमान में मौजूद जैव विविधता लाखों वर्षों के क्रम-विकास का परिणाम है और पृथ्वी की जैविक सम्पूर्णता का द्योतक भी। इस विषय को समझने के दृष्टिकोण में बदलाव आते रहे हैं, परन्तु बहुधा जैव विविधता को जीवों की भिन्नता के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। तथापि इसके आयामों व जटिलताओं को परिभाषा में समाहित किये जाने पर निरन्तर जोर दिया जाता रहा है।
इसी क्रम में विश्व जैव विविधता नीति (1992) में जैव विविधता को संक्षिप्त परन्तु समग्रता के साथ यों परिभाषित किया गया-जैव विविधता किसी क्षेत्र की आनुवंशिक, प्रजातीय तथा पारितंत्रीय विविधता का समुच्चय है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार-जैव विविधता, जीव धारियों एवं उन जटिल पारिस्थितिक तंत्रों की भिन्नता है जिसमें वे पाए जाते हैं। अभिप्राय यह है कि जैव विविधता को समझने या समझाने के लिये हमें जीवन के विभिन्न स्तरों, आनुवंशिक से पारिस्थितिक का ज्ञान रखना होगा। यदि हम ऐसा करने का प्रयास करते हैं तो हमें जीवन की जटिलता का अहसास खुद-ब-खुद होने लगता है। जैव विविधता विषय पर ज्ञान बढ़ने के साथ ही अधिकांश लोग अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि यह न केवल सांसारिक वैभव का पर्याय है, वरन सौन्दर्य का अनन्त भण्डार भी है। यहाँ तक कि अब विश्व स्तर पर जैव विविधता को विकास व समृद्धि का इंजन तथा इसमें आने वाले ह्रास को गरीबी व भुखमरी का कारक माना जाने लगा है। मुख्यतः विकासशील देश, जो कि जैव विविधता से समृद्ध हैं, अपने इस भण्डार पर विकास की दौड़ में निरन्तर आगे बढ़ने हेतु आशा लगाए बैठे हैं।
जैव विविधता के अन्तर्गत विभिन्न पादप प्रजातियाँ, जीव जन्तु, सूक्ष्म एक-कोशिकीय जीव इत्यादि सम्मिलित हैं जो जल, थल एवं वायु में निवास करते हैं। जीवधारियों का परस्पर भिन्न, पृथक एवं असमान होने का यह गुण ही जैव विविधता का मूल है। यह एक ऐसा विशाल एवं विलक्षण विषय है जिसके अनेकानेक रूप हैं। विषय विशेषज्ञों का मानना है कि हम जितना इस विषय को जानते हैं उससे कहीं अधिक अभी हमें जानना है। विविधता को तीन स्तरों में समझा जाता है। 1. पारिस्थितिक विविधता, 2. प्रजातीय विविधता, 3. आनुवंशिक विविधता। अतः किसी स्थान विशेष अथवा भौगोलिक क्षेत्र की जैव विविधता की पूर्णता का ज्ञान तभी हो सकेगा जब हम इन तीनों स्तरों को भली-भाँति समझ पाएँगे।
विकास का आधार स्तम्भ
क्रम विकास से अभिप्राय विकास के साथ हुए परिवर्तनों को प्रदर्शित करना है। जीव जातियों के लक्षणों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। हजारों-लाखों वर्षों में यही परिवर्तन एक जाति से नई और अधिक संगठित एवं जटिल जातियों के विकास का कारण बनते हैं। जैसे मानव सभ्यता के आरम्भ में सम्भवतः धान व मक्का की प्रजातियाँ एक जंगली पौधे से अधिक कुछ नहीं रही होंगी। जिसे एक दिन आदिमानव ने खाना आरम्भ कर दिया और सुविधा के लिये इनकी खेती करने लगा। धीरे-धीरे उसने इन पौधों के गुणों व अवगुणों को परखा और चुने हुए बीजों को ही बोने लगा। इन बीजों से बने धान व मक्के की उन्नत नस्ल के पौधों का संकरण कर उसने अनेक उपजातियों को खोज निकाला। यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है।
यह मानने में हमें कदापि संकोच नहीं करना चाहिए कि धरती पर मानव सभ्यता सदैव ही प्रकृति व उसमें उपलब्ध जैव विविधता पर निर्भर रही है। जंगली प्रजातियों की खेती से बनी फसलें ही आज की कृषि का आधार हैं। वन्य स्थानों से एकत्रित आनुवंशिक संसाधनों ने ही वर्तमान मानव सभ्यता को भोजन, चारा, औषधि एवं अनेक उद्योगों के लिये सामग्री मुहैया कराई है।
जैव विविधता मानव स्वास्थ्य तथा समृद्धि हेतु एक सशक्त कारक है। जोहान्सबर्ग (2002) सम्मेलन में इसे समग्र विकास व गरीबी उन्मूलन हेतु महत्त्वपूर्ण कारक तथा पृथ्वी के ऐसे अवयव के रूप में स्वीकारा गया जो मनुष्य की उन्नति व सांस्कृतिक अक्षुण्णता का द्योतक है। दूसरे शब्दों में जैव विविधता का महत्व आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के अतिरिक्त ऐसी सेवाओं के रूप में भी है जो कि मानव जीवन का अवलम्ब हैं और सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सन्तुष्टि देती हैं। यद्यपि इसका मौद्रिक महत्व ज्ञात करना जटिल है तथा इसकी विधियाँ भी विवादों से परे नहीं हैं। तथापि यह कहना उचित ही होगा कि जैव विविधता के बगैर आर्थिक उन्नति अकल्पनीय है। उदाहरणार्थ आनुवंशिक स्तर पर प्राकृतिक रूप से विद्यमान भिन्नता पादप प्रजनन कार्यक्रम का आधार बनती है और परिमार्जित फसलों व अधिक उपज की कृषि का कारक बन अन्न सुरक्षा प्रदान करती है। इसी प्रकार प्राकृतिक वास तथा पारितंत्र ऐसी सेवाएँ देते हैं, जैसे पानी का प्रवाह, भू-क्षरण रोकना जो मानव को प्राकृतिक त्रासदियों से रक्षा के साथ उसके जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।
इन सबके बावजूद वैश्विक जैव विविधता की स्थिति से जुड़े भयावह तथ्य जैव विविधता सन्धि सचिवालय की एक रपट में परिलक्षित होते हैं। इसके अनुसार – पिछले सौ वर्षें में प्रजातियों का विलुप्तीकरण लगभग 1000 गुना बढ़ा है। ज्ञात संख्या से 20 प्रतिशत पक्षी लुप्त हो चुके हैं। लगभग 41 प्रतिशत स्तनधारियों की जनसंख्या घट रही है व 28 प्रतिशत प्रत्यक्षतः खतरे में हैं। अभी हाल तक पृथ्वी की सतह का 47 प्रतिशत वन आच्छादित था। परन्तु आज करीब 25 देशों से ये पूर्णतः समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा 29 राष्ट्रों में लगभग 90 प्रतिशत वन क्षेत्र घट चुका है। कैरेबियन द्वीप में सामान्य ठोस-कोरल क्षेत्र >50 प्रतिशत पिछले तीन दशकों में कम हुआ है। यहाँ तक कि 35 प्रतिशत मैंग्रोव पिछले 20 वर्षों में समाप्त हो चुके हैं।
सतत विकास का अभिप्राय हमारी आज की आवश्यकता की आपूर्ति बिना भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की पूर्ति में बाधक बने प्राप्त हो। यदि इसको वैश्वीकरण की वर्तमान परिस्थितियों में रखा जाय तो सतत विकास आर्थिक, सामाजिक व पारिस्थितिक विकास के स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व विश्व स्तर पर परस्पर निर्भर सम्बन्धों का युग्मन है। विश्व शिखर सम्मेलन (2002) में जल, ऊर्जा, कृषि व जैव विविधता को जीवन की आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है। ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्य’ की प्राप्ति में जैव विविधता के महत्व को वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया गया है। इन लक्ष्यों को विश्व ने ऐसे समय में अंगीकार किया है जबकि आर्थिक विकास, तकनीकी उन्नति व वैज्ञानिक प्रगति की गति अकल्पनीय है। साथ ही ऐसी परिस्थितियाँ बन पड़ी हैं कि मानव आज अपनी जैविक आवश्यकताओं से लगभग 20 प्रतिशत अधिक उपभोग कर रहा है। आवश्यकताएँ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं।
यह बात भी उजागर हो चुकी है कि यदि विश्व में सभी का जीवन स्तर एक आम ब्रिटिश नागरिक की तरह हो जाए तो हमें पृथ्वी से लगभग साढ़े तीन गुना बड़ी पृथ्वी की आवश्यकता पड़ेगी। यदि हम सभी एक आम अमरीकी के समान जैविक संसाधनों का उपयोग करना चाहें तो पृथ्वी का आकार लगभग 5 गुना बढ़ाना पड़ेगा। अतः तय है कि बदलती उपभोगवादी संस्कृति के तहत मनुष्य पृथ्वी की क्षमता से कहीं अधिक इसका उपभोग करने जा रहा है। इससे पारिस्थितिक तंत्र को अपूरणीय क्षति पहुँचनी निश्चित है। अभिप्राय यह है कि मुकाबले की रणनीतियों, यदि कोई हो, में हमें व्यक्तिगत स्तर से लेकर विश्व स्तर तक भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य, खासतौर पर-1, गरीबी उन्मूलन व भुखमरी कम करने के संकल्प को लिये हैं, जो सीधे जैविक संसाधनों के उपयोग से जुड़ा है।
संवेदनशील पर्वतीय पारितंत्र
विगत वर्षों में जैव विविधता के उपयोग व संरक्षण की बन रही विश्व नीतियों के केन्द्र में पर्वतीय पारितंत्र रहे हैं। इन पारितंत्रों की विशेषताओं एवं जीवन सहायक मूल्यों को विश्व स्तर पर मान्यता मिली है। इनको विकास कार्यक्रमों से अत्यन्त गहनता के साथ जोड़ा जाने लगा है। साथ ही इन पारितंत्रों की भंगुरता व इनकी मानव व जलवायुविक परिवर्तनों के प्रति संवेदनशीलता इन तंत्रों के महत्व को बढ़ाती है।
मानव जीवन के सहायक तंत्र के रूप में एक उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है- विश्व की 80 प्रतिशत भोजन की आवश्यकता पूर्ति हेतु उत्तरदायी 20 पादप प्रजातियों में से 6 की उत्पत्ति पर्वतीय क्षेत्रों में हुई है। इसके अतिरिक्त पर्वतीय क्षेत्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करते हैं जहाँ पर अत्यन्त संवेदी जैव विविधता घटक जैसे-स्थानिक संकटग्रस्त व बहुमूल्य साथ-साथ रह सकते हैं।
प्रतिनिधित्व, बहुलता व संवेदनशीलता के गुण तथा विस्तृत जीवन सहायक मूल्य के आधार पर हिमालय को राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु प्राथमिक क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया है। कंजर्वेशन इंटरनेशनल 2007, की रपट के अनुसार सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र को विश्व में चिन्हित 34 ‘जैव विविधता हॉट स्पॉट’ में स्थान दिया गया है। इस क्षेत्र की जैव विविधता की प्रचुरता व विशिष्टता को तालिका 1 में दर्शाया गया है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में, जो कि सम्पूर्ण हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा बनाता है, जैव विविधता प्रतिनिधित्व का भारत के सापेक्ष विवरण तालिका 2 में दिया गया है। इससे हमें एक अन्दाज मिलता है कि हिमालय क्षेत्र जैव विविधता के दृष्टिकोण से कितना महत्त्वपूर्ण है।
पिथौरागढ़-चम्पावत : एक परिप्रेक्ष्य
हिमालय की जैव विविधता की एक झलक और इसके वैश्विक महत्व को समझने के पश्चात, अब हम कोशिश करते हैं एक प्रतिनिधि क्षेत्र के रूप में पिथौरागढ़ की जैव विविधता के विविध पहलुओं को समझने की। इस क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार, सीमाएँ, जलवायुविक, सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ व अनेक अन्य आवश्यक जानकारियाँ इस अंक के विभिन्न लेखों में दी गई हैं। अतः इन विषयों पर न जाकर हम सीधे यहाँ के जैव विविधता के विविध आयामों को समझने का प्रयास करेंगे।
अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति (पूर्वी व पश्चिमी हिमालय के ‘ट्रांजिशन’ क्षेत्र के कारण लक्षित क्षेत्र का जैव-भौगोलिक महत्व सभी को विदित है। साथ ही अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं (चीन-तिब्बत तथा नेपाल) की अवस्थिति इसे सामरिक व सामाजिक दृष्टिकोण से भी संवेदनशील बना देती है। यह क्षेत्र सुदूर दक्षिण पूर्व के शिवालिक क्षेत्रों की उप उष्ण कटिबन्धीय परिस्थितियों से लेकर उत्तर-पश्चिम की उच्च शिखरीय जलवायु के मध्य अनेक छोटे-बड़े जलवायुविक एवं पारिस्थितिक परिवर्तनों को दर्शाता है। जैव-भौगोलिक दृष्टि से देखा जाय तो यह वास्तव में सम्पूर्ण हिमालय का प्रतिनिधि क्षेत्र बनने का हक रखता है।
तालिका – 1 : हिमालय में जैव विविधता – प्रचुरता व स्थानिकता | |||
समूह (Group) |
प्रजातियाँ (Species) |
स्थानिक प्रजातियाँ (Endemic species) |
स्थानिकता (Endemism) |
पादप |
10,000 |
3,160 |
31.6 |
स्तनधारी |
300 |
12 |
4.0 |
पक्षी |
977 |
15 |
1.5 |
सरीसृप |
176 |
48 |
27.3 |
उभयचर |
105 |
42 |
40.0 |
शुद्ध जल की मछलियाँ |
269 |
33 |
12.3 |
स्रोत : कंजर्वेशन इण्टरनेशनल 2007 : (http://www.biodiversityhotspots.org) |
तालिका 2 : भारतीय हिमालय में वानस्पतिक विविधता का भारत सापेक्ष प्रतिनिधित्व | |||
स्तर |
प्रतिनिधित्व |
स्रोत | |
कुल संख्या |
भारत का प्रतिशत | ||
इकोरीजन (Ecoregions) |
16 |
- |
यूएनडीपी-डब्लू.डब्लू.एफ. (1998) |
समुदाय (Communities) |
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