जलवायु परिवर्तन (Climate Change)

12 Apr 2018
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जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन


जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तनजलवायु परिवर्तन ऐसे दो शब्द हैं, जिनके बारे में आप इन दिनों अक्सर सुन रहे होंगे। आखिर इस विषय पर इतनी चर्चा क्यों हो रही है? यह कुछ ऐसा विषय नहीं है जिसके लिये मौसम वैज्ञानिकों को चिन्ता करनी चाहिए? यह किस प्रकार से हमारे और आपके लिये चिन्ता का विषय है? हाँ! इसी बारे में हम मिलकर पता लगाएगे। यह पुस्तिका इसमें हमारी सहायता करेगी। आइए हम इनमें से प्रत्येक शब्द को समझते हुए आरम्भ करते हैं।

जलवायु क्या है?

एक कहावत के अनुसार जलवायु वह है जिसकी आप उम्मीद करते हैं; मौसम वह है जो कि हमें मिलता है। हम प्रायः ‘जलवायु’ एवं ‘मौसम’ शब्द में अन्तर नहीं कर पाते हैं। मौसम वह है जो रोज रात को टीवी पर दर्शाया जाता है जैसे विभिन्न स्थानों पर अधिकतम एवं न्यूनतम तापमान, बादलों एवं वायु की स्थिति, वर्षा का पूर्वानुमान, आर्द्रता आदि। निर्धारित समय पर किसी स्थान पर बाह्य वातावरणीय परिस्थितियों में होने वाला परिवर्तन, मौसम कहलाता है।

जलवायु शब्द किसी स्थान पर पिछले कई वर्षों के अन्तराल में वहाँ की मौसम की स्थिति को बताता है।
जलवायु वैज्ञानिक, किसी स्थान विशेष की जलवायु का पता लगाने के लिये कम-से-कम 30 वर्षों के मौसम की जानकारी को आवश्यक मानते हैं। जलवायु से हमें कोई स्थान कैसा है यह पता चलता है। उदाहरण के लिये, अहमदाबाद एवं दिल्ली की जलवायु सामान्यतः शुष्क है; इसके विपरीत मुम्बई एवं विशाखापत्तनम में जलवायु आर्द्र है; बंगलुरु एवं पुणे की जलवायु सुहावनी है, जबकि कोच्चि में मुख्यतः वर्षायुक्त जलवायुवीय परिस्थितियाँ हैं।

निम्न बिन्दुओं में क्या समानता है?

1. न्यूजीलैंड के वातानुकूलित सुपर बाजार से आयातित सेबों को खरीदना

2. जुलाई 2005 में मुम्बई शहर में 24 घंटे में 944 मिमी. वर्षा का होना।

3. महंगे उत्पादों का आकर्षक प्रचार-प्रसार।

4. वर्ष 2005 की गर्मियों में यूरोप में चली लू के कारण 20,000 से भी अधिक लोगों की मृत्यु।

5. ज्यादा-से-ज्यादा लोगों का मलेरिया या डेंगू जैसी बीमारियों से प्रभावित होना।

ये सभी बिन्दु किसी न किसी तरह से जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित हैं।

क्या है परिवर्तन?
जलवायु का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक अभी भी इस तर्क-वितर्क में उलझे हैं कि पृथ्वी किस दर से गर्म हो रही है तथा यह कितनी अधिक गर्म होगी। परन्तु वे इस बात से सहमत हैं कि वास्तव में पृथ्वी गर्म हो रही है।

उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि आज विश्व पिछले 2000 वर्षों के किसी भी समय की अपेक्षा ज्यादा गर्म है। 20वीं शताब्दी के दौरान वैश्विक तापमान लगभग 0.60C तक बढ़ा है।

मौसम में परिवर्तन थोड़े समय में ही हो सकते हैं। एक घंटे के लिये बरसात हो सकती है और इसके बाद तेज धूप भी निकल सकती है। जलवायु में भी परिवर्तन हो सकता है। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक है एवं पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन होता रहा है। अतीत के हिमयुग इस जलवायु परिवर्तन का ही एक उदाहरण हैं। अतीत में ऐसे परिवर्तन होने में बहुत लम्बा समय लगा, परन्तु वर्तमान में परिवर्तनों का दर काफी तेज है और इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप पृथ्वी तेजी से गर्म हो रही है।

क्या मानव जलवायु में परिवर्तन ला सकते हैं?
एक समय में सभी जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक हुआ करते थे। लगभग 220 वर्षों पहले औद्योगिक क्रान्ति आई जिसके फलस्वरूप मशीनों द्वारा भारी मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन किया जाने लगा। मशीनों को चलाने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसके लिये ज्यादातर ऊर्जा कोयले एवं तेल जैसे ईंधनों से प्राप्त होती है जिन्हें ‘जीवाश्म ईंधन’ कहते हैं। जब इन जीवाश्म ईंधनों को जलाया जाता है तब कार्बन डाइऑक्साइड वायु उत्सर्जित होती है। औद्योगिकीकरण के साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, ओजोन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी वायुओं का उत्सर्जन भी बढ़ा है। इन वायुओं को ‘ग्रीनहाउस वायु’ (गैस) कहते हैं। पिछले 200 वर्षों के दौरान हमारी गतिविधियों के कारण वायुमण्डल में ग्रीनहाउस वायुओं की विशाल मात्रा उत्सर्जित हुई है। अब यह सुस्पष्ट है कि आज के समय में मानव ही जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी है।

ग्रीनहाउस गैसों एवं जलवायु परिवर्तन में क्या सम्बन्ध है?
जैसे कि हम जानते हैं, पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन सम्भव है। पृथ्वी की सतह पर अनुकूल तापमान का होना ही जीवन की उपस्थिति का एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं पृथ्वी का औसत सतही तापमान 14.40C है। शुक्र ग्रह का औसत सतही तापमान 4490C तथा मंगल ग्रह का -550C है। ये हमारे सबसे नजदीकी पड़ोसी ग्रह हैं।वायुमण्डल में ग्रीनहाउस वायुओं की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी का तापमान जीवन के लिये अनुकूल है। ये वायु सूर्य के प्रकाश से निकली कुछ ऊष्मा को अवशोषित करती हैं एवं इन्हें पृथ्वी की सतह के करीब रोक कर रखती हैं। यह प्राकृतिक प्रक्रिया ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहलाती हैं। ग्रीनहाउस वायुओं के बिना पृथ्वी पर, दिन झुलसा देने वाले गर्म व रातें जमा देने वाली सर्द होतीं।

परन्तु ग्रीन हाउस वायुओं की बहुत अधिक मात्रा भी समस्या पैदा कर सकती है। जैसे-जैसे इनकी मात्रा बढ़ने लगती है, पृथ्वी की सतह पर ऊष्मा की मात्रा में भी वृद्धि होने लगती है जिसके परिणामस्वरूप ‘ग्लोबल वार्मिंग’ होती है। पृथ्वी के इस प्रकार गर्म होने के कारण जलवायु में परिवर्तन होता है।

उदाहरण के लिये, वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि हम इसी दर से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते रहे तो इस वायु का स्तर औद्योगिक क्रान्ति से पहले की अपेक्षा दोगुना हो जाएगा। इसके फलस्वरूप वर्ष 2050 तक पृथ्वी का औसत तापमान 5.80C तक बढ़ जाएगा। हालांकि यह वृद्धि सुनने में कम लग सकती है, परन्तु इसके परिणाम विश्वव्यापी होंगे।

हिमनद या बर्फ की चादरें लाखों वर्षों के हिमपात के बिना पिघले लगातार एकत्र होने से बनीं, जिनमें जलवायु से जुड़े कई संकेत छिपे हैं। पुरातात्विक जलवायु वैज्ञानिक (अतीत की जलवायु का अध्ययन करने वाले) इन हिमनदों में कैद हुए वायु के बुलबुलों एवं धूल के कणों का विश्लेषण करके अतीत की जलवायु प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

जीवाश्म ईंधनों के जलने, मानवों एवं जीव-जन्तुओं द्वारा साँस लेने तथा पेड़-पौधों के अपघटन के परिणामस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड वायु उत्पन्न होती है। लकड़ी जलाने से भी वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड वायु का उत्सर्जन होता है।

तपती कारें!

छात्रों से पूछें कि क्या उन्होंने कभी सोचा है कि चिलचिलाती दोपहर में खुले स्थान पर कार को पार्क करने पर उसके अन्दर असहनीय गर्मी क्यों बढ़ जाती है? सूर्य की किरणें कार की बन्द खिड़की में लगे शीशे से पार होते हुए अन्दर की वायु को गर्म करती है। कार के शीशे की खिड़कियाँ सूर्य की किरणों को तो आने देती हैं परन्तु ऊष्मा को बाहर जाने से रोकती हैं। यही कारण है कि कार के अन्दर का तापमान बढ़ जाता है जो कि बाहर के तापमान की अपेक्षा ज्यादा होता है।

पृथ्वी पर सबसे अधिक पाये जाने वाले तत्वों में से कार्बन चौथे क्रम पर है। यह मानव शरीर के साथ-साथ समस्त जीवों में पाया जाता है। जहाँ भी जीवन है, कार्बन उसका रासायनिक आधार है।

गर्म, बहुत गर्म!

सामग्रीः बेल जार (Bell Jar) थर्मामीटर।

छात्रों से धूप वाले खुले स्थान पर पेपर कप को उल्टा करके रखने के लिये कहें। फिर इसके ऊपर एक थर्मामीटर रखें। उन्हें 20 मिनट के पश्चात थर्मामीटर के तापमान को नोट करने के लिये कहें।

अब उन्हें कप के ऊपर बेल जार रखने के लिये कहें। इसके बाद उन्हें फिर से 20 मिनट के पश्चात बेल जार के नीचे रखे थर्मामीटर के तापमान को नोट करने के लिये कहें।

बेल जार में रिकार्ड किया गया तापमान बढ़ गया है। तापमान में हुए इस परिवर्तन का मुख्य कारण बेल जार में कैद हुई ऊष्मा है। बेल जार के कांच ने ऊष्मा को रोक लिया। ग्रीनहाउस में यही होता है।

पृथ्वी के चारों ओर ऊष्मा को कैद करने के लिये शीशे की ऐसी कोई चादर नहीं होती है, परन्तु वायुमण्डलीय गैसों में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसें ऊष्मा को अवशोषित करती हैं तथा बेल जार के शीशेे की ही भाँति पृथ्वी की सतह पर ऊष्मा को रोक लेती हैं। अतः इस प्रकार से उत्पन्न हुई गर्मी को ही ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहते हैं।

कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) एवं जलवायु परिवर्तन
CO2 एक प्रदूषक एवं वायुमण्डल का प्राकृतिक भाग दोनों ही है। वर्तमान में वायु में प्रति लाख अणुओं में से 380 अणु CO2 के हैं (380 ppm)। इसके उत्सर्जन की मात्रा प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। औद्योगिक क्रान्ति से पहले CO2 की मात्रा 270-280 पीपीएम थी।

वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग के लिये मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न ग्रीनहाउस गैसों में से 55 प्रतिशत से भी अधिक के लिये CO2 उत्तरदायी है। CO2 के अणुओं का जीवनकाल लम्बा होता है एवं ये वायुमण्डल में लगभग 200 वर्षों तक रहते हैं।

वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों के एकत्र होने से पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहलाता है। ‘जलवायु परिवर्तन’ एक विस्तृत शब्द है जो कि जलवायु में लम्बे समय के लिये होने वाले परिवर्तनों को इंगित करता है। इसके अन्तर्गत औसत तापमान एवं वर्षा भी सम्मिलित है। 20वीं सदी में 1990 का दशक सबसे अधिक गर्म था। 1998 सबसे ज्यादा गर्म वर्ष था। 2002 दूसरा सर्वाधिक गर्म वर्ष था।

वह हिमनद, जहाँ से एडमण्ड हिलेरी एवं तेनजिंग नॉर्गे ने 1953 में माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई आरम्भ की थी, पिछले 50 वर्षों के दौरान 4.8 किमी. तक पिघल चुका है।

‘गर्म’ कितना गर्म है?
प्रत्येक गर्मियों में हम सभी ने कुछ ‘बहुत गर्म’ दिनों का अनुभव किया होगा। यह किसी को 2-3 दिनों के लिये बुखार होने जैसा ही है। परन्तु यदि यह बुखार कम न हो रहा हो और बहुत दिनों या हफ्तों तक लगातार बना रहे तो यह चिन्ता का विषय है। ठीक इसी प्रकार से यदि काफी लम्बे समय तक पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता रहे, चाहे वह सूक्ष्म मात्रा में ही क्यों न हो, तो उसका प्रभाव हमें महसूस होगा।

विश्व में बढ़ती गर्मी का क्या प्रभाव होगा?
तापमान में एक छोटे से परिवर्तन से भी बड़ा प्रभाव हो सकता है। जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन लाने से कहीं अधिक परिवर्तन लाएगा। पृथ्वी पर जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव पड़ेगा।

1. प्रतिकूल मौसम
चक्रवात, तूफान एवं बाढ़ की समस्याएँ बढ़ जाएँगी। अधिकतर स्थान बहुत गर्म; कुछ स्थान सूखाग्रस्त; जबकि अन्य अत्यधिक वर्षा से प्रभावित हो जाएँगे। हम सभी काफी उग्र मौसमीय घटनाओं का अनुभव करेंगे जैसे कि लू, सूखा, बाढ़ (अधिक वर्षा एवं हिमनदों के पिघलने के कारण) एवं तीव्र तूफानी हवाएँ इत्यादि।

2. घटते हिमनद, पिघलती समुद्री बर्फ
हिमनद एवं बर्फीली चोटियाँ जलवायु परिवर्तन के संवेदनशील सूचक हैं। पर्वतीय हिमनद पहले से ही सिकुड़ रहे हैं। आर्कटिक की समुद्री बर्फ, विशेष रूप से पिछली कुछ गर्मियों से, काफी पतली होती जा रही है। अगस्त 2000 में उत्तरी ध्रुव पर बिलकुल बर्फ नहीं थी बल्कि सिर्फ पानी-ही-पानी था।

पिघलती बर्फ का प्रभाव क्या एक जैसा है?

ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न प्रभावों में से एक, ध्रुवीय बर्फ एवं पर्वतों के हिमनदों का पिघलना है। क्या होगा जब बर्फ पिघलेगी? क्या होगा जब पानी पर तैरती बर्फ पिघलेगी?

पिघलती बर्फ

क्या पिघलती बर्फ का प्रभाव सभी स्थानों पर एक समान होगा?

सामग्रीः बर्फ के टुकड़े, गिलास, पानी, स्याही या नील।

छात्रों से एक गिलास लेने के लिये कहें। इसे एक सूखे समतल स्थान पर रखें। इसमें बर्फ के टुकड़े तब तक डालें जब तक कि गिलास ऊपर तक न भर जाये। गिलास को रंगीन पानी से (स्याही या नील की बूँदों से) पूर्णतया भर दें। यह ध्यान रखें कि पानी बाहर न गिरे।

आपके अनुसार कुछ समय के पश्चात क्या होगा? क्या बर्फ के टुकड़े पिघल जाएँगे और पानी गिलास से छलक जाएगा?

पूरी बर्फ पिघलने तक गिलास का निरीक्षण करें। गिलास के बाहर कुछ मात्रा में संघनित जल अवश्य दिखाई देता है परन्तु गिलास से रंगीन पानी बाहर नहीं गिरता है।

बर्फ पिघल कर गिलास में ही रहती है। एक पहले से भरे हुए गिलास में पिघली हुई बर्फ कैसे समा गई? जल का एक अनोखा गुण यह है कि जब वह घन अवस्था (बर्फ) से द्रव अवस्था (जल) में परिवर्तित होती है तब वह सिकुड़ती है इसलिये द्रव अवस्था में जल कम स्थान घेरता है। यही कारण है कि जब पानी जमता है तो वह फैलता है व अधिक स्थान ग्रहण करता है।

उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक) में पानी पर बर्फ तैरती है इसलिये जब यह बर्फ पिघलती है तब वह समुद्र स्तर में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं करती है (जैसे कि गिलास में रखे हुए बर्फ के टुकड़े)।

दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिक महाद्वीप पर स्थित है जहाँ पर केवल बर्फ है यदि यहाँ पर बर्फ पिघलती है तो इससे समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी।

क्या बर्फ पिघलने के परिणाम सभी स्थानों पर समान होंगे?

ऐसा हमेशा नहीं होता है। यह इस पर निर्भर करता है कि बर्फ किस स्थान पर है। उदाहरण के लिये उत्तरी ध्रुव जो कि आर्कटिक महासागर के मध्य में स्थित है। वहाँ पर वर्ष भर समुद्री बर्फ की बड़ी मात्रा रहती हैै। उत्तरी ध्रुव के ही निकट बर्फ की एक अन्य विशाल मात्रा पाई जाती है जिसे हम ग्रीनलैण्ड द्वीप कहते हैं। यहाँ पर पाई जाने वाली बर्फ का विस्तार 1.3 मीलियन वर्ग किमी तक है तथा इनकी औसत ऊँचाई 2 किमी होती है। उत्तरी ध्रुव क्षेत्र में काफी मात्रा में बर्फ पाई जाती है - समुद्री बर्फ एवं जमीन पर की बर्फ।

आर्कटिक बर्फ के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि नहीं होगी इसके विपरीत ग्रीनलैंड द्वीप की बर्फ के पिघलने से समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी अवश्य होगी। यदि ग्रीनलैंड की समस्त बर्फ पिघल जाये तो समुद्री जलस्तर में 7 किमी. की विनाशकाकरी बढ़ोत्तरी होगी।

हालांकि आर्कटिक बर्फ के पिघलने से कुछ अन्य प्रभाव होंगे। स्थायी बर्फयुक्त भूमियाँ पिघलेंगी जिससे मानव बस्तियाँ भी प्रभावित होगीं। समुद्री बर्फ के पतले होने एवं पिघलने के कारण ध्रुवीय भालुओं का असतित्व खतरे में हैं क्योंकि ये दोनों ही उनके शिकार करने की क्षमता को कम कर देती हैं। दक्षिणी ध्रुव पर, अंटार्कटिका महाद्वीप पर स्थित बर्फ के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी।

3. समुद्री जलस्तर में वृद्धि
हिमनदों एवं ध्रुवीय बर्फीली चोटियों के पिघलने से समुद्र में जल की मात्रा बढ़ेगी। इसके अलावा तापमान बढ़ने से भी समुद्री जल में फैलाव होगा जिससे समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी। इन सबके परिणामस्वरूप छोटे द्वीप एवं समुद्रतटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाएँगे। उदाहरण के लिये मालदीव एवं तुवालु ऐसे दो द्वीप राष्ट्र हैं, जो कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से प्रभावित होंगे।

नदियों का डेल्टा क्षेत्र भी उच्च संकटग्रस्त क्षेत्रों में से एक है। इनमें से अधिकतर क्षेत्र तो पहले से ही बाढ़ की आशंका से प्रभावित हैं, जिससे इन उपजाऊ कृषि क्षेत्रों पर निर्भर रहने वाले हजारों लोग भी प्रभावित होंगे। समुद्र स्तर में एक मीटर की वृद्धि भी विभिन्न तटीय शहरों एवं अत्यधिक जनसंख्या वाले डेल्टा क्षेत्रों, जैसे- मिश्र, बांग्लादेश, भारत एवं चीन, में बाढ़ ला सकती है जहाँ विश्व की सबसे अधिक चावल की खेती होती है।

4. पारितंत्र एवं जैवविविधता का ह्रास
पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं को जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बनाए रखने हेतु प्रवासन करने के लिये बाध्य होना होगा। जो प्रवासन नहीं कर सकते हैं वे निकट भविष्य में गायब हो जाएँगे। जो ठंडी जलवायु के अनुकूल हैं, वे लुप्त हो जाएगे क्योंकि उनका र्प्यावास भी विलुप्त हो जाएगा। राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों, प्रवाल भित्तियों के लिये क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन गम्भीर खतरा पैदा कर सकता है एवं इसके कारण वहाँ की सम्पन्न जैवविविधता भी प्रभावित होगी।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि विश्व में शेष बचे 22 हजार ध्रुवीय भालुओं के लिये जलवायु परिवर्तन ही एक मात्र सबसे बड़ा खतरा है। आर्कटिक में रहने वाले ध्रुवीय भालुओं को अपने प्रमुख शिकार सील को पकड़ने के लिये समुद्री बर्फ की आवश्यकता होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री बर्फ बसन्त के प्रारम्भ में ही पिघल जाती है जिससे ध्रुवीय भालू अत्यधिक वसा संचित करने हेतु लम्बे समय तक शिकार नहीं कर सकेंगे और ग्रीष्मकाल के अन्त तक वे काफी दुर्बल हो जाएँगे तथा अपने बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ होंगे।

5. कृषि उत्पादन
विश्व के वे क्षेत्र जो अभी चावल, गेहूँ एवं अनाजों का उत्पादन कर रहे हैं, वे ग्लोबल वार्मिंग के कारण उतनी मात्रा में उत्पादन करने में असमर्थ हो सकते हैं। इससे खाद्यान्न की उपलब्धता भी प्रभावित होगी।

कुछ क्षेत्रों में वाष्पीकरण में वृद्धि एवं मृदा के शुष्क हो जाने से लम्बे समय तक सूखे जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी। शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई की आवश्यकता भी बढ़ेगी। गर्म क्षेत्रों में फसलों के कीटग्रस्त व रोगग्रस्त होने तथा खरपतवार के उगने से, कृषि प्रभावित होगी।

समुद्र स्तर में बढ़ोत्तरी के परिणामस्वरूप समुद्रतटीय क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिससे कृषि योग्य भूमि भी नष्ट हो जाएगी। इसके अतिरिक्त समुद्रतटीय एक्वीफर (Aquifer) में खारे पानी के प्रवेश से कृषि उत्पादन भी प्रभावित होगा।

6. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
आने वाले कुछ वर्षों में लू एवं अन्य उग्र जलवायुवीय परिस्थितियों के कारण होने वाली मौतें कुछ प्रत्यक्ष परिणाम हैं जिनका सामना हम कर सकते हैं। उष्णकटिबन्धीय रोग जैसे मलेरिया, मस्तिष्क ज्वर, पीत ज्वर व डेंगू जैसी बीमारियाँ वर्तमान के शीतोष्ण क्षेत्रों में भी फैलेंगी।

यहाँ यह भी स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को तत्काल रोका या बदला नहीं जा सकता है। ऐसा अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव आने वाले 100 वर्षों तक निरन्तर जारी रहेंगे। ग्रीनहाउस गैसें जो वायुमण्डल में पहले ही उत्सर्जित हो चुकी हैं वे इतनी जल्दी समाप्त नहीं होंगी। ये सभी गैसें दीर्घकाल तक वायुमण्डल में रहेंगी। जैसे मीथेन दशकों तक, कार्बन डाइऑक्साइड कुछ शताब्दियों तक, अन्य गैसें जैसे परफ्लोरो कार्बन हजारों सालों तक वायुमण्डल में रहेंगी।

यहाँ तक कि यदि हम कल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोक दें तब भी जलवायु निरन्तर परिवर्तित होती रहेगी और साथ-ही-साथ हमारे ग्रह का जीवन भी प्रभावित होता रहेगा।

ग्रीन हाउस गैसें वायुमण्डल में कब उत्सर्जित होती हैं?

जब हम

1. टी.वी. देखते हैं।

2. वीडियो गेम खेलते हैं।

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