जंगल पंचायत
16 Mar 2019
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मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य का जंगल से गहरा रिश्ता रहा है। हवा, पानी तथा भोजन जंगलों से जुटाए जाते रहे हैं।

उत्तराखण्ड में जीवनयापन का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। इन दोनों का आधार स्थानीय वनों से प्राप्त होने वाली उपज है। जलाने के लिए ईंधन की पूर्ति, खेती में प्रयुक्त होने वाले औजार, खाद हेतु पत्तियाँ, जड़ी-बूटी, जानवरों के लिए चारा और घास, घर बनाने के लिए लकड़ी के सबसे बड़े स्रोत स्थानीय वन ही रहे हैं।

वनों से इतना करीबी रिश्ता होने के कारण वन प्रबन्ध की व्यवस्था भी प्रारम्भ से कायम रही है। उत्तराखण्ड मेें वनों के प्रबन्ध की लठ पंचायत परम्परा को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है। लठ पंचायत की परम्परा ने ही कालान्तर में वन पंचायत का रूप ग्रहण किया। पिछले लगभग 80 वर्षों से सामुदायिक वनों के प्रबन्ध की यह प्रणाली इसीलिए इतनी टिकाऊ बन पाई क्योंकि यह लोगों के अपने अनुभवों और संघर्षों से विकसित हुई वन प्रबन्ध व्यवस्था का कानूनी रूप था।

वन पंचायतों का सामान्य इतिहास

वन पंचायतें जन भागीदारी से वन प्रबन्ध का अनूठा उदाहरण है। औपनिवेशिक काल से पूर्व उत्तराखण्ड मेें वनों का प्रबन्ध मनुस्मृति के अनुसार होता था अर्थात् लोग आवश्यकतानुसार वनों का उपभोग कर सकते थे, न सिर्फ वन उपज वरन जंगलों को साफ करके उसे कृषि भूमि में बदलने के अधिकार भी लोगों को थे।

वर्ष 1981 ई. से उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का शासन प्रारम्भ हुआ तथा वन प्रबन्ध की वर्तमान व्यवस्था भी आरम्भ हुई। अंग्रेजों को यहाँ के वनों का महत्व शीघ्र ही ज्ञात हो गया था। समुद्री जहाजों और रेल की पटरियों के लिए उपयोगी यहाँ की लकड़ी तथा नदी मार्गों द्वारा आसानी से ढुलान की पद्धति ने अंग्रेजों को यहाँ के वनों पर एकाधिकार करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यह भी समझ लिया था कि यहाँ के वनों का यदि व्यवसायिक दोहन करना है तो स्थानीय जनता के अधिकारों को सीमित करना होगा। वनों पर अधिकार सीमित करने से पूर्व भूमि पर अधिकार सीमित करना आवश्यक था। इसीलिए वर्ष 1823 ई.में बहुचर्चित साल अस्सी बंदोबस्त (सम्वत् 1880 में होने के कारण) प्रारम्भ किया गया और गाँव की सीमाएँ निर्धारित कर दी गई।

वर्ष, 1865 के उपरान्त पर्वतीय क्षेत्र पर धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण होना आरम्भ हुआ। इसी वर्ष भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया तथा साल (सोरिया रोबुस्टा) के समस्त वनों को आरक्षित घोषित कर 1868 में उनका प्रबन्ध वन विभाग को सौंप दिया गया।

सन् 1857 में नैनीताल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वनों का उपयोग राज्य खनन अभियन्ताओं द्वारा लोहे को गलाने के लिए आरम्भ किया गया। अगले वर्ष खुर्पाताल में यह कार्य एक निजी कम्पनी को सौंप दिया गया, जिसका यहाँ के वनों पर 1864 तक नियंत्रण रहा।

1865 मेें लौह-प्रदावरण के कार्य क्षेत्र के बाहर के वनों को एक सहायक वन संरक्षक के अधीन दे दिया गया जो आयुक्त के आदेश से कार्य करता था। 1868 में आयुक्त के स्थान पर वन संरक्षक की नियुक्ति की गई। 1878 तक नैनीताल के वन कुमाऊँ वन प्रभाग का गठन किया गया। वनों के आरक्षण में 1878 के आदेशों में तराई और भाबर के बहुत से क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा और नैनीताल के कुछ क्षेत्रों का सीमांकन कर उन्हें आरक्षित वन घोषित किया गया, जो अब पुराने आरक्षित वनों के नाम से जाने जाते हैं।

1884 में पुनर्गठन के बाद नैनीताल व रानीखेत उप प्रभाग को मिलाकर एक प्रभाग बनाया गया। यह व्यवस्था जुलाई 1915 तक रही। इसके बाद दूसरे पुनर्गठन के अन्तर्गत रानीखेत के वन पश्चिमी अल्मोड़ वन प्रभाग में सम्मिलित किए गए एवं भवाली में लीसा आसवानी एक अलग इकाई सृजित की गई।

वर्ष 1910 में अंग्रेजी शासन द्वारा कुमाऊँ के वनों का नियमित बन्दोबस्त आरम्भ किया गया। स्टिफ (राजस्व अधिकारी) व हरवर्ट (वन अधिकारी) द्वारा किए गए बन्दोवस्तों के फलस्वरूप नए आरक्षित वनों का जन्म हुआ।

आजादी से पूर्व तक पिथौरागढ़ (जिसमें वर्तमान चम्पावत जिला भी शामिल है) के वन पूर्वी अल्मोड़ा वन प्रभाग के भाग के रूप में बने रहे। वर्ष 1960 में पिथौरागढ़ प्रभाग की स्थापना हुई और पिथौरागढ़ और चम्पावत के वन क्षेत्र इस प्रभाग में शामिल किए गए।

शासनादेश संख्या 869-एम/638-44, दिनाँक 17-10-1883 द्वारा तत्कालीन अल्मोड़ा, नैनीताल तथा गढ़वाल जिलों का समस्त ऐसी भूमि जो कि खेती योग्य नाप भूमि के अन्दर नहीं थी, सुरक्षित वन घोषित कर दी गयी। इसी के साथ वर्ष1878,1893,1904 तथा 1917 में भी वनों की सीमाएँ निर्धारित की गई, नियमों की शृंखलाएँ आरम्भ की गई तथा लोगों के अधिकारों को सीमित किया गया।

फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी

अधिकरों में कटौती की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और समस्त कुमाऊँ में व्यापक स्तर पर आन्दोलन शुरू हो गए। शासन ने दमन नीति अपनाते हुए प्रारम्भ में कड़े कानून लागू किए, परन्तु लोगों ने इन कानूनों की अवहेलना करते हुए यहाँ के जंगलों को आग के हवाले करना आरम्भ किया। फलस्वरूप शासन ने समझौता करते हुए एक समिति का गठन किया।

1921 में गठित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी का अध्यक्ष तत्कालीन आयुक्त पी.विंढम को चुना गया तथा इसमें तीन अन्य सदस्यों को शामिल किया गया। समिति ने एक वर्ष तक पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण किया तथा 1922 में वनों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हुये गाँव की सीमाओं से दूर व्यावसायिक प्रजातियों के वनों का श्रेणी-2 तथा ग्राम की सीमा से लगे हुए चौड़ी-पत्ती के वनों को श्रेणी-1 में रखने का सुझाव दिया। समिति द्वारा यह सुझाया गया कि ग्रामीणों की निजी नाप भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि को वन विभाग के नियंत्रण से हटा लिया जाए।

इस समिति की सिफारिशों के फलस्वरूप 1922 के पश्चात कई वन क्षेत्रों का निर्वनीकरण किया गया तथा शेष वन क्षेत्र को दो वर्गों में बाँटा गयाः

1.वर्ग-2

(क) जो पुराने आरक्षित वनः1915 से पूर्व आरक्षित घोषित किए गए। ये वन विभाग के नियंत्रण में हैं तथा इनमें किसी भी प्रजाति के वृक्षों का पातन या शाखाकर्तन मना है। (ख) नये आरक्षित वनः ये भी वन विभाग के नियंत्रण में हैं। इनमें शासनादेश संख्या 145-ए, एफ./14 दिनाँक-23-3-1941 द्वारा प्रसारित हक सम्बन्धी नियम लागू होते हैं।

2.वर्ग-1

आरक्षित वनः ये वन वर्ष 1922 से कुमाऊँ ग्रीवान्सेज कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर राजस्व विभाग के अधीन ग्रामीणों के तुष्टीकरण हेतु रखे गए थे। परन्तु गोपीय शासकीय आदेश संख्या 6849/-बी-564/57 दिनाँक 17 नवम्बर 1964 द्वारा इन वनों को उपायुक्त के नियंत्रण से वन विभाग को हस्तान्तरित किया गया। इस शासनादेश के प्रमुख उपलब्ध निम्न थेः

1.कुमाऊँ तथा गढवाल मण्डलों (तत्कालीन कुमाऊँ मण्डल) में स्थित सभी वर्ग-1 वन, जो उस समय राजस्व विभाग के नियंत्रण मेें थे, तत्कालीन प्रभाव से वन विभाग को हस्तान्तरित किए जाने थे।
2. वन विभाग द्वारा वर्ग-1 के वनों का नियंत्रण अपने हाथ में लिए जाने के बाद भी वनों में स्थानीय निवासियों के वन सम्पदा सम्बन्धी अधिकार एवं सियायतें पूर्ववत बनी रहनी थी, परन्तु प्रतिबन्ध यह था कि इन वनों के उन भागों में, जो वन विभाग या वन पंचायतों के द्वारा निर्वनीकरण हेतु लिया जाए, अधिकार एवं रियायतें उस अवधि तक बन्द रहेगी, जब तक कि उन में लगाए गए रोपण पूर्णतः स्थापित नहीं हो जाते। इन रोपण क्षेत्रों मेें वन की पुनर्स्थापना होते ही ग्रामीणों के अधिकार एवं रियायतें पूर्ववत बहाल हो जाने थे।
3.वर्ग-1 के वनों में 9 वृक्ष प्रजातियों को रक्षित किया गया। वे थे देवदार, साल, कैल, सुरई, तुन, अखरोट, चीड़, सुरई तथा मुरिण्डा। स्थानीय निवासियों द्वारा रक्षित प्रजाति के वृक्ष के अतिरिक्त अन्य वृक्षों के शाखतराशी पर लगे प्रतिबन्ध को हटा लिया गया तथा अधिकार प्राप्त ग्रामीणों को उपरोक्त प्रतिबन्धित प्रजातियों को छोड़कर अन्य किसी भी वृक्ष को काटने अथवा गिराने की अनुमति उन क्षेत्रों में दे दी गई, जहाँ उनके अधिकार अभिलिखित थे। स्थानीय शिल्पकारों को आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त किसी प्रकार के वन सम्पदा की ब्रिकी की अनुमति नहीं थी।

तालिका 1 :पिथौरागढ़ जिले में वन पंचायतें (1990-95)

श्रेणी 1 की वन पंचायतें

श्रेणी 2 की वन पंचायतें

सिविल वनों की वन पंचायतें

योग

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

33

3169

2

42

1021

86245

1056

89458

तालिका 2: चम्पावत जिले में वन पंचायत

श्रेणी 1 की वन पंचायतें

श्रेणी 2 की वन पंचायतें

सिविल वनों की वन पंचायतें

योग

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

संख्या

क्षेत्रफल

-

-

-

-

629

31232.781

629

31322.781

सिविल या रक्षित वन

ये वन गाँवों की परम्परागत सीमाओं के अन्दर परन्तु नाप भूमि से बाहर स्थित हैं। 1957 में कुमाऊँ नयाबाद व वेस्टलैण्ड अधिनियम के विखण्डन से पूर्व ग्रामीणों को इन वनों में भूमि विस्तार के अधिकार प्राप्त थे। आरक्षित वृक्षों को छोड़कर ग्रामवासी घरेलू प्रयोजन हेतु अन्य वृक्षों का पातन कर सकते थे। ये अधिकार 1976 में उत्तर प्रदेश ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में वृक्ष संरक्षण अधिनियम लागू होने से सीमित हो गए हैं, परन्तु स्थानीय निवासियों के निजी उपयोगार्थ अभी भी अन्य अधिकार जैसे शाखकर्तन, चारण, लीसे के अतिरिक्त अन्य गौण वन उपज एकत्र करने के अधिकार हैं।

पंचायती या सामुदायिक वन

वन पंचायत नियमावली के अन्तर्गत व्यवस्थित ये वन दो प्रकार के हैंः (क) अधिकतर वर्ग-1 तथा कुछ वर्ग-2 के आरक्षित वनों से बनाए गए वन। (ख) गाँवों की परम्परागत सीमाओं में स्थित सिविल वनों तथा नाप खेतों के कुछ भागों से बनाए गए वन कई स्थानों पर गाँव संजायती भूमि को भी पंचायती वनों में सम्मिलित किया गया।

तालिका 1-2 से स्पष्ट है कि कुछ को छोड़कर लगभग सभी वन पंचायतें सिविल वन क्षेत्रों से ही बनाई गई। लेकिन यदि अन्य जिलों से तुलना की जाए तो इस दौरान नैनीताल और अल्मोड़ा जिलो में श्रेणी-1 के वनों से मात्र 5-5 वन पंचायतें बनी, वहीं श्रेणी-2 के वनों से तो एक भी वन पंचायत नहीं बनी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि बहुचर्चित कुमाऊँ फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी की संस्तुतियों का कोई फायदा नहीं मिला।

वन पंचायतों का संगठनात्मत ढाँचा

वन पंचायतों का तात्पर्य पंचायती वनों के प्रबन्ध हेतु गठित समिति से है। प्रत्येक ग्राम के निवासियों के द"

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