क्यों आते हैं भूकम्प (Why Earthquakes)
पृथ्वी की सतह हमें प्रायः स्थिर व अखण्ड प्रतीत होती है, परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। पृथ्वी की सतह न तो स्थिर है और न ही अखण्ड। सच कहें तो पृथ्वी की सतह महाद्वीप के आकार के विशाल भूखण्डों (plates) से मिलकर बनी है। इन भूखण्डों को पृथ्वी की सतह पर स्थित चट्टानों की ठोस परत के रूप में समझा जा सकता है और इनका विस्तार महाद्वीपों के साथ-साथ समुद्र में भी है।
महाद्वीपीय भूखण्ड हल्की चट्टानों से बने होते हैं और इनकी मोटाई 100 किलोमीटर तक हो सकती है। इसके विपरीत समुद्री भूखण्ड भारी चट्टानों से बने होते हैं और इनकी मोटाई मात्र 5 किलोमीटर तक सीमित होती है।
अतः हमारी पृथ्वी भूखण्डों से मिलकर बनी है और प्रमुख भूखण्ड निम्नवत हैंः
(क) अफ्रीकी भूखण्ड
(ख) अन्टार्कटिक भूखण्ड
(ग) यूरेशियाई भूखण्ड
(घ) भारतीय-आस्ट्रेलियाई भूखण्ड
(ड.) उत्तर अमेरिकी भूखण्ड
(च) प्रशान्त महासागरीय भूखण्ड
(छ) दक्षिण अमेरिकी भूखण्ड
पृथ्वी की सतह के नीचे गहराई बढ़ने के साथ तापमान भी बढ़ता जाता है जिसके कारण पृथ्वी की सतह पर स्थित इन ठोस भूखण्डों के ठीक नीचे स्थित चट्टानें पिघल कर तरल रूप ले लेती हैं। पृथ्वी की सतह पर स्थित यह भूखण्ड कुछ-कुछ पिघली हुयी सी चट्टानों की इसी सतह के ऊपर स्थित है या फिर तैर रहे हैं और एक-दूसरे के सापेक्ष गतिमान हैं।
यहाँ यह समझना जरूरी है कि ठोस सतही भूखण्डों के नीचे सब कुछ पिघला हुआ या तरल नहीं होता। पृथ्वी की सतह के नीचे गहरायी बढ़ने के साथ दबाव भी बढ़ता जाता है जिसके कारण नीचे स्थित चट्टानें ठोस अवस्था में ही रहती हैं और अत्यन्त भारी चट्टानों से बना पृथ्वी का केन्द्र अत्यधिक गर्म होने पर भी एकदम ठोस है।
आपको शायद विश्वास न हो पर पृथ्वी का केन्द्र सतह से लगभग 6,371 किलोमीटर की गहराई पर स्थित है; यानी पृथ्वी की सतह पर एक छोर से दूसरे छोर की औसत दूरी 12,742 किलोमीटर है।
पृथ्वी की सतह के नीचे स्थित इस तरल सतह को पृथ्वी के गर्म केन्द्र से लगातार ऊष्मा मिलती रहती है जिसके कारण इसमें लगातार संवहन (convection) होता रहता है। संवहन मतलब गरम होकर तरल ऊपर उठता है और फिर ठण्डा होने पर नीचे चला जाता है। वास्तव में गर्म होने पर तरल पदार्थ का घनत्व कम हो जाता है जिसके कारण वह ऊपर सतह की ओर उठने लगता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि चूल्हे पर पानी गर्म करने पर होता है।
सतही भूखण्डों के नीचे स्थित पिघली सतह में संवहन का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है; कुछ स्थानों पर गर्म तरल लगातार ऊपर की ओर उठता रहता है और फिर ठण्डा हो जाने पर भारी हो जाने के कारण वह किसी अन्य स्थान से नीचे केन्द्र की ओर चला जाता है।
पिघले हुये तरल के ऊपर आने या फिर नीचे जाने वाले स्थान अधिकांश स्थितियों में भूखण्डों के छोर पर ही स्थित होते हैं और पृथ्वी की सतह के नीचे लगातार हो रही संवहन की यह प्रक्रिया ही पृथ्वी की सतह पर स्थित भूखण्डों को एक दूसरे के सापेक्ष गतिमान बनाती है। इस गति के कारण भूखण्डों के छोर तनाव या फिर दबाव की स्थिति में रहते हैं।
जहाँ पर यह तरल ऊपर की ओर उठता है उसके ऊपर स्थित भूखण्डों के छोर प्रायः एक दूसरे से दूर जाने का प्रयास करते हैं और तनाव की स्थिति में रहते हैं। यहाँ पर पृथ्वी की सतह की ओर आने वाला यह गर्म तरल या पिघली हुयी चट्टानें ज्वालामुखी से निकले लावा के रूप में हमें दिखायी देती है और इन स्थानों पर लगातार नयी सतह का निर्माण होता रहता है।
इसके विपरीत जहाँ पर यह संवहन नीचे पृथ्वी के केन्द्र की ओर होता है उसके ऊपर स्थित भूखण्डों के छोर एक-दूसरे की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे होते हैं जिसके कारण इस छोर की चट्टानें दबाव की स्थिति में होती हैं। इन स्थानों पर यह भूखण्ड आपस में टकराते हैं और दोनों भूखण्डों में से भारी भूखण्ड हल्के भूखण्ड के नीचे खिसकने लगता है। समुद्री भूखण्ड के भारी होने के कारण समुद्री व महाद्वीपीय भूखण्डों के एक दूसरे की ओर बढ़ने की स्थिति में समुद्री भूखण्ड महाद्वीपीय भूखण्ड के नीचे खिसकने लगता है। कुछ समय के बाद नीचे जा रहे भूखण्ड का भार भूखण्डों के खिसकने में सहायक बन जाता है। नीचे जा रहा भूखण्ड धीरे-धीरे पिघल कर नीचे स्थित तरल सतह का भाग बन जाता है।
भूकम्प में अवमुक्त होने वाली ऊर्जा के परिमाण परिमाण को इस तथ्य से सहज ही समझा जा सकता है कि दिसम्बर, 2004 में हिन्द महासागर में आये भूकम्प में अवमुक्त ऊर्जा से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सभी घरों, उद्योगों, संयत्रों व अन्य की सभी ऊर्जा सम्बन्धित आवश्यकताओं की तीन दिन तक पूर्ति की जा सकती थी। |
आपने निश्चित ही कभी न कभी लकड़ी तो तोड़ी ही होगी। ताकत लगाने पर भी लकड़ी एकदम से टूटती नहीं है। इसके लिये हमें निरन्तर प्रयास करना पड़ता है। लकड़ी तोड़ने के लिये हमारे द्वारा लगायी गयी ताकत या ऊर्जा लकड़ी में जमा होती रहती है और इसके एक सीमा से अधिक होने पर लकड़ी अचानक ही टूट जाती है। इसी के साथ लकड़ी में जमा हो रही ऊर्जा भी अवमुक्त हो जाती है। इस ऊर्जा का एहसास हमें हाथों में महसूस होने वाले कम्पनों व टूटने में उत्पन्न आवाज के रूप में होता है। ठीक ऐसा ही कुछ पृथ्वी की सतह के अन्दर भी होता है। बस लकड़ी की जगह वहाँ चट्टानों की मोटी परत टूटती है। |
ज्वालामुखी विस्फोट के कारण प्रायः भूकम्प के झटके महसूस किये जाते हैं परन्तु कुछ स्थितियों में भूकम्प के कारण ज्वालामुखी विस्फोट भी हो सकता है। 1980 में सेन्ट हेलेन्स व 2002 में इटना पर्वतों पर हुये ज्वालामुखी विस्फोटों के लिये भूकम्प को उत्तरदायी माना जाता है। |
कहीं धरती न हिल जाये (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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12 | भूकम्प पूर्वानुमान और हम (Earthquake Forecasting and Public) |
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