नदी मैनुअल - ताकि नदियाँ बहती रहें
नर्मदा

प्रस्तावना

नर्मदा नदीनर्मदा नदीपिछले पचास-साठ सालों से भारत की सभी नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह में कमी नजर आ रही है। हिमालयी नदियों में यह कमी अपेक्षाकृत थोड़ी कम है किन्तु भारतीय प्रायद्वीप के पहाड़ों, तालाबों, कुण्डों, जंगलों या झरनों से निकलने वाली अनेक छोटी नदियाँ मौसमी बनकर रह गईं हैं। भारतीय प्रायद्वीप की बड़ी नदियों यथा कावेरी, कृष्णा, ताप्ती, महानदी, नर्मदा और गोदावरी में भी मानसून के बाद का प्रवाह तेजी से कम हो रहा है। यह देशव्यापी चिन्ता का विशय है। यह मैनुअल नदियों के मानसून के बाद के प्रवाह की कमी को कम करने वाले प्रयासों तथा नवाचारों पर कुछ सुझाव प्रस्तुत करती है।

मैनुअल का उद्देश्य

मैनुअल के मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार हैं-

1. नदियों को अविरल बनाने के लिये प्रयास करना।

2. नदी की प्राकृतिक जिम्मेदारियों को पूरा कराने वाले कामों को सहयोग देना।

3. नदी की अस्मिता तथा जैवविविधता की बहाली के लिये प्रयास करना।

4. नदी जल को स्वतः साफ होने वाली नैसर्गिक क्षमता की बहाली हेतु प्रयास करना।

5. नदी जल के उपयोग हेतु समाज की सहमति से प्रकृति सम्मत नियम बनवाना और उनको लागू करवाना। प्रकृति सम्मत सुरक्षित विकास को बढ़ावा देना।

6. नदी जल पर निर्भर समाज की आजीविका के लिये प्रयास करना।

7. अन्य कार्य जो स्थानीय परिस्थितियों में किसी नदी विशेष के लिये आवश्यक हो, करवाने के लिये प्रयास करना।

नदी प्रवाह की बहाली प्रदूषण को कम करती है। जैवविविधता (बायोडायवर्सिटी) को लौटाती है। कछार की सेहत को ठीक करती है। प्रवाह बहाली की गतिविधियों को प्रारम्भ करने के पहले नदी तथा नदी के पर्यावरणी-प्रवाह (देखें परिशिष्ट एक) और नदी-विज्ञान (देखें परिशिष्ट दो) को समझना आवश्यक है। इसके अलावा, प्राकृतिक भूजल रीचार्ज, कछार का भूगोल और भूआकृतियों के कुदरती संकेत, सतही जल और भूजल के अतिशय दोहन के कुप्रभाव तथा कृत्रिम भूजल रीचार्ज जैसे घटकों को भी समझना आवश्यक है। प्रवाह बहाली की प्लानिंग करते समय परम्परागत जलविज्ञान और आधुनिक जलविज्ञान के जानकारों का सहयोग भी जरूरी है। प्रवाह की अविरलता को बनाए रखने के लिये प्रकृति सम्मत सुरक्षित विकास और मूलभूत मानवीय जरूरतों के बीच तालमेल बिठाना और उसे टिकाऊ बनाए रखना भी आवश्यक है।

प्रवाह की अविरलता

पुराने समय में भारत की अधिकांश नदियाँ बारहमासी थीं। छोटी-छोटी नदियों में भी पूरे साल कुछ-न-कुछ प्रवाह अवश्य रहता था। यह सही है कि पुराने समय में कछार के प्रतिकूल भूगोल या प्राकृतिक भूजल पुनर्भरण की कमी के कारण, बरसात के बाद, कुछ छोटी-छोटी नदियाँ सूखती थीं लेकिन हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियाँ, बर्फ के पिघलने से मिलने वाले पानी के कारण, प्रवाह घटने के बावजूद, लगभग बारहमासी थीं। उनके सूखने या उनके प्रवाह के घटने के उदाहरण अपेक्षाकृत कम ही थे।

प्रवाह की अविरलता का अर्थ है, नदी में साल भर कभी भी खत्म नहीं होने वाला और लगातार बहने वाला न्यूनतम प्रवाह। वह प्रवाह, नदी तल के ऊपर बहता हुआ नंगी आँखों से दिखाई देता है। वह पर्याप्त मात्रा में होता है। यह तभी सम्भव हो पाता है जब नदियों को प्रवाह उपलब्ध कराने वाली प्रक्रियाओं का सहयोग मिलता है। प्रवाह को कम करने वाले घटक, लक्ष्मण रेखा के भीतर रहते हैं। प्रवाह के साथ अवैज्ञानिक, अदूरदर्शी तथा अवांछित छेड़छाड़ नहीं होती। भूजल को सहेजने वाली गागर अर्थात पानी सहेजने वाली उथली परतों के लगातार छलकते रहने तक ही नदी की अविरलता कायम रहती है। अतः नदी में प्रवाह की अविरलता को समझने के लिये सबसे पहले प्राकृतिक जलचक्र (देखें परिशिष्ट तीन) और उसकी कुदरती भूमिका को समझना आवश्यक है।

भारतीय नदियों के प्रवाह के दो मुख्य स्रोत हैं - पहला, बरसात के दिनों में कछार की धरती से बहकर मिलने वाला बरसाती पानी और दूसरा सूखे दिनों में भूगर्भीय परतों से बाहर आकर मिलने वाला भूजल। हिमालय से निकलने वाली नदियों को बर्फ के पिघलने से भी पानी मिलता है। विदित है कि बरसात के दिनों में प्रवाह की बहुलता होती है लेकिन सूखे दिनों में वर्षाजल के प्रत्यक्ष योगदान समाप्त हो जाता है। उसके समाप्त हो जाने के कारण धरती की उथली परतों से छलक कर बाहर आया पानी ही नदी को जिन्दा रखता है। भूजल वैज्ञानिकों के अनुसार जैसे-जैसे कछार के भूजल भण्डार रीतते हैं, भूजल के योगदान में समानुपातिक कमी आती है। यदि अगली बरसात के पहले नदी को मिलने वाला योगदान समाप्त हो जाता है तो नदी सूख जाती है। यह स्थिति अगली बरसात के आगमन तक यथावत रहती है। विदित हो कि नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह का सीधा सम्बन्ध भूजल भण्डारों के छलकने या छलकना बन्द होने से है। ज्ञातव्य है कि छलकना बन्द होने के बाद भी भूजल की यात्रा समाप्त नहीं होती। वह नदी के तल के नीचे-नीचे अपने लक्ष्य की ओर बहता है। इस कारण, जरूरी है कि हम सबसे पहले भूजल के व्यवहार को समग्रता में समझने का प्रयास करें।

हर साल, वर्षाजल की कुछ मात्रा रिसकर धरती के नीचे मौजूद एक्वीफरों में जमा होती है। यही एक्वीफरों का सन्तृप्त होना/भरना या भूजल का पुनर्भरण है। यह पुनर्भरण भूजल भण्डारों का निर्माण करता है। यह प्रक्रिया जब पूरी हो जाती है तो नदी घाटी के भूजल भण्डार इष्टतम स्तर (Optimum level) तक भर जाते हैं। भूजल पुनर्भरण के प्रभाव से भूजल स्तर ऊपर उठता है। उसका ऊपर उठना आपूर्ति की निरन्तरता पर निर्भर होता है और तद्नुसार स्तर हासिल करता है। बरसात के खत्म होते ही भूजल के पुनर्भरण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। पुनर्भरण प्रक्रिया के समाप्त हो जाने के कारण भूजल स्तर का ऊपर उठना बन्द हो जाता है। प्राकृतिक डिस्चार्ज के प्रभाव से भूजल के स्तर में गिरावट शुरू होती है। इसमें भूजल के दोहन का प्रभाव भी जुड़ जाता है। उनके संयुक्त प्रभाव से गिरावट में तेजी आती है। यह सिलसिला अगली बरसात तक अबाध गति से चलता है। गैर-मानसून सीजन में यदि कृत्रिम भूजल रीचार्ज किया जाता है तो वाटर टेबल की गिरावट समानुपातिक रूप से घट जाती है।

भूजल वैज्ञानिक बताते हैं कि एक्वीफरों में जमा पानी स्थिर नहीं होता। वह ऊँचे स्थानों से निचले स्थानों की ओर लगातार बहता रहता है। यह गुरुत्व बल के कारण होता है। जब तक, भूजल का ऊपरी स्तर, नदी तल के ऊपर रहता है, तब तक वह नदी में डिस्चार्ज होता रहता है। उसके डिस्चार्ज होते रहने तक नदी अविरल रहती है। यह कुदरती प्रक्रिया है। इसी कुदरती प्रक्रिया के कारण नदी में प्रवाह दिखाई देता है। कुदरती डिस्चार्ज तथा भूजल दोहन (कृत्रिम डिस्चार्ज) के असर से कछार में भूजल स्तर तेजी से गिरता है। एक्वीफरों का योगदान घटता है। योगदान के घटने के कारण, नदी का प्रवाह, समानुपातिक रूप से कम हो जाता है। यह प्रक्रिया अगले मानसून तक चलती है। मानसून की वापसी के साथ भूजल का पुनर्भरण पुनः प्रारम्भ होता है। भूजल स्तर का ऊपर उठना प्रारम्भ हो जाता है। जब भूजल स्तर नदी तल के ऊपर आ जाता है तो वह (भूजल) नदी में डिस्चार्ज होने लगता है। यह डिस्चार्ज सूखी नदियों के प्रवाह को जिन्दा करता है और जिन्दा नदियों के प्रवाह को बढ़ा देता है। यही प्रवाह बहाली की साइकिल है। यही धरती की कोख से पानी का छलकना है। झरनों से बाहर आते पानी को देखकर, धरती की कोख से भूजल के छलकने की प्रक्रिया को समझा जा सकता है।

बरसात के दिनों में भूजल और बरसाती पानी (रन-ऑफ) साथ-साथ प्रवाहित होते हैं। बरसात के बाद रन-ऑफ का योगदान समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में भूजल का योगदान ही नदी को अविरल रखता है। जब यह योगदान खत्म हो जाता है तो नदी का प्रवाह खत्म हो जाता है। नदी सूख जाती है। यही उसकी अविरलता खत्म होने या सूखने का कारण है।

नदी के सूखने का अर्थ यह नहीं है कि भूजल का योगदान पूरी तरह समाप्त हो गया या कुदरती जलचक्र बाधित हो गया है। उस स्थिति में भी भूजल का योगदान चालू रहता है। उस योगदान के कारण, भूजल, नदी तल के नीचे-नीचे बहता है। वह नदी की तली को खोदने से दिखता भी है। उसका नदी तल के नीचे दिखना, कुछ लोगों के मन में नदी के जिन्दा होने का भ्रम पैदा करता है। यह प्रवाह की बहाली या नदी का जिन्दा होना नहीं है। यह उप-सतही भूजल जल है। यह प्राकृतिक जलचक्र का हिस्सा है। यह उप-सतही भूजल, प्राकृतिक जलचक्र को सक्रिय रखता है और अन्ततः समुद्र में मिल जाता है।

ऊँचाई पर स्थित हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों से, ढाल की अधिकता के कारण, बरसाती पानी, तेजी से नीचे उतरता है और बहुत कम समय में ही नदियों को मिल जाता है। इस कारण नदियों में प्रवाह रहता है और मात्रा बढ़ने पर अक्सर बाढ़ आती है। यही नियति भूजल की भी होती है। वह भी ढाल की अधिकता के कारण तेजी से नीचे उतरता है और नदियों में डिस्चार्ज हो जाता है। एक्वीफर खाली हो जाता है। इसी कारण ऊँचाई पर स्थित इकाइयों से निकलने वाली छोटी-छोटी नदियाँ बरसात के बाद बहुत जल्दी सूख जाती हैं।

मौजूदा युग में अविरल प्रवाह की पुरानी स्थिति काफी हद तक बदल गई है। भूजल के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोहन एवं वनभूमि के घटते योगदान के कारण नदियों का गैर-मानसूनी प्रवाह, समानुपातिक रूप से कम हो रहा है। कुछ नदियों में प्रवाह की स्थिति चिन्तनीय हो गई है। वे नदियाँ मौसमी हो गई हैं। उनमें यदि कहीं प्रवाह नजर आता है तो वह मुख्यतः नगरीय अपशिष्ट है।

नदियों की अविरलता को फिर से बहाल करने के पहले आवश्यक है कि उसके कम होने तथा नदियों के सूखने के कारणों (देखें परिशिष्ट चार) को ठीक से समझा जाये। वैज्ञानिक मानते हैं कि नदी के प्रवाह का सीधा-सीधा सम्बन्ध नदी घाटियों और उन घाटियों में घट रही गतिविधियों तथा हस्तक्षेपों से है इसलिये नदी घाटियों (जल निकास घाटियाँ) के बारे में मूलभूत बातों को जान लेना सामयिक तथा उपयोगी होगा। भारत की नदी घाटियों का विवरण परिशिष्ट पाँच में दिया गया है।

प्रवाह बहाली की अवधारणा

प्रवाह बहाली की अवधारणा को समझने के लिये हम वृक्ष का उदाहरण लेंगे। हर व्यक्ति जानता है कि वृक्ष के तीन मुख्य भाग होते हैं - जड़ें, मुख्य तना और शाखाएँ। जड़ें, पानी का बैंक नहीं होतीं। वे मिट्टी से पानी और पोषक तत्वों को खींचकर वृक्ष को उपलब्ध कराती हैं। मिट्टी से जड़ों को मिलने वाले योगदान तक ही वृक्ष जीवित और स्वस्थ रह पाता है। योगदान मिलने तक ही वह बढ़ता है, फलता-फूलता है और फायदे दे पाता है। वृक्ष का जीवन और उसके फायदे, मिट्टी की नमी (भूजल) के अवदान का परिणाम या प्रतिफल है। यह अवदान जड़ों के माध्यम से वृक्ष को मिलता है। वही उसके जीवन का आधार है। उसके समाप्त होते ही वृक्ष की मृत्यु हो जाती है।

लगभग यही कहानी नदी की है। उसे भी तीन हिस्सों यथा कछार, सहायक नदियाँ और नदी परिवार की सबसे बड़ी नदी में विभाजित कर समझा जा सकता है। कछार का पानी सहायक नदियों के माध्यम से अन्ततः परिवार की सबसे बड़ी नदी को प्राप्त होता है। यह प्राप्ति कछार की सतह पर और उसके नीचे बहने वाले पानी के माध्यम से होती है। सतह पर से बहकर नदी को मिलने वाले पानी की अवधि सीमित होती है। सतह के नीचे से मिलने वाले पानी की अवधि अधिक होती है। यह योगदान यदि साल भर उपलब्ध रहता है तो नदी साल भर अविरल रहती है। योगदान का यही क्रम, छोटी-छोटी नदियों से उत्तरोत्तर आगे बढ़कर अन्ततः परिवार की सबसे बड़ी नदी पर जाकर खत्म होता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जब तक कछार के भूजल भण्डारों का योगदान नदियों को मिलता रहेगा, उनसे पोषित नदियाँ स्वस्थ रहेंगी और अपने-अपने कछारों से समेटे पानी की सौगात, अपने से बड़ी नदी को उपलब्ध कराती रहेंगी, बड़ी नदी जिन्दा रहेगी। अविरल रहेगी और प्रदूषण को यथासम्भव घटाती रहेगी।

प्रवाह बहाली की प्रस्तावित अवधारणा प्रतिपादित करती है कि धरती की कोख के पानी के नदी तल पर छलकते रहने तक ही नदी अविरल रहती है। अविरलता के सुनिश्चित रहने तक ही उसका पानी स्वच्छ तथा निरापद रहता है। उसकी खुद-ब-खुद साफ होने की नैसर्गिक क्षमता बरकरार रहती है। तभी तक उसमें जलीय जीवन फलता-फूलता है। सुरक्षित रहता है। अपना काम करता है। दायित्व निभाता है। नदी, जैवविविधता से परिपूर्ण रहती है। उसके कछार की उथली परतें साफ बनी रहती हैं। कछार के जलस्रोत सामान्यतः जिन्दा रहते हैं। छलकना बन्द होते ही नदी सूख जाती है। जलस्रोतों का सूखना प्रारम्भ हो जाता है।

प्रवाह बहाली की अवधारणा, भूजल स्तर की भूमिका को रेखांकित करती है। नदी की प्राकृतिक जिम्मेदारियों का सम्मान और भूजल स्तर की गिरावट की लक्ष्मण रेखा को मान्यता दे, प्रवाह बहाली की पैरवी करती है। यही, इस मैनुअल की अवधारणा है। यही उसकी रणनीति का आधार है। यही उद्देश्य है।

आदर्श हाइड्रोलॉजिकल इकाई

प्रवाह बहाली के लिये वह हाइड्रोलॉजिकल इकाई आदर्श होगी जिसका क्षे़त्रफल प्लानिंग, क्रियान्वयन तथा प्रबन्ध की दृष्टि से आदर्श हो और जो तर्कसंगत समयावधि में, परिणाम देने में सक्षम हो।

भारत सरकार द्वारा प्रकाशित नेशनल वाटरशेड एटलस (परिशिष्ट पाँच में संक्षिप्त विवरण एवं नक्शा उपलब्ध) में वर्णित पाँचवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाई (वाटरशेड) उपरोक्त शर्तों को यथासम्भव पूरा करती है अतः उसे आदर्श हाइड्रोलॉजिकल इकाई माना जा सकता है।

नेशनल वाटरशेड एटलस की पाँचवीं इकाई (वाटरशेड) का औसत क्षेत्रफल एक लाख हेक्टेयर होता है। बेहतर प्लानिंग, क्रियान्वयन तथा प्रबन्ध के लिये उसे छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित करना चाहिए। उन छोटी-छोटी इकाइयों में निवास करने वाले लोगों को, हर स्तर पर, गतिविधियों से जोड़ना चाहिए। पाँचवीं हाइड्रोलजिकल इकाई (वाटरशेड) की प्रस्तावित छोटी उप-इकाइयाँ निम्नानुसार हो सकती हैं-

1. मिलीवाटरशेड (वाटरशेड की उप-इकाई) - औसत क्षेत्रफल पाँच हजार से दस हजार हेक्टेयर। इसे छोटी उप-इकाई भी कहा जा सकता है।

2. माइक्रो-वाटरशेड (मिली वाटरशेड की उप-इकाई) - औसत क्षे़त्रफल पाँच सौ से एक हजार हेक्टेयर। इसे सातवीं उप-इकाई भी कहा जा सकता है।

महत्त्वपूर्ण

चयन, पाँचवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाई (वाटरशेड) का किया जाएगा। प्लानिंग सातवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाई अर्थात माइक्रो वाटरशेडवार की जाएगी। काम का प्रारम्भ, बिना किसी अपवाद के, सभी सातवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों से एक साथ शुरू किया जाएगा। यह काम उनसे आगे बढ़कर छठी इकाई और उससे आगे बढ़कर पाँचवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाई (वाटरशेड) के छूटे हिस्सों पर समाप्त होगा। जल प्रबन्ध का काम पाँचवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाई (वाटरशेड) की जागृत नदियों पर किया जाएगा।

सुझाए तरीके से काम करने से पाँचवीं हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों की अधिकांश मुख्य नदियों में प्रवाह लौटेगा। उसकी अवधि में बढ़ोत्तरी होगी। उसका लाभ चौथी हाइड्रोलॉजिकल इकाई (उप-कैचमेंट) की सभी मुख्य नदियों को मिलेगा। उसके मिलने से चौथी हाइड्रोलॉजिकल इकाई की सभी मुख्य नदियों में प्रवाह बढ़ेगा। उसका लाभ तीसरी हाइड्रोलॉजिकल इकाई (कैचमेंट) की सभी मुख्य नदियों को मिलेगा। यह लाभ उत्तरोत्तर बढ़कर दूसरी (बेसिन) और अन्ततः पहली हाइड्रोलॉजिकल इकाई (जल संसाधन क्षेत्र) की मुख्य नदी को मिलेगा। इस प्रकार पूरे जल संसाधन क्षेत्र में प्रवाह की बहाली होगी और अवधि बढ़ेगी।

दल का गठन

प्रवाह वृद्धि का काम ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के ज्ञाताओं, अनुभवी लोगों तथा समाज की सक्रिय भागीदारी द्वारा किया जाने वाला सामूहिक प्रयास है। इसलिये उसकी जिम्मेदारी (दल का नेतृत्व) नदी विज्ञान तथा नदी के प्राकृतिक दायित्वों के ज्ञाता और लक्ष्य के लिये समर्पित वैज्ञानिक/व्यक्ति को ही सौंपी जानी चाहिए। वह व्यक्ति नदी की अविरलता तथा प्रवाह अवधि बढ़ाने वाली गतिविधियों और प्राकृतिक जिम्मेदारियों को ध्यान में रखकर पूरे काम की प्लानिंग करेगा। निर्माण कार्यों को सम्पादित कराने, समाज को संगठित करने और जल के टिकाऊ उपयोग को निर्धारित कराने के लिये दल के मुखिया को अनेक विधाओं के जानकारों की आवश्यकता होगी। इसके अतिरिक्त कार्यालयीन अमला, कम्प्यूटर एवं वाहन सुविधा इत्यादि भी आवश्यक है। निर्माण मदों पर होने वाला व्यय सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। समाज की भागीदारी से जल प्रबन्ध तथा पानी का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग किया जाएगा। मानीटरिंग में भी समाज सहयोग प्रदान करेगा।

प्रवाह बहाली में बरसात और उसके चरित्र की भूमिका

बरसात, वायुमण्डल में घटित होने वाली प्राकृतिक घटना है। उसके सभी घटकों (मात्रा, वितरण, चरित्र, अवधि इत्यादि) को प्रकृति नियंत्रित करती है।

नदी के प्रवाह की बहाली में बरसात की भूमिका महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक होती है। उससे सम्बन्धित सभी घटकों की भूमिका को समझना आवश्यक है। सांकेतिक विवरण निम्नानुसार है-

यदि पानी के बरसने की तीव्रता (Intensity) अधिक हो तो बरसे पानी का बहुत सारा हिस्सा तेजी से बहकर नदी को मिल जाता है। बरसात का यह चरित्र बाढ़ उत्पन्न करता है। यह चरित्र भूजल रीचार्ज के लिये बहुत अनुकूल नहीं होता। बरसात का, धीरे-धीरे अधिक देर तक बरसने वाला चरित्र ही भूजल रीचार्ज के लिये उपयुक्त होता है। एक्वीफरों की मोटी परतें और बरसात का उपर्युक्त चरित्र भूजल भण्डारों को अच्छी तरह समृद्ध करता है। उनसे ही प्रवाह की अवधि तथा उसकी मात्रा बढ़ाने वाली परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। प्रकृति ने बरसात के चरित्र को, एकरूपता के स्थान पर विविधता प्रदान की है इसलिये उसका चरित्र अपनी सारी विविधताओं के साथ, हर बरसात में देखने को मिलता है।

भारत के पश्चिमी भाग में स्थित थार मरुस्थल बेहद शुष्क क्षेत्र है। उस इलाके में बहुत कम बरसात होती है। जो भी पानी बरसता है, वह बहुत जल्दी मरुस्थल की रेतीली धरती में गहरे उतर जाता है। उसके धरती में उतर जाने के कारण वाटरटेबिल ऊपर तो उठती है पर रेत की पोरासिटी के अधिक होने के कारण, अन्ततः उसका ऊपर उठना, अक्सर बौना ही सिद्ध होता है। थार मरुस्थल की रेतीली धरती तथा शुष्क जलवायु वाष्पीकरण और रिसाव के लिये तो मुफीद है पर वह प्रवाह की बहाली के लिये काफी हद तक प्रतिकूल है। इस कारण थार मरुस्थल की नदियों के प्रवाह को बढ़ाना सहज नहीं है।

भारत के मध्य तथा पूर्वी हिस्सों में पर्याप्त वर्षा होती है पर उसके चरित्र (वितरण, तीव्रता, मात्रा तथा वर्षा दिवसों) में काफी अन्तर है। उसका चरित्र अनिश्चित है। वह बदलता रहता है। भारत के मध्य भाग की तुलना में पूर्वी भाग में रन-ऑफ की गति तेज और बरसात की मात्रा अधिक है। प्रमुख नदी कछारों को छोड़कर बाकी हिस्से चट्टानी हैं। चट्टानी हिस्सों में पानी का रिसाव कम है। चट्टानी और पहाड़ी हिस्सों में रिसाव और अपर्याप्त जल संचय के कारण प्रवाह बहाली सीमित है। इस कारण देश के मध्य तथा पूर्वी हिस्सों के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रवाह बहाली थोड़ी कठिन है लेकिन कछारी हिस्सों में प्रवाह बढ़ाया जा सकता है।

देश के अधिकांश भागों की नदियों पर अलग-अलग क्षमता के बाँध बने हैं। इस कारण रन-ऑफ का अधिकांश हिस्सा उन बाँधों की क्षमता के अनुसार जलाशय में इकट्ठा हो जाता है। बाँध के नदी मार्ग में बनाए जाने के कारण नदी का प्रवाह टूट जाता है। प्रवाह टूटने और पानी के जलाशय में जमा होने के कारण, डाउनस्ट्रीम में मूल प्रवाह की भरपाई नहीं हो पाती। ऐसे नदी-मार्गों पर प्रवाह बहाली के लिये अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता होती है।

गर्मी के मौसम की समाप्ति के समय नदी में प्रवाह की स्थिति न्यूनतम स्तर पर होती है। अनेक छोटी सहायक नदियों का प्रवाह सूख चुका होता है। वाटरटेबिल भी अपने न्यूनतम स्तर पर होता है। पर जब बरसात प्रारम्भ होती है तो वाटरटेबिल की बहाली प्रारम्भ हो जाती है। यह बहाली मुख्यतः तीन चरणों में होती है। पहले चरण में कछार का वाटरटेबिल ऊपर उठता है। दूसरे चरण में वाटरटेबिल, नदियों की तली तक पहुँचती है। तीसरे चरण में वाटरटेबिल नदी तल के ऊपर आ जाती है। पहले और दूसरे चरण के प्रभाव से नदी जिन्दा नहीं होती। नदी तीसरे चरण के प्रभाव से जिन्दा होती है। तीसरे चरण के हासिल होते ही नदी का प्रवाह बहाल हो जाता है। संक्षेप में, प्रवाह की अविरलता के लिये भूजल स्तर का नदी तल के ऊपर बने रहना आवश्यक है।

प्रवाह बहाली को यदि भूजल भण्डारों, मौसम तथा नदी के प्रवाह की घट-बढ़ से जोड़कर समझा जाये तो ज्ञात होता है कि गर्मी के मौसम में भूजल भण्डार काफी हद तक खाली हो जाते हैं। उनके काफी हद तक खाली होने के कारण अधिकांश नदियों का प्रवाह घट जाता है। कभी-कभी वे सूख भी जाती हैं। वर्षाजल, जब भूजल भण्डारों को समृद्ध करता है तो भूजल स्तर की बहाली प्रारम्भ हो जाती है। बहाली के कारण, भूजल स्तर ऊपर उठता है। पहले, वह, कछार और रेत के कणों के बीच की खाली जगह को भरता है। यदि योगदान की निरन्तरता बनी रहती है तो वह नदी में डिस्चार्ज होने लगता है। नदी प्रवाह जिन्दा हो जाता है।

कई बार, बरसात के प्रारम्भिक दिनों में नदी सूखी बनी रहती है। यह कम बारिश होने के कारण या धरती में रिसे पानी के भूजल भण्डारों और रेत के खाली स्थानों को भरने में खप जाने के कारण होता है। इस अवधि में यदि कुछ प्रवाह दिखता है तो वह अस्थायी होता है। प्रवाह की वास्तविक बहाली डिस्चार्ज की निरन्तरता सुनिश्चित होने के बाद ही हो पाती है।

प्रवाह बहाली और जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन धीरे-धीरे हकीकत बन रहा है। भारत, उसके असर से अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारण औसत तापमान में वृद्धि तथा बरसात की अनिश्चितता बढ़ रही है। तापमान की वृद्धि वाष्पीकरण को बढ़ाकर मिट्टी की नमी को तेजी से घटा रही है। बरसात के चरित्र की अनिश्चितता धरती में पानी के रिसने, बाढ़ की आवृत्ति और मिट्टी के कटाव तथा संरचना-स्थायित्व को प्रभावित कर रही है। बाढ़ और सूखा उसके संकेतक हैं।

वन क्षेत्रों से नदियों को मिलने वाले स्वाभाविक योगदान को अनवरत बनाए रखने के लिये रीचार्ज की बेहतर और टिकाऊ व्यवस्था अनिवार्य है। वही व्यवस्था धरती में नमी को लम्बे समय तक सहेजेगी। नदी, वृक्षों तथा वनस्पतियों को जलाभाव से और मिट्टी को कटाव से बचाएगी। जलवायु परिवर्तन के असर को किसी हद तक कम करेगी। वही व्यवस्था नदियों को अविरल रखेगी।

वनभूमि पर सारे काम, वन विभाग की कार्ययोजना (Working Plan) के अनुसार ही किये जाते हैं। उनमें बदलाव सम्भव नहीं होता। यह सही है कि कार्ययोजना में मिट्टी के कटाव को रोकने और नमी को बढ़ाने के लिये कन्टूर ट्रेंच, स्टेगर्ड ट्रेंच, गली प्लग या पत्थर की दीवार इत्यादि बनाई जाती हैं। पर ये सभी प्रयास अस्थायी प्रकृति के होते हैं। उनके अस्थायी प्रकृति के होने के कारण, कुछ सालों में वे गाद से पट जाते हैं और कुदरत फिर से पुराने तरीके से व्यवहार करने लगती है। उनके अप्रभावी हो जाने के कारण वे स्थायी तौर पर प्रवाह बहाली के लिये नाकाफी हैं। उनकी क्षमता को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने के लिये डिजाइनों में बदलाव/परिमार्जन आवश्यक है।

जलवायु परिवर्तन के सम्भावित खतरों और वन क्षेत्रों के घटते योगदान को ध्यान में रख मिट्टी के कटाव को कम करने और नमी बढ़ाने वाले मौजूदा कामों को बेहतर बनाना होगा और उनके वैज्ञानिक पक्ष में सुधार करना होगा। उन्हें जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाना होगा। कार्ययोजना में नदियों में प्रवाह की मात्रा और अवधि बढ़ाने वाले उपयुक्त कामों को भी सम्मिलित करना होगा। सघन वनों का रकबा बढ़ाना होगा। वन भूमि पर मिश्रित वनों को विकसित करना पड़ेगा एवं उन वृक्षों तथा वनस्पतियों को विकसित करना होगा जो स्थानीय भूमि और मौसम के अनुकूल होने के साथ-साथ नदी के प्रवाह की वृद्धि में सहायक होते हैं। नदी की इकोलॉजी से सहयोग करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा देना होगा। उपर्युक्त कामों को वन भूमि के सभी माइक्रो-वाटरशेडों में करना होगा।

बरसात का चरित्र भूजल रीचार्ज के लिये सहयोगी/असहयोगी या मिश्रित होता है। उसको, प्रवाह के पक्ष में लाने के लिये वनभूमि पर रीचार्ज को बढ़ाने और भूमि के कटाव को कम करने के लिये मिट्टी/उपमिट्टियों को जमा करने वाले कामों को बड़े पैमाने पर करना होगा। भूमि कटाव को कम करने के लिये उपयुक्त किस्म की घासों को भी बढ़ावा देना होगा। वन भूमि पर, एक ही प्रजाति के वृक्षों के स्थान पर बहु-तल्ले (Multy-layer) वाले एवं पानी को सहेजने वाले घने और वास्तविक जंगल विकसित करना होगा। कामों के परिणाम को जानने के लिये नदियों में सिल्ट और प्रवाह की मात्रा तथा अवधि की मॉनीटरिंग करना होगा। कुछ समय बाद, यदि नदी में सिल्ट की मात्रा बढ़ती है या प्रवाह कम होता है तो उपयुक्त कदम उठाए जाने चाहिए तभी प्रवाह बहाली में वन क्षेत्रों की भूमिका सुनिश्चित होगी।

एक्वीफरों के योगदान को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ

विभिन्न गहराइयों पर भूजल भण्डार पाये जाते हैं। यह सही है कि उनकी जल संचय क्षमता तथा जल प्रदान करने वाली क्षमता अलग-अलग होती है पर अवलोकन बताता है कि नदी के प्रवाह को सबसे अधिक फायदा उथले एक्वीफरों से ही मिलता है। हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों के उथले एक्वीफरों के योगदान को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के आकलन से कुछ इस प्रकार की स्थितियाँ सामने आ सकती हैं-

1. कुछ हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में कम जल भण्डारण क्षमता वाले उथले एक्वीफर मिलेंगे। जाहिर है, बरसात में वे जितने जल्दी भरेंगे, बरसात के बाद उतने ही जल्दी खाली भी हो जाएँगे। जल्दी खाली होने के कारण, वे, लम्बी अवधि तक नदी को भूजल की आपूर्ति नहीं कर पाएँगे। अर्थात कम जल भण्डारण क्षमता वाले उथले एक्वीफर प्रवाह बहाली के लिये बहुत अधिक मददगार नहीं होते पर उनके योगदान को खारिज भी नहीं किया जा सकता।

2. कुछ हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में ऐसे उथले एक्वीफर मिलेंगे जिनका लगभग सारा पानी रबी मौसम में, कुओं और नलकूपों द्वारा खींच लिया जाता है। इस कारण वे फरवरी मार्च तक खाली हो जाते हैं और गर्मी के मौसम में प्रवाह को मदद नहीं दे पाते। ऐसी इकाइयों में भूजल के दोहन के कारण नदी के प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लेकिन उनके योगदान को भी खारिज नहीं किया जा सकता।

3. कुछ ऐसे उदाहरण भी मिल सकते हैं जिनमें उथले एक्वीफरों में पर्याप्त पानी है पर तीव्र ढाल के कारण वाटर टेबल बहुत जल्दी नदी तल के नीचे उतर जाती है। इस कारण ऐसे एक्वीफरों से लम्बे समय तक भूजल की आपूर्ति सम्भव नहीं होती। यह स्थिति टिकाऊ प्रवाह के लिये किसी हद तक अनुपयुक्त हैं। वे एक्वीफर कुछ समय तक योगदान देते हैं। उस योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता।

4. चौड़ी हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में कभी-कभी अच्छे एक्वीफर मिल सकते हैं। ऐसी इकाइयाँ प्रवाह की लम्बी निरन्तरता के लिये उपयुक्त होती हैं पर उनसे लाभ तभी मिल सकता है जब उनसे, भूजल का दोहन, कुदरती रीचार्ज की तुलना में कम हो। माँग और पूर्ति के आधार पर यह नकारात्मक/सकारात्मक हो सकती है।

5. अच्छी क्षमता वाले एक्वीफरों की उपस्थिति के बावजूद कुछ ऐसी संकरी हाइड्रोलॉजिकल इकाइयाँ भी मिल सकती हैं जिनमें भूजल दोहन का स्तर रीचार्ज की तुलना में अधिक होता है। यह नकारात्मक स्थिति है। इस स्थिति में उनका प्रवाह का योगदान घट जाएगा।

6. कुछ हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में उथले एक्वीफरों को सतही सिंचाई योजनाओं का रिसा पानी मिलता है। यह पानी भूजल स्तर को ऊपर उठाने में सहायक होता है पर यदि उसे कुओं और नलकूपों द्वारा विभिन्न उपयोगों के लिये खींच लिया जाता है तो सकारात्मक परिस्थितियाँ भी नकारात्मक परिस्थितियों में बदल सकती हैं। इसके अलावा कुछ अन्य स्थितियाँ जिन्हें ऊपर सम्मिलित नहीं किया गया है, फील्ड में मिल सकती हैं। उन स्थानीय परिस्थितियों का संज्ञान लेकर रणनीति तय की जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के निर्देश पर सारे देश में एक्वीफरों की मैपिंग का काम चल रहा है। इस कारण, भविष्य में देश की सभी नदी घाटियों के एक्वीफरों के नक्शे मिल जाएँगे। उन नक्शों की मदद से एक्वीफरों की ज्यामिट्री, भूजल संचय की सम्भाव्यता इत्यादि की जानकारी मिल सकेगी। इस जानकारी के आधार पर रणनीति तय की जा सकेगी।

भूजल रीचार्ज की वस्तुस्थिति और प्रयास

भूजल के परिदृश्य की अद्यतन स्थिति (Current Status) का विवरण परिशिष्ट छह में उपलब्ध है। उस परिशिष्ट में भूजल पुनर्भरण के विभिन्न पहलुओं की भी चर्चा की गई है। विदित हो कि केन्द्रीय भूजल परिषद (नोडल संस्था) ने सन 2013 में भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिये मास्टर प्लान जारी किया है। इस मास्टर प्लान में कहा गया है कि देश में नौ लाख इकतालीस हजार पाँच सौ इकतालीस वर्ग किलोमीटर ही ऐसा इलाका है जहाँ प्राकृतिक मानसूनी रीचार्ज आधा-अधूरा है। परिषद के आकलन के अनुसार इस क्षेत्र में मानसून सीजन में भूजल स्तर, सतह से तीन मीटर नीचे तक नहीं लौट पाता। केन्द्रीय भूजल परिषद के अनुसार देश के केवल उसी क्षेत्र (नौ लाख इकतालीस हजार पाँच सौ इकतालीस वर्ग किलोमीटर) में ही कृत्रिम भूजल रीचार्ज की आवश्यकता है। केन्द्रीय भूजल परिषद के अनुसार, उस इलाकों में 85,565 मिलियन क्यूबिक मीटर वर्षाजल को भूगर्भ में उतारने की आवश्यकता है। ऐसा होने के उपरान्त, पूरे भारत में, भूजल के पुनर्भरण का लक्ष्य हासिल हो जाएगा।

भारत की लगभग सभी नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह पर संकट है। यह संकट उन क्षेत्रों की नदियों पर भी है जहाँ प्राकृतिक पुनर्भरण पूरा है। यह हकीकत इंगित करती है कि गैर-मानसूनी प्रवाह की कमी का सम्बन्ध प्राकृतिक मानसूनी रीचार्ज की कमी-बेशी से नहीं है। उसका सम्बन्ध अन्धाधुन्ध भूजल दोहन और नदियों से पानी के उठाव से है। उसका सम्बन्ध जलाशयों में प्रवाह जमा करने से है। उसका सम्बन्ध जल प्रबन्ध की कमियों से है। उन सबको नियोजित करने के उपरान्त ही प्रवाह की बहाली सम्भव है।

देश में नदियों को सूखने से बचाने के लिये कोई मास्टर प्लान अस्तित्व में नहीं है। प्रवाह बहाली या सूखती नदियों का पुनर्जीवन ही असली चुनौती है। वही आज की आवश्यकता है। उसे ध्यान में रखकर, इस मैनुअल में कुछ व्यावहारिक तथा विज्ञान सम्मत सुझाव सम्मिलित किये गए हैं।

हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों के प्राकृतिक गुण

धरती की ऊपरी परत को कुदरत ने अनेक विलक्षण और अकल्पनीय क्षमताएँ प्रदान की हैं। उस क्षमता के ही कारण बरसाती पानी का कुछ हिस्सा धरती की ऊपरी परत को सन्तृप्त कर वनस्पतियों को आवश्यक नमी/पानी उपलब्ध कराता है। उस क्षमता के ही कारण बरसाती पानी का कुछ हिस्सा विभिन्न गहराइयों में मौजूद एक्वीफरों को अलग-अलग मात्रा में समृद्ध करता है। प्रवाह की अविरलता के लिये पानी उपलब्ध कराता है। कछार की साफ-सफाई करता है। कछार में नया भूगोल गढ़ता है।

धरती की ऊपरी सतह की रीचार्ज तथा जल संचय क्षमता में विविधता है। इस विविधता के कारण, एक ही हाइड्रोलॉजिकल इकाई के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रीचार्ज या जल संचय क्षमता हो सकती है। कुछ विविधताएँ एक्वीफरों में भी होती हैं। उस कारण वे एक दूसरे से जुड़े या असम्बद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त उनसे, एक जैसी मात्रा में पानी का संचय नहीं होता, समान मात्रा में पानी की वापसी नहीं होती। वे एक साथ खाली भी नहीं होते।

हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों पर जब पानी बरसता है तब उन इकाइयों के गुण नदी के मानसूनी प्रवाह, भूजल रीचार्ज और बरसात के बाद के प्रवाह को प्रभावित करते हैं। यह प्रभाव हर जगह अलग-अलग होता है। इस कारण नदी परिवारों के प्रवाह और उसकी अवधि को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक तथा कृत्रिम घटकों को पहचानना और समझना आवश्यक है। प्रवाह पर असर डालने वाले लक्षण निम्नानुसार हैं-

1. हाइड्रोलॉजिकल इकाई का भूविज्ञान तथा संरचनात्मक लक्षण

2. हाइड्रोलॉजिकल इकाई की जोनिंग

3. हाइड्रोलॉजिकल इकाई का ड्रेनेज पैटर्न और ड्रेनेज डेंसिटी

4. हाइड्रोलॉजिकल इकाई का क्षे़त्रफल

5. हाइड्रोलॉजिकल इकाई की आकृति

6. हाइड्रोलॉजिकल इकाई का ढाल

7. अन्य हाइड्रोलॉजिकल इकाई का भूविज्ञान तथा संरचनात्मक लक्षण

हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों के भूविज्ञान में काफी विविधता होती है। इस विविधता के कारण उनके भूजलीय गुणों में भी विविधता होती है। उस विविधता के कारण उनकी जल भण्डारण क्षमता, सरन्ध्रता (प्राथमिक सरन्ध्रता से लेकर द्वित्तीयक सरन्ध्रता) और संरचनात्मक लक्षणों (जन्मजात से लेकर विभिन्न कारणों से विकसित), में अन्तर होता है। यह विविधता कहीं कम तो कहीं अधिक होती है।

आग्नेय तथा कायान्तरित चट्टानें ठोस होती हैं। उनमें जल संचय का गुण होता है पर उनमें भूजल को संचित करने और उसे मुक्त करने वाले गुणों का लगभग अभाव होता है। उन गुणों के अभाव के कारण उनसे रिसाव कम तथा रन-ऑफ अधिक होता है। इसके उलट बलुआ पत्थर (सेडीमेंटरी चट्टान) में सामान्यतः भूजल को संचित करने का जन्मजात गुण होता है। काली मिट्टी, पानी को संचित तो करती है पर उससे पानी की निकासी कठिन तथा धीमी होती है। रेतीली मिट्टी में पानी के संचय के साथ-साथ उसे मुक्त करने का गुण होता है। यह गुण उसके स्पेसिफिक इल्ड पर निर्भर होता है।

मौसम के असर से चट्टानों में भौतिक तथा रासायनिक बदलाव (अपक्शय) होता है। अपक्शय के कारण उनमें द्वित्तीयक सरन्ध्रता तथा पारगम्यता के गुण विकसित होते हैं। उस बदलाव को समझना आवश्यक है। वह बदलाव भूजल रीचार्ज या जल संचय संरचनाओं के निर्माण के लिये उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान में मददगार होता है। उसके आधार पर निस्तारी तालाब और परकोलेशन-सह-निस्तारी तालाबों की सही-सही साइट का निर्धारण किया जा सकता है।

हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में कभी-कभी फोल्ड (Fold), फाल्ट (Fault), लीनियामेंट (Lineament), दरारें, सन्धियाँ तथा गुहिकाएँ (Cavities) मिलती हैं। ये संरचनात्मक लक्षण हैं। इन संरचनात्मक लक्षणों के कारण, ठोस तथा कठोर चट्टानों में जल भण्डार विकसित होते हैं। उदाहरण के लिये फोल्डिंग के असर से कठोर चट्टानें टूटती तथा बिखरती हैं। उनके टूटने और बिखरने के कारण प्रभावित हिस्सों में खाली स्थान विकसित होते हैं। बरसाती पानी उसमें प्रवेश करता है। उस पानी के कारण उन खाली स्थानों के आसपास अपक्शय होता है और वह अपक्षीण हिस्सा भूजल संचय के लिये उपयुक्त बन जाता है। चूना पत्थर बरसाती पानी में घुलनशील है इसलिये, बरसाती पानी के असर से, चूना पत्थर में गुहिकाओं (Cavities) का निर्माण होता है। कई बार गुहिकाओं की लम्बाई कई-कई किलोमीटर तक होती है। इन गुहिकाओं में बड़ी मात्रा में जल संचय सम्भव है। उनकी मौजूदगी के चिन्ह नदियों के पैटर्न तथा प्रवाह की घट-बढ़ द्वारा प्रदर्शित होते हैं। उन लक्षणों को टोपोशीट पर भी आसानी से देखा तथा पहचाना जा सकता है।

फाल्ट के कारण चट्टानों में दो प्रकार की स्थितियाँ विकसित होती हैं। फाल्ट की सतह (Fault plane) के दोनों तरफ, चट्टानों के विपरीत दिशा में विस्थापित (Displace) होने के कारण, विस्थापित तल, बरसात के पानी के लिये सुगम मार्ग उपलब्ध कराता है। उसके कारण विस्थापित तल के दोनों ओर अपक्शय होता है। अपक्शय के कारण चट्टानों में द्वित्तीयक सरन्ध्रता तथा पारगम्यता विकसित होती है। सरन्ध्र हिस्सों में जल संचय होता है। कभी-कभी विस्थापन के दौरान, सरन्ध्र चट्टान के सामने अपारगम्य चट्टान आ जाती है। ऐसी स्थिति में बरसाती पानी, केवल सरन्ध्र चट्टानों में ही जमा हो पाता है।


कई बार ग्रेनाइट या समान गुण वाली चट्टानों की ऊपरी सतह, अपक्शय से प्रभावित होती है। अपक्शय के कारण, सामान्यतः उसकी दो से तीन मीटर मोटी परत सरन्ध्र तथा पारगम्य हो जाती है। उस सरन्ध्र तथा पारगम्य हिस्से में भूजल का संचय होता है।

लावा परतों के सन्धिस्थल पर, अपक्शय के कारण, अनेक बार दो से तीन मीटर मोटे एक्वीफरों का विकास होता है। कई बार उनको टोपोशीट/ फील्ड में आसानी से पहचाना जा सकता है। भारत के बहुत बड़े भूभाग में ग्रेनाइट तथा बेसाल्ट चट्टानें मिलती हैं। उन उपयुक्त लक्षणों की मदद से प्रवाह बढ़ाने वाले प्रयासों को मदद मिलती है।

अनेक स्थानों पर ग्रेनिटिक तथा बेसाल्टिक चट्टानों के एक्वीफर कम गहराई पर मिलते हैं। ऐसे स्थानों पर रिसाव तालाबों को, एक्वीफर की तली मिलने तक, खोदना चाहिए। ऐसा करने से जल संग्रह तथा भूजल रीचार्ज का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। ऐसे तालाबों के निर्माण से जल संचय के अलावा एक्वीफर भी सन्तृप्त होता है। प्रवाह बहाली को मदद मिलती है।

निस्तारी तालाब (जल संचय) बनाने के लिये हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों के ऐसे हिस्सों को खोजा जाना चाहिए जहाँ रीचार्ज की सम्भावना नहीं है या बहुत कम है। ऐसे भूभागों पर पर्याप्त गहराई (न्यूनतम छह मीटर गहराई) के निस्तारी तालाब बनाना चाहिए।

चित्र एक और दो में ग्रेनिटिक तथा बेसाल्टिक चट्टानों में जल संचय-सह-परकोलेशन तालाब का खड़ा काट (Verticle section) दर्शाया गया है। यह खड़ा काट दर्शाता है कि ऐसे तालाब, जल संचय के साथ-साथ एक्वीफर को भी सन्तृप्त कर सकते हैं।

हाइड्रोलॉजिकल इकाइयों में कभी-कभी लीनियामेंट, सन्धियाँ, दरारें इत्यादि पाई जाती हैं। ये संरचनात्मक लक्षण/संकेतक हैं जो एक्वीफर की उपस्थिति को दर्शाते हैं। रिमोट सेंसिंग विधि से तैयार नक्शों से लीनियामेंट की जानकारी तथा भूवैज्ञानिक रिपोर्टस से फाल्ट, फोल्ड, अपक्षीण क्षेत्रों इत्यादि की जानकारी मिल जाती है। चित्र तीन में लीनियामेंट (अलग अलग दिशाओं में जाती सरल रेखा) दर्शाए गए हैं। उल्लेखित सकारात्मक संरचनात्मक लक्षणों का उपयोग प्रवाह बहाली के लिये किया जाना चाहिए।

हाइड्रोलॉजिकल इकाई की जोनिंग

प्रत्येक हाइड्रोलॉजिकल इकाई (नदी कछार) को भूजल रिचार्ज और डिस्चार्ज की सम्भावनाओं के आधार पर तीन जोन में विभाजित किया जा सकता है। ये जोन निम्नानुसार हैं-

1. रीचार्ज जोन
2. ट्रांजीशन जोन
3. डिस्चार्ज जोन

उपर्युक्त तीनों जोन नदी कछार के अन्दर स्थित होते हैं। रीचार्ज जोन कछार की सीमा अर्थात जल विभाजक रेखा (Water divide line) से प्रारम्भ होती है। उसका विस्तार, कुछ किलोमीटर दूर तक नदी की दिशा में होता है। इस जोन में भूजल का ढाल, सतह के ढाल, से अधिक होता है।

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