पहाड़, जंगल, जमीन सब बेच दोगे अगर

Published on

(1)
झोपड़ियों के तन झुलसाती हैं
ये नदियां महानगर को जाती हैं।

सड़के हैं या पीठ अजगरों की
महानगर है या उसका फन है
धुंध धुए के फूल महकते हैं
इमारतों का यह चंदन वन है।

कटी जेब सा मन लुटवाती है
ये नदियां महानगर को जाती हैं।

ये जो रक्त शिरायें हैं
सारी पगडंडियां गांव की हैं
ये जो अपनी शब्द शिलाऐं हैं
सारी पगडंडियां गांव की हैं।

यहां हरेक नदियां खो जाती हैं
ये नदियां महानगर को जाती हैं।

(2)
मैं नदी हूं इसलिए बोलती हूं
तुम्हारे लिए राज हरेक खोलती हूं

इतनी काली सुरंग में मत डालो मुझको
प्यासे रह जायेंगे सब लोग बोलती हूं।

मेरा बोलना कुछ ही सुनते हैं यहां
बाकी बहरे हैं इसलिए बोलती हूं

बेचो मत मुझको नदी कह रही यारों
मैं तुम्हारे भले के लिए बोलती हूं।
पहाड़, जंगल, जमीन सब बेच दोगे अगर
तुम्हारा वजूद खत्म हो जायेगा बोलती हूं।

(3)
सिर भले जाये पर सेरा नहीं जाने देंगे
कौन कहता है नदी बोलती नहीं
कौन कहता है नदी सोचती नहीं

इसे कुछ लोग यहां सोने नहीं देंगे

हम रोक सकते हैं विकास गलत
हम समर्थक हैं विकास के सही

दीवार हर बांध पर न बोने देंगे

कहीं पे लोग हो रहे हैं बेघर
कहीं पे टूट गई है जमीन बेडर

हम गलत गीतें आज न गाने देंगे
सिर भले जाये पर सेरा नहीं जाने देंगें।

India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org