परिचय
दुनिया के सभी तटीय क्षेत्रों में नौवहन, ट्रोलिंग और मछली पकड़ने के अन्य संचालनों से समुद्री कछुओं और उनके अंडे विनष्ट होने के कारण यह अपने कई प्राकृतिक निवासों से लुप्त हो गए हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। कुल सात समुद्री कछुओं की प्रजातियों में से पाँच प्रजातियाँ भारत के तटीय समुद्रों में पाई जाती है और अगर सही मायनों में देखें तो चार ही प्रजातियाँ समुद्री तटों पर अंडे देने और उनके भोजन क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रजातियों में शामिल हैं लेदरबैक कछुआ (डर्मीचेरलस कोरीअसीआ), हास्कबील कछुआ (इरीटमोचेइलस इम्ब्रीकेट), लागरहैड कछुआ (केरेटा), हरा कछुआ (चेइलोनिआ मायडास) और ओलिव रिडले कछुआ (लेपीडोचेइलस ओलिविसीया)। माना जाता है कि इन प्रजातियों में ओलिव रिडले प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली प्रजाति है। विश्व में ओलिव रिडले कछुओं के घोसलों की संख्या का एक महत्त्वपूर्ण अनुपात भारत के पूर्वी तट पर पाया जाता है।
ओलिव रिडले कछुए व्यापक रूप से वितरित एक प्रजाति हैं जो बडे़ पैमाने पर प्रजनन या अंडे देने का प्रदर्शन करता है, जिसे आरीबादाज (या आरिबाझान जोकि एक स्पेनिश शब्द है) के रूप में परिभाषित किया जाता है। ओलिव रिडले कछुओं का सबसे अधिक प्रजनन या घोसले ओडिशा के गहीरमाथा, ऋषिकुल्या और देवी नदी के मुहाने पर दिखाई देते हैं। इन सब में गहीरमाथा इन घोसलों का सबसे बड़ा क्षेत्र है जहाँ एक साल में एक साथ 1,00,000 समुद्री कछुए घोसलें बनाने के लिये आते हैं और कभी-कभी तो इनकी संख्या 6,00,000 तक पहुँच जाती है। समुद्री कछुओं की व्यापक संख्या और प्रतीयमान होने के बावज़ूद, इन कछुओं की आबादी मानव द्वारा किए गए शोषण, मत्स्य वास के नष्ट होने और मछली पकड़ने की व्यापक गतिविधियों से जर्जर हो गई।
अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने इस प्रजाति को वर्तमान में लुप्त प्राय प्रजातियों की सूची में शामिल किया है। यह समुद्री कछुए विश्व की लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल होने के कारण अन्तरराष्ट्रीय समुदाय भारत से इन समुद्री कछुओं के घोसलों को सुरक्षित स्थान और इनकी आबादी जो भोजन प्रजनन के लिये समुद्री तटों पर आती हैं, उन्हें संरक्षण देने की अपेक्षा रखता है। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में लुप्तप्राय प्रजाति के जीव-जन्तु परिशिष्ट सूची (CITES) ने ओलिव रिडले कछुओं को परिशिष्ट 1 में (अन्तरराष्ट्रीय व्यापार से निषिद्ध) शामिल किया गया है।
समुद्री कछुओं की आबादी के कम होने के कुछ कारण :
शीशु कछुआ
झिंगा महाजाल मछली पकड़ (ट्रोलिंग) को दुनिया में समुद्री कछुओं की भारी संख्या में विनाश के कारण के रूप में जाना जाता है। जब से महाजाल मछली पकड़ प्रयोग में है, यह देखा गया है कि इस जाल में समुद्री कछुओं के पकड़े जाने और उनके मारे जाने की तादाद में भारी इजाफा हुआ है। यांत्रिकी तकनीकों के साथ महाजाल मछली पकड़ना सिर्फ समुद्री कछुओं के जीवन को बल्कि मछली पकड़ने वाले स्थानीय समुदाय की जीवनशैली इन दोनों को खतरे में डालता है। समुद्री कछुओं की असामयिक मृत्यु का प्रमुख कारण अवैध रूप से अपतटीय दायरे में होने वाली महाजाल मछली पकड़ और गिलनेट जाल है। भारत के समुद्री तटों के पास के पानी में (10 फैदम) यांत्रिकी तौर तरीकों से मछली पकड़ने पर प्रतिबंध होने के बावजूद मछुआरे महाजाल मछली पकड़ का इस्तेमाल करते आ रहे हैं और पिछले 15 वर्षों में कछुओं की मृत्युदर में वृद्धि चिंताजनक है। कछुआ अपवर्जन उपकरणें (TED) का प्रयोग महाजाल (ट्राल नेट) में अनिवार्य है, परंतु मछुआरे उसका प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं करते। एक अनुमान के तहत गैर इरादतन पकड़े जाने से मरने वाले कछुओं की संख्या 4 से 5 प्रति महाजाल नौका है जो बहुत ज्यादा है।
1. समुद्री तटों पर लगाए गए नारियल के पेड़ कोकस न्यूसीफेरा के बागान और कासुआराना वृक्ष प्रजनन के दौरान कछुओं की मृत्यु के कारण बनते नजर आ रहे हैं।
2. स्थानीय लोगों द्वारा समुद्री कछुओं के अंडों और वयस्कों का शिकार और तटीय क्षेत्रों में विकासपरक गतिविधियों से समुद्री कछुओं की आबादी के लिये खतरा है। स्थानीय लोगों के द्वारा इन कछुओं के अंडों के शिकार की प्रवृत्ति भारत के ज्यादातर समुद्री तटों पर दिखाई देती है।
युवा कछुए समुद्र की ओर बढ़ते हुए
3. मछली पकड़ने की जाल में फँसे और घायल कछुओं को मांस के लिये अक्सर स्थानीय लोगों के द्वारा मार दिया जाता है। कई लोग धार्मिक आस्था के चलते इन कछुओं को भगवान विष्णु का अवतार मान छोड़ देते हैं। परंतु अधिकतर भारत के तटीय गाँवों में इन कछुओं का मांस 250 से 500 रुपये किलो तक बेचते देखा गया है।
4. समुद्री तटों पर रेत का खनन इन कछुओं के लिये एक उभरते हुए खतरे के रूप में देखा जाता है। कई समुद्री तटों पर वास्तु निर्माण हेतु रेत का खनन किया जाता है तो कई बार तट पर कम हुई रेत को बढ़ाया जाता है, इससे समुद्री कछुओं के घोसलों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं।
5. समुद्री तटों और इनके नजदीकी घरों से आती कृत्रिम रोशनी इन कछुओं के लिये हानिकारक है। शिशु कछुए रेत से बाहर आने के बाद समुद्र की ओर जाने के बजाय इस कृत्रिम रोशनी की ओर आकर्षित होकर उल्टी दिशा में प्रवास करते हैं, परिणामस्वरूप इस भटकाव के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
दुनिया के सभी तटीय क्षेत्रों में नौवहन, ट्रोलिंग और मछली पकड़ने के अन्य संचालनों से समुद्री कछुओं और उनके अंडे विनष्ट होने के कारण यह अपने कई प्राकृतिक निवासों से लुप्त हो गए हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। कुल सात समुद्री कछुओं की प्रजातियों में से पाँच प्रजातियाँ भारत के तटीय समुद्रों में पाई जाती है और अगर सही मायनों में देखें तो चार ही प्रजातियाँ समुद्री तटों पर अंडे देने और उनके भोजन क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण हैं। इन प्रजातियों में शामिल हैं लेदरबैक कछुआ (डर्मीचेरलस कोरीअसीआ), हास्कबील कछुआ (इरीटमोचेइलस इम्ब्रीकेट), लागरहैड कछुआ (केरेटा), हरा कछुआ (चेइलोनिआ मायडास) और ओलिव रिडले कछुआ (लेपीडोचेइलस ओलिविसीया)। माना जाता है कि इन प्रजातियों में ओलिव रिडले प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली प्रजाति है। विश्व में ओलिव रिडले कछुओं के घोसलों की संख्या का एक महत्त्वपूर्ण अनुपात भारत के पूर्वी तट पर पाया जाता है।
ओलिव रिडले कछुए व्यापक रूप से वितरित एक प्रजाति हैं जो बडे़ पैमाने पर प्रजनन या अंडे देने का प्रदर्शन करता है, जिसे आरीबादाज (या आरिबाझान जोकि एक स्पेनिश शब्द है) के रूप में परिभाषित किया जाता है। ओलिव रिडले कछुओं का सबसे अधिक प्रजनन या घोसले ओडिशा के गहीरमाथा, ऋषिकुल्या और देवी नदी के मुहाने पर दिखाई देते हैं। इन सब में गहीरमाथा इन घोसलों का सबसे बड़ा क्षेत्र है जहाँ एक साल में एक साथ 1,00,000 समुद्री कछुए घोसलें बनाने के लिये आते हैं और कभी-कभी तो इनकी संख्या 6,00,000 तक पहुँच जाती है। समुद्री कछुओं की व्यापक संख्या और प्रतीयमान होने के बावज़ूद, इन कछुओं की आबादी मानव द्वारा किए गए शोषण, मत्स्य वास के नष्ट होने और मछली पकड़ने की व्यापक गतिविधियों से जर्जर हो गई।
अन्तरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने इस प्रजाति को वर्तमान में लुप्त प्राय प्रजातियों की सूची में शामिल किया है। यह समुद्री कछुए विश्व की लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल होने के कारण अन्तरराष्ट्रीय समुदाय भारत से इन समुद्री कछुओं के घोसलों को सुरक्षित स्थान और इनकी आबादी जो भोजन प्रजनन के लिये समुद्री तटों पर आती हैं, उन्हें संरक्षण देने की अपेक्षा रखता है। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में लुप्तप्राय प्रजाति के जीव-जन्तु परिशिष्ट सूची (CITES) ने ओलिव रिडले कछुओं को परिशिष्ट 1 में (अन्तरराष्ट्रीय व्यापार से निषिद्ध) शामिल किया गया है।
समुद्री कछुओं की आबादी के कम होने के कुछ कारण :

1. समुद्री तटों पर लगाए गए नारियल के पेड़ कोकस न्यूसीफेरा के बागान और कासुआराना वृक्ष प्रजनन के दौरान कछुओं की मृत्यु के कारण बनते नजर आ रहे हैं।
2. स्थानीय लोगों द्वारा समुद्री कछुओं के अंडों और वयस्कों का शिकार और तटीय क्षेत्रों में विकासपरक गतिविधियों से समुद्री कछुओं की आबादी के लिये खतरा है। स्थानीय लोगों के द्वारा इन कछुओं के अंडों के शिकार की प्रवृत्ति भारत के ज्यादातर समुद्री तटों पर दिखाई देती है।

4. समुद्री तटों पर रेत का खनन इन कछुओं के लिये एक उभरते हुए खतरे के रूप में देखा जाता है। कई समुद्री तटों पर वास्तु निर्माण हेतु रेत का खनन किया जाता है तो कई बार तट पर कम हुई रेत को बढ़ाया जाता है, इससे समुद्री कछुओं के घोसलों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं।
5. समुद्री तटों और इनके नजदीकी घरों से आती कृत्रिम रोशनी इन कछुओं के लिये हानिकारक है। शिशु कछुए रेत से बाहर आने के बाद समुद्र की ओर जाने के बजाय इस कृत्रिम रोशनी की ओर आकर्षित होकर उल्टी दिशा में प्रवास करते हैं, परिणामस्वरूप इस भटकाव के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है।
तालिका 1. भारत मे समुद्री कछुओं के संरक्षण के लिये कार्य करते संगठन | ||||
क्र. सं. |
संगठन का नाम |
वर्ष |
कार्यस्थल |
प्रजाति |
1. |
छात्र समुद्री कछुआ संचालन |
1988 |
चेन्नई |
ओलिव रेडले |
2 |
अंडमान और निकोबार पर्यावरण दल |
1988 |
अंडमान और निकोबार द्वीप |
लेदर बैक कछुआ, ओलिव रीडले कछुआ और हास्कबील कछुआ |
3. |
वन्यजीव संरक्षण सोसायटी, भारत |
1994 |
- |
वन्यजीव उत्पादों के अवैध व्यापार पर रोक |
4. |
समुद्री कछुए संरक्षण समूह |
1991 |
आंध्र प्रदेश |
ओलिव रिडले |
5. |
वन्यजीव सोसायटी, ओडिशा |
1994 |
ओडिशा |
ओलिव रिडले |
6. |
विशाखा पशु क्रुरता निवारक सोसायटी |
1995 |
आंध्र प्रदेश |
ओलिव रिडले |
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