पुस्तकें
सृष्टि का दुःदोहन
ऊपर असीम नभ का वितान
नीचे अवनि का विकल वदन
वसन हीन तरु करते प्रलाप
गिरिवर का तप्त झुलसता मन
भोर लाज से हो रही लाल
दिवस व्यथित हो रहा उदास
सांध्य पटल पर गहन तिमिर
करने को आतुर प्रलय हास
उद्दाम तरंगें सागर की
सब कूल-किनारे तोड़ चलीं
उन्मुक्त लालसा मानव की
प्रकृति की छवि मानो लील चली
उन्मादों के अथाह उल्लासों में
डूबा रहता है मनुज आज
दुस्सह बनता जाता जीवन
सज्जित है काल का क्रूर साज
सृष्टि के दुरूह दुःदोहन से
यूं अणु अणु कम्पित होता है
जलहीन सरित की धार देख
कर्ता का अंतस रोता है !!
