तो सूख जाएंगे मसूरी, नैनीताल, शिमला और दार्जिलिंग ?
पहाड़ हमेशा से ही अपनी अलौकिक सुंदरता की तरफ हर किसी को आकर्षित करते आए हैं। इसलिए अधिकांश पर्यटक सुकून की तलाश में पहाड़ों का रुख़ करते हैं। कल-कल निनाद करती विभिन्न नदियों को उद्गम स्थल भी पहाड़ ही है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि ‘पहाड़ का पानी पहाड़ के काम नहीं आता। वो तो बहता हुआ मैदानी इलाकों में चला जाता है और पहाड़ के लोगों के हाथ ‘जल’ के नाम पर ‘जल संकट’ की मायूसी लगती है।’’ पहाड़ों पर जल के जो संसाधन बचें हैं, वे अनियमित विकास के कारण सूख गए हैं, या सूखने की कगार पर हैं। कुछ से पाइप के माध्यम से पेयजल योजनाएं संचालित की जा रही हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पहाड़ सूख रहे हैं। जमीन बंजर होती जा रही हैं। पहाड़ों पर स्प्रिंग्स अंतिम सांस ले रहे हैं। जिससे नदियों का प्रवाह भी बाधित हो रहा है। ऐसे में पहाड़ पानी की किल्लत का सामना कर रहे हैं और विश्व विख्यात पर्यटन स्थलों जैसे नैनीताल, मसूरी, शिमला, शिलांग और दार्जिलिंग पर सूखने का खतरा मंडरा रहा है।
मसूरी ‘उत्तराखंड’ का एक पर्वतीय शहर होने के साथ ही पर्यटन स्थल भी है, जहां हर साल 25 लाख से ज्यादा पर्यटक आते हैं, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार मसूरी की जनसंख्या 30118 है। मसूरी में करीब 22 स्प्रिंग्स है। इन्हीं स्प्रिंग्स पर मसूरी की जनता पानी के लिए निर्भर है, लेकिन यहां आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। तो वहीं पर्यटकों की संख्या में भी हर साल इजाफा हो रहा है। इससे यहां पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। नियमित तौर पर अनियमित विकास कार्यों को करते दौरान स्प्रिंग्स के कैचमेंट एरिया का ध्यान नहीं रखा जा रहा और वे सूखते जा रहे हैं या सूख चुके हैं। सेडार (CEDAR) के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर विशाल सिंह ने बताया कि ‘‘मसूरी में पानी की डिमांग और सप्लाई के बीच 50 प्रतिशत का गैप है। इसका कारण अनियोजित शहरीकरण है। नीचे बहकर आए मूसरी के पानी को टैंकरों में भरकर मसूरी के ही लोगों को बेचा जा रहा है।’’ टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक मूसरी में पानी की मांग करीब 17.5 एमएलडी है, लेकिन सप्लाई केवल 7.67 एमएलडी ही की जाती है। जल संकट की यही स्थिति नैनीताल में है।
नैनीताल में एक समय पर ‘पर्दादारा’ स्प्रिंग से पूरे नैनीताल को पानी की सप्लाई की जाती थी, लेकिन यहां भी भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना किए गए अनियोजित शहरीकरण के कारण प्राकृतिक स्रोत सूख गए। पर्यटकों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। एक आंकलन के अनुसार नैनीताल में हर दिन 3 से 4 चार हजार पर्यटक वाहन आते हैं। कई बार पुलिस वाहनों को ये कहकर वापिस भेज देती है कि ‘नैनीताल में वाहनो के लिए जगह नहीं है।’’ विशाल सिंह बताते हैं कि ‘‘ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि 18 एमएलडी पानी नैनी झील से निकालना पड़ता है और फिर यही पानी यहां के लोगों को सप्लाई किया जाता है। एक तरह से नैनीताल की जनता पानी के लिए नैनीझील पर निर्भर है, लेकिन झील भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।’’
दरअसल, ऐसा माना जाता है कि नैनीझील की गहराई 90 फीट से अधिक है। बारिश का पानी, बर्फबारी के बाद मिलने वाला पानी और प्राकृति जल स्रोत ही नैनी झील के प्राण हैं। झील के नीचे भी कई स्रोत हैं। इन सभी के माध्यमों से ही झील को पानी मिलता है। 19वीं शताब्दी में कई प्रमाण भी मिले थे, जिनसे पता चलता है कि नैनी झील को करीब 321 प्राकृतिक जल स्रोतों से पानी मिलता था। इसी झील के पानी की सप्लाई नैनीताल की जनता की प्यास बुझाने के लिए पेयजल के रूप में भी की जाती थी और वर्तमान में भी की जा रही है, लेकिन अनियमित विकास और अवैध निर्माण के कारण इन जल स्रोतों के मार्ग पर भवनों का निर्माण कर इन्हें बंद कर दिया गया है। डामरीकरण के चलते बारिश का पानी भी जमीन के अंदर पहुंचने के बजाए नालों में बह जाता है। तो वहीं नैनी झील को जल पहुंचाने का मुख्य स्त्रोत ‘‘सूखाताल’’ को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। विदित है कि सूखाताल एक दलदलीय क्षेत्र है, जिसे अंग्रेजी में वैटलैंड कहते हैं। ये बरसात के दिनों में पानी से लबालब भरा रहता था, और साल के बाकी दिनों में दलदलीय क्षेत्र के रूप में इसकी पहचान थी। सूखाताल से ही नैनी झील को 40 से 50 प्रतिशत पानी प्राप्त होता था, जो रिस-रिस कर नैनी झील तक पहुंचता था, लेकिन शासन और प्रशासन ने सूखाताल के महत्व को हाशिये पर रखा। सूखाताल अतिक्रमण की भेंट चढ़ता गया। वर्तमान में सूखाताल पर भवन बने हुए हैं और शेष बचा क्षेत्र डंपयार्ड के रूप में नजर आता है। वहीं जलवायु परिवर्तन का असर भी नैनी झील पर पड़ रहा है।
वर्ष 2017 में नैनी झील का जल्स्तर काफी कम हो गया था। पानी कम होने से कई टापू उभर आए थे। तीन मई 2016 को कुमाऊं विवि के भूगर्भ विज्ञानी प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया ने अध्ययन करने के लिए तल्लीताल आर्मी हाॅली-डे होम के समीप जेसीबी से खुदाई कराई। अध्ययन के दौरान जांच में पता चला कि 40 हजार साल पहले बनी नैनी झील 20 मीटर तक मिट्टी जमा हो चुकी है। दूसरी झीलों में एक हजार साल में 30 सेमी गाद भरती है, जबकि नैनी झील में एक साल में एक सेमी गाद भर रही है। वहीं वर्ष 2018 में नैनी झील का जल स्तर 18 फीट तक नीचे चला गया था, जो कि एक रिकाॅर्ड है। सेडार (CEDAR) के एक्जीक्यूटिक डायरेक्टर ‘‘विशाल सिंह ने बताया कि 1841 (झील की खोज का वर्ष) से वर्ष 2000 के बीच दो ही बार झील का पानी इतना कम हुआ था, लेकिन वर्ष 2000 से अब तक ऐसी घटनाएं दस बार हो चुकी हैं, जो कि एक चेतावनी है।’’
पानी का यही संकट हमने कुछ वर्ष पहले शिमला में भी देखा था। जहां पानी के लिए लोगों की लंबी लंबी लाइन लगी थी। शिमला में भी जल संकट का कारण पानी के सूखते प्राकृतिक स्रोत हैं। पर्यटकों की बढ़ती संख्या पानी के संसाधनों का पर और ज्यादा दवाब बढ़ा देते हैं। सिटिजन मैटर्स पर प्रकाशित एक खबर के अनुसार ‘‘शिमला में 2018 के जल संकट के दौरान पानी की सप्लाई 44 एमएलडी से घटकर 18 एमएलडी हो गई थी। यही स्थिति शिलांग और दार्जिलिंग जैसे विभिन्न पर्वतीय इलाकों की है। उत्तराखंड का अल्मोड़ा भी भीषण जल संकट से जूझ है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अल्मोड़ा में करीब 360 स्प्रिंग्स हुआ करते थे, लेकिन अब केवल 60 ही बचे हैं। जिनसे से कई सूखने की कगार पर पहुंच चुके हैं, जबकि कुछ में जल की गुणवत्ता काफी खराब है। हिम्मोत्थान के प्रोग्राम ऑफिसर डाॅ. सुनेश कुमार शर्मा ने बताया कि पहाड़ों में पानी का मुख्य स्रोत स्प्रिंग्स हैं। इन्हें बचाने के लिए स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट के कार्यों को करने की जरूरत है।’’ सेडार (CEDAR) के एक्जीक्यूटिक डायरेक्टर विशाल सिंह ने बताया कि ‘‘उन्होंने हिंदू कुश हिमालय पर हाल ही में शोध किया है। शोध में सामने आया कि हिमालय तेजी से पिघल रहा है। जिससे भारत सहित आठ देशों में जल संकट गहराएगा। इससे इंडियन हिमालयन रीजन भी प्रभावित होंगे। जिनमें मसूरी, नैनीताल, दार्जिलिंग, शिलांग, शिमला जैसे पर्वलीय शहरों के लिए समस्या बढ़ जाएगी।’’
बढ़ता जल संकट केवल पहाड़ी इलाकों के लिए ही नहीं, बल्कि मैदानी इलाकों के लिए भी समस्या है। क्योंकि मैदानों को पानी पहाड़ों से ही मिलता है। यदि पहाड़ सूख जांएगे और मैदान में भी सूखा पड़ेगा। ऐसे में जल संरक्षण बेहद जरूरी है। जिसके लिए सतत विकास के माॅडल पर ध्यान देना होगा। इसके लिए जल स्रोतों के कैंचमेंच क्षेत्रों को संरक्षित करना होगा। जल संरक्षण और वर्षा संग्रहण के कार्यो। को प्राथमिकता देना जरूरी है। साथ को भी अपन व्यवहार में परिवर्तन लाते हुए जल बचाने का हर संभव प्रयास करना होगा। इसके लिए वाटरशेड और स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट के कार्य बेहद जरूरी है। हर भवन, यहां तक कि सरकारी भवनों में भी वर्षा जल संग्रहण अनिवार्य कर देना चाहिए। तभी जल संकट से बचा जा सकेगा। यदि फिर भी हमने जागरुक होते हुए उपाय नहीं किए तो ये सुंदर पर्वतीय इलाके सूख जाएंगे और इनका सौंदर्य केवल किताबों में दर्ज रहेगा।
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