प्रस्तावना
जल अत्यन्त महत्वपूर्ण और अपर्याप्त प्राकृतिक संसाधनों में से एक है, जो जीवन, जीवकोपार्जन, कृषि, चिरस्थायी सामाजिक विकास के साथ-साथ पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिये अति आवश्यक है कि नवीकरणीय उपलब्धता सीमित तथा क्षीणता/ह्रास व अपकर्ष के प्रति वेदनीय है। राज्य भरपूर जल संसाधन से सम्पन्न है, जहां इसकी उपलब्धता प्रचुर है, परन्तु वहीं दूसरी ओर जल के विविध उपयोगों यथा असमान वितरण, पेय और घरेलू उपयोग, सिंचाई, विद्युत (पन-बिजली) औद्योगिक आदि की मांग में वृद्धि होने के कारण इसकी अपर्याप्तता प्रकट हो रही है, जो जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ और अधिक बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त, राज्य को एक या सभी क्षेत्रों में बारम्बार बाढ, भूस्खलन, मृदाक्षरण, बादल-फटने और सूखे की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, असंगत वितरण, विभिन्न जल उपभोक्ता समूह में विवादों, जल संसाधन के नियोजन, प्रबंधन एवं उपयोग एकीकृत परिदृश्य में अभाव होने के कारण उपयोगी जल की उपलब्धता में उत्तरोत्तर कमी होती जायेगी।
राज्य जल नीति का उद्देश्य राज्य में वर्तमान स्थिति का परिज्ञान लेना तथा राज्य के उपयोज्य, पारिस्थितिकीय एवं विकास अभिज्ञता पर आधारित जल संसाधन के नियोजन, विकास एवं प्रबंधन हेतु ढांचा प्रस्तावित करना है।
1.0 जल की उपलब्धता तथा वर्तमान परिदृश्य
1.1 उत्तराखण्ड राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र 53,483 वर्ग किलोमीटर लगभग 24,295 वर्ग किलोमीटर (45.43 प्रतिशत) वनावरण एवं 3,550 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग 917 हिमनद हैं, जहां से उत्तर भारत की प्रमुख बारहमासी नदियों का उद्गम होता है। राज्य में औसतन 1,495 मिलीमीटर (मिमी) वार्षिक अवक्षेपण होता है तथा यह अवक्षेपण 53,483 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में आच्छादित होता है, जिसका आयतन लगभग 79,957 मिलियन किलोलीटर आंकलित की गयी है। राज्य के जनमानस व पशुधन, कृषि तथा उद्योग हेतु आवश्यक कुल जल की जरूरत वार्षिक वर्षा-जल के मात्र 3 प्रतिशत ही आंकलित की गयी है। यद्यपि, वार्षिक अवक्षेपण स्थान और समय के सापेक्ष अत्यधिक ही असमान है और मुख्य रूप से वर्ष में केवल 100 दिन तक की सीमित होता है, जिसका अधिकांश भाग तीव्र ढलानों से बह जाता है।
1.2 राज्य के कुल लगभग 1.55 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में 1.13 मिलियन हेक्टेयर फसली भूमि है, जिसमें फिलहाल 0.56 मिलियन हेक्टेयर सिंचित एवं शेष 0.57 मिलियन हेक्टेयर (मैदानी इलाकों में लगभग 12 प्रतिशत और पर्वतीय क्षेत्रों में 88 प्रतिशत असिंचित भूमि) अभी तक असिंचित है। वर्ष 2016-17 में उत्पादित 1.82 मिलियन टन अनाज के उत्पादन को वर्ष 2025 तक 2.5 मिलियन टन तक बढ़ाना होगा।
1.3 राज्य में उपलब्ध कुल 2.27 बिलियन घनमीटर वार्षिक पुनः पूर्तियोग्य भूजल संसाधन में शुद्ध वार्षिक भूमिगत जल की उपलब्धता मात्र 2.10 बिलियन घनमीटर है। 66 प्रतिशत समग्र भूजल विकास के दृष्टिगत सिंचाई व घरेलू तथा औद्योगिक प्रयोजन हेतु वार्षिक भूजल-दोहन क्रमशः 1.34 बिलियन घनमीटर तथा 0.05 बिलियन घनमीटर अनुमानित किया गया है।
1.4 राज्य के जल संसाधनों के आवंटन में जल के पेयजल एवं घरेलू उपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की जायेगी। राज्य को शहरी और ग्रामीण दोनो क्षेत्रों के समस्त आबादी को पर्याप्त शुद्ध पेयजल एवं मलजल-सफाई सुविधाएं (जनधन व पशुधन दोनो के लिये) मुहैया कराना है।
जल विद्युत
1.5 राज्य की कुल जल विद्युत संस्थापन क्षमता 27039 मेगावाट आंकी गयी है, जिसके सापेक्ष अब तक लगभग 3972 मेगावाट का दोहन ही किया जा सका है। अतः इसके लिए जल-शक्ति नीति की आवश्यकता समय की मांग है, जो पर्यावरणीय सरोकारों के साथ जल विद्युत के विकास को संबोधित करें क्योंकि जलविद्युत विकास तथा उर्जा का अनुवर्ती प्रेषण का अन्योन्य सम्बन्ध नदी के प्रति-प्रवाह, अनु-प्रवाह तथा मार्गस्थ जल एवं भूमि उपयोगों से है।
उद्योग
1.6 राज्य औद्योगिक विकास नीति के अंतर्गत राज्य में पर्यावरणीय अनुकूल उद्योगों में तीव्र वृद्धि की परिकल्पना की गई है। राज्य की वर्तमान औद्योगिक स्थिति इसके विकास की बृहत पैमाने पर आकस्मिक वृद्धि की आवश्यकता प्रदर्शित करती है, जिससे की उपयोज्य हेतु इसकी मांग बहुत अधिक बढे़गी।
पारिस्थितिकीय और स्वास्थ्य
1.7 पारिस्थतिकीय, मनोरंजनात्मक तथा अन्य प्रयोजनार्थ समुचित प्राविधान किए जाने की आवश्यकता है। जल की मात्रा, इसका प्रदूषण से बचाव/सुरक्षा और जल संबंधी स्वास्थ्य खतरों के प्रति-सुरक्षोपाय का भी संज्ञान लिया जाना चाहिये।
1.8 राज्य के जल संसाधन (सतही और भूमिगत जल) की उपलब्धता और वर्तमान उपयोग की स्थिति व वर्ष 2040 तक की आवश्यकताओं की पूर्ति के दृष्टिकोण से इस सीमित संसाधन का न्यायसंगत एंव इष्टतम दोहन, उपयोग, संरक्षण तथा प्रबंधन अत्यावश्यक है।
1.9 राज्य के अन्तर्गत जल-निकायों में पाये जाने वाले जलीय जैव विविधता के सुरक्षा हेतु आवश्यक कदम उठाए जायेंगे। यथोचित विधिक ढांचे एंव उपनियमों के द्वारा झीलों व नदियों के कुछ हिस्सों का किसी भी प्रकार के दोहन को संरक्षित करने की आवश्यकता है। राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण को इस अधिनियम को सुनिश्चित करने के लिए प्राधिकृत किया जाएगा।
2.0 जल नीति की दूरदर्शिता
2.1 जल का अधिकार - जल उपयोग एवं आवंटन समानता तथा सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को उनके जीवन की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर सुधार के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्य और स्वच्छता के दृष्टिगत सुरक्षित शुद्ध पेयजल एंव स्वच्छता प्राप्त करने का अधिकार है।
2.2 सर्व/सार्वजनिक आर्थिक, पर्यावरण एवं सामाजिक कल्याण - राज्य के प्राकृतिक जल संसाधनों को इस प्रकार संरक्षित व व्यवस्थापित करना चाहिए कि चिरस्थायी कृषि संवृद्धि, जल-विद्युत क्षमता का अनुकूलतम दोहन और औद्योगिक-विकास आदि के प्रभावी विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु उचित गुणवत्तायुक्त जल आवश्यक मात्रा में उपलब्ध हो।
2.3 जल संसाधन के प्रबंधन एवं उपयोग में सभी सरकारी स्तरों की भागीदारी - जल संसाधनों के संरक्षण, विकास एंव प्रबंधन में पंचायतीराज संस्थाओं की सक्रिय भागीदारी एंव भूमिका होगी। राज्य सरकार के क्षेत्रीय संस्थान द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को भी जल संरक्षण और पुनर्भरण उपायों, घरेलू, वाणिज्यिक एंव उद्योगों की लगातार बदलती मांगो को सम्मिलित करते हुए मानवीय कचरा आधारित शुद्ध पेय-जलापूर्ति प्रणाली के नियोजन, परिकल्पन, निर्माण, संचालन एंव अनुरक्षण में मदद करेगी।
2.4 जल आंवटन प्राथमिकताएं - प्रणाली के नियोजन तथा संचालन में राज्य की जल आवंटन प्राथमिकतायें पेयजल, स्वच्छता/मलजल-सफाई एंव पशुधन आवश्यकताओं, सिंचाई, पारिस्थितिकी, वनीकरण, जैव विविधता, पर्यावरणीय-पर्यटन, जल विद्युत उत्पादन, कृषि-आधारित उद्योगों, गैर-कृषि आधारित उद्योगों, नौपरिवहन व अन्य उपयोगों हेतु विनिर्दिष्ट होगा।
2.5 जल पारिस्थितिक - तंत्र के संपोषण के लिये आवश्यक है। अतः जलीय-जीवन यथा वनस्पति एवं जीव-जन्तु हेतु इष्टतम पारिस्थितिक आवश्यकताओं को जल संसाधन योजनाओं के नियोजन, विकास एवं अनुरक्षण के दौरान उचित महत्व देना होगा। विनियमित प्रणाली के तहत निम्न प्रवाह मौसम में आधार प्रवाह के अंशदान को सम्मिलित कर उच्च एंव निम्न प्रवाह निस्सरण, जो नदी के प्राकृतिक प्रवाह स्थिति के अनुपातिक हो, को सुनिश्चित करते हुए नदी के न्यूनतम प्रवाह को पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उपयोग में नहीं लाया जायेगा। जल प्रबंधन से सम्बन्धित निर्णयों में जल संसाधन उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सम्मिलित करना होगा। जल-उपयोग की गतिविधियों को स्थानीय भू-जलवायु एवं जल-विज्ञान संबंधी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनियमित करना होगा।
2.6 सरकार को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर परंपरागत जल संरचनाओं तथा जल निकायों जैसे तालाबों/झीलों के पुनरोद्धार तथा इसके अतिरिक्त अनुकूल कृषि-कार्यनीतियों एवं सस्य-स्वरूप, उन्नत जल अनुप्रयोग तरीकों (जैसे कि स्प्रिंकलर/छिड़काव व ड्रिप/द्रप्त सिंचाई) एवं भूमि-समतलीकरण आदि के साथ-साथ जल-भंडारण क्षमता में वृद्धि करने के लिये प्रोत्साहित करना होगा। कृषि युक्ति विकासन, मृदा-क्षरण न्यूनीकरण और मृदा-उर्वरता सुधार हेतु वैज्ञानिक निविष्टयों पर आधारित भू-मृदा-जलप्रबंधन में हितधारकों को बढ़ावा दिया जाएगा।
2.7 आदिकाल की समस्त सभ्यताएं तथा यहां तक की वर्तमान में घनी आबादी वाले शहर भी नदी के किनारे बसे हैं। विविध उपयोगों के लिये जल-संसाधनों के विकास एवं अनुरक्षण में हितधारकों/समुदायों की भागीदारी राज्य के जल के बेहतर प्रबंधन एवं सदुपयोग में तथा खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में जनसंख्या पलायन को रोकने में मदद करेगी।
नीति
1.0 समस्त जल संसाधनों को राज्य द्वारा सार्वजनिक न्याय सिद्धांत के तहत राज्य को मुख्य धरोहरी के तौर पर आम-जन-समुदाय-संसाधन के रूप में माना जायेगा।
2.0 मानवीय, सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकी जरूरत को ध्यान में रखते हुए जल संसाधनों का नियोजन, विकास एवं प्रबंधन स्थानीय, क्षेत्रीय, राज्य तथा राष्ट्रीय संदर्भ में स्वस्थ पर्यावरणीय व्यवस्था पर आधारित सर्वनिष्ठ समेकित संदर्श द्वारा अधिनियंत्रित किया जाएगा।
3.0 राज्य के समस्त जल संसाधनों को मानचित्रित, राजस्व अभिलेख के रूप में सरकारी जल संसाधन निर्देशिका में सूचीबद्ध तथा उपयोगी संसाधनों की कोटि में हर मुमकिन हद तक लाया जायेगा। राज्य के जल संसाधनों के नियोजन एवं विकास को सुनिश्चित करने हेतु विभिन्न जल-प्रक्षेत्रों में झरना व नदी-नालों के अन्वेषीकरण, जल-विज्ञानी प्रमात्रण के उद्देश्य से उनके प्रवाह व गुणवत्ता का अनुश्रवण, इन संसाधनों की स्थिति, विभिन्न उपयोगों एवं दीर्घकालिक प्रचलन हेतु उनके सामयिक व्यवहार/अभाव तथा पेय-योग्यता/अनुकूलता के आधार पर विभाजित किया जाएगा।
4.0 पेय एवं स्वच्छता/मलजल - सफाई हेतु सुरक्षित जल को अन्य मूलभूत घरेलू (पशुधन सहित) आवश्यकताओं, खाद्य-सुरक्षा, सहायक जीवनाधार कृषि तथा न्यूनतम पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय-तन्त्र प्राप्त करने हेतु उच्च प्राथमिकता आवंटन करने के पश्चात प्रथम जरूरत मानी जायेगी। वैज्ञानिक विनियमित प्रणाली के माध्यम से पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नदी का न्यूनतम प्रवाह अबाध रखा जाएगा।
5.0 जल-विद्युत, वाणिज्यिक एंव औद्योगिक उपयोग के लिये जल संसाधनों का संवर्धन भू-जल के विकास एंव सुधार तथा उनके अत्यधिक दोहन की रोकथाम के परिदृश्य में चिरस्थायी तरीके से किया जायेगा।
6.0 जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन जल-विज्ञान इकाई स्तर जैसे समस्त अपवाह कछार या अपवाह, उपकछार, जल-स्त्रोतागम, जलनिकासी, मात्रा व गुणवत्ता पहलुओं तथा पर्यावरणीय एवं टिकाऊपन विवेचनों को शामिल करते हुए दोनों सतही व भ्ूामिगत जल को बहुक्षेत्रीय उभयनिष्ठ संसाधन के रूप में विचारण आदि हेतु नियोजित किया जाएगा।
7.0 जल विनियोजन प्राथमिकताएं
जल संसाधन प्रणालियों के नियोजन एवं संचालन में जल आवंटन प्राथमिकताएं मुख्य रूप से निम्नानुसार होगी:-
- सुरक्षित/शुद्ध पेयजल, स्वच्छता/मलजल-सफाई एंव पशुधन आवश्यकताएं
- सिंचाईं
- जलविद्युत
- पारिस्थितिकीय/वनीकरण/जैव-विविधता/पारिस्थितिकीय-पर्यटन
- कृषि आधारित उद्योगों
- अन्य उपयोग
यद्यपि, राज्य के किसी क्षेत्र/भूभाग में विशेष पहलुओं के दृष्टिगत उक्त में आवश्यक संशोधन किया जा सकता है।
8.0 परियोजना नियोजन एवं प्रबंधन
8.1 कछार नियोजन - किसी नदी कछार या उपकछार या जल-स्त्रोतागम को राज्य में जल संसाधन के परिकल्पन एवं विकास हेतु इकाई मानी जाएगी। जिसका उद्देश्य सतही अपवाह को कम करके भूजल पुनर्भरण हेतु उपयोग में लाना है। जल निकासी को भी उसका अत्यावश्यक संघटक माना जाएगा।
8.2 वृहत परियोजनाएं, जहां सम्भाव्य हो, विविध उपयोगों की प्रतिपूर्ति हेतु बहुउद्देशीय परियोजनाओं के रूप में अवधारित किया जायेगा। पेयजल का प्रावधान प्राथमिक महत्व का होगा। परियोजनाओं के नियोजन, संरूपण, पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिक पहलुओं को ध्यान में रखकर जलागम क्षेत्र उपचार, प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास तथा कृष्य-भूमि क्षेत्र विकास को शामिल करते हुए संस्वीकृति एवं कार्यान्वयन एकीकृत तथा बहुआयामी दृष्टिकोण के अनुरूप होगा।
परियोजना तैयार करते समय निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया जायेगा:-
- परियोजना निर्माण से पूर्व एंव पश्चात् मानव-जीवन, व्यवसाय तथा पर्यावरण आदि पर उसका प्रभाव।
- पारिस्थितिक संतुलन पर प्रभाव एवं यदि आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति उपाय। एक स्वतंत्र संस्था द्वारा प्राथमिक रूप से पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन।
- आर्थिक मूल्यांकन एंव सामाजिक-आर्थिक प्रभाव।
- अनुश्रवण तंत्र।
- जल पद-चिन्ह/अनुमार्गण विश्लेषण।
- वर्षा-जल संवर्धन तथा अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग।
- अवधारित परियोजना की व्यवहार्यता/चिरस्थायित्वता एवं सामाजिक स्वीकार्यता।
- परियोजना नियोजन अवस्था में लाभार्थियों एवं अन्य हितधारकों की सहभागिता एंव भागीदारी।
8.3 विकास की प्राथमिकताओं का उद्देश्य वर्तमान क्षेत्रीय असंतुलन को कम करना भी होगा। इस संदर्भ में, जल अधिकता क्षेत्रों से अभावग्रस्त क्षेत्रों तक जल के स्थानांतरण पर भी विचार करना होगा।
8.4 राज्य में सतही जल की उपलब्धता समय एवं स्थान के सापेक्ष असमान रूप से है तथा भूजल भी स्थान-दर-स्थान विषम रूप से वितरित है। परियोजनाओं को तैयार करते समय इस पहलू पर ध्यान दिया जाना आवश्यक होगा।
8.5 जल भंडारण परियोजनाओं से नीचे के इलाकों के जल-उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूरे साल पर्याप्त जल निस्सारित किया जायेगा। पर्यावरण की गुणवत्ता एंव पारिस्थितिक संतुलन के संरक्षण को प्राथमिकता के आधार पर सुनिश्चित किया जायेगा। जिन परियोजनाओं मंे जल को अपने मूल-मार्ग से पथांतर करने का प्रस्ताव है, उनमें न्यूनतम पारिस्थितिकीय जल-प्रवाह को स्थानीय पारिस्थितिकी को उसकी मूल भूमिका में बनाए रखने हेतु वाहिका/नदी में बिना किसी रोक-टोक के छोड़ना होगा। वन क्षेत्रों में उनके वनस्पतियों एंव जीव-जंतुओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जल निष्कर्षण की योजना बनायी जाएगी।
8.6 परियोजनाओं के आर्थिक मूल्यांकन में विभिन्न कारकों यथा खड़ी ढलानें, तीव्र अपवाह, ढलानों की अस्थिरता, मृदाक्षरण की घटना एवं परपंरागत अधिकारों का प्रभाव तथा आदिवासी अथवा समाज के अन्य वंचित वर्गो के दस्तूरों आदि को भी ध्यान में रखा जाएगा। जहाँ तक संभव हो सके, मृदा एवं जलांश को संरक्षित करने हेतु पर्वत-ढ़लानों का आन्तरिक ढालवाँकरण (सोपानन, भूदृष्य निर्माण विधि) द्वारा समतलीकरण किया जाएगा।
8.7 योजना के नियोजन के प्रथम चरण से ही जहां तक संभव हो पारिस्थितिकी-पर्यटन के विकास के लिए नदियों एंव अन्य जल-निकायों पर तथा जल-निकायों पर सभी बहुउद्देशीय परियोजनाओं में पारिस्थतिकी-पर्यटन एवं अन्य उद्देश्यों को ध्यान में रखना होगा।
8.8 पिछड़े तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति जैसे समाज के वंचित समूहों के बसे क्षेत्रों में या उनके लाभ हेतु परियोजनाओं के अनुसन्धान एवं प्रतिपादित करने हेतु विशेष प्रयास करना होगा। अन्य क्षेत्रों में, समाज के कमजोर वर्गों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी परियोजना नियोजन में विशेष ध्यान देना होगा।
8.9 उद्योगों की औद्योगिक प्रदूषकों की उगाही तथा उनके पुनः उपयोग/पुनर्चक्रण के लिए प्रोत्साहित करना होगा अन्यथा ये घातक तीव है। इसके लिए सब्सिडी/आर्थिक-सहायता और/या प्रोत्साहन की पेशकश की जा सकती हैं।
8.10 सभी हिमनदियों का अनुश्रवण किया जाएगा तथा जहरीले प्रदूषण से मुक्त रखा जायेगा। जल-स्रोतों की प्रदूषण-मुक्ति को सुनिश्चित करने हेतु कानूनों में यथावश्यक संशोधन किये जाएंगे।
8.11 जल संसाधनों के नियोजन हेतु प्रमुख अपेक्षित वस्तु के तौर पर दीर्घकालिक, सही एवं विश्वसनीय आंकड़ा-आधार तैयार किया जाएगा। वर्तमान सूचना एवं आंकड़ा-संग्रह प्रणाली को आधुनिक बनाया जाना चाहिये तथा इसे और अधिक व्यापक बनाकर एवं आंकड़ा एवं प्रक्रमण क्षमताओं की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ समस्त जल संसाधनों के आंकड़ा संग्रहण एवं प्रक्रमण को नियमित अद्यतन, मापन एवं निगरानी किया जाना चाहिए।
8.12 जिन परियोजनाओं में प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास एवं विस्थापन की आवश्यकता पड़ती है, परियोजना के साथ-साथ इसे प्राथमिकता के आधार पर क्रियान्वित किया जाएगा।
8.13 जल संसाधनों के नियोजन में जल-संवर्द्धन पर ध्यान दिया जाएगा। व्यवहार्य परियोजनाएं विशेषकर तुच्छ भूजल क्षेत्रों में अन्वेषण कार्य किये जाएंगे तथा सतही जल की उपलब्धता मेें वृद्धि हेतु क्रियान्वित किये जाएंगे, जो भूजल पुनर्भरण में भी सहायक सिद्ध होगा।
8.14 भूमिपयोग तथा भूमि-आवरण में बदलाव के परिणामस्वरूप जलधाराओं, नदियों के जलग्रहण क्षेत्र तथा जलभृत के पुनर्भरण प्रक्षेत्र के अभिलक्षणों में बदलाव आते हैं जो जल संसाधन की उपलब्धता एवं गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। अतः कछार/उप-कछार/जल-स्त्रोतागम/लघु जलविज्ञान इकाई स्तरों के लिये जलागम/उप-जलागम क्षेत्रों के पुनर्भरण क्षेत्र विशेषकर न्यून जल-प्रक्षेत्रों के अनुसन्धान के लिये भौगोलिक मानचित्रण किया जाएगा।
8.15 झरनाओं के आवधिक आंकलन हेतु अंकीय जल-स्त्रोतागम मानचित्रावली तैयार की जायेगी। जल-स्त्रोतों के जलभृतों भरण हेतु पुनर्भरण प्रक्षेत्र चिह्नित की जायेगी तथा जल-स्त्रोत निस्सरण एवं जल गुणवत्ता संबंधी आंकड़े एकत्र किए जाएंगे। जल-स्त्रोतागम उपागम हेतु जल-स्त्रोतागम व जलसंभूर को जोड़ने की दिशा में जलभृत/जल-स्त्रोतागम को नियोजन के एक इकाई के रूप में माना जायेगा।
8.16 जल-स्त्रोतागम, जलागम/उप-जलागम प्रबंधन को व्यापक मृदा-संरक्षण, जलग्रहण क्षेत्र उपचार, वनों एवं नम भूमि का संरक्षण, वनावरण की बढ़ोत्तरी, रोक-बांध का निर्माण तथा अन्य भूजल-पुनर्भरण उपाय के माध्यम से जल धारण उच्चतम सीमा तक बढ़ाने तथा उसके बर्बादी को कम करने हेतु बढ़ावा दिया जायेगा। सोता-जल व भूजल स्त्रोतों कोे एकीकृत करने की दिशा में विस्तृत जल-स्त्रोतागम प्रबंधन पद्धति का उपयोग किया जायेगा। वर्तमान के गतिमान श्रम प्रोत्साहित कार्यक्रमों यथा ‘मनरेगा‘ तथा भविष्य में विभागीय कार्यक्र्रमों के साथ शुरू होने वाले अन्य समान कार्यक्रमों के अभिसरण का उपयोग किसानों को सहभागी बनाकर जोत-तालाबों, अन्य मृदा एवं जलग्रहण क्षेत्र के उपचार एवं विभिन्न जल संरक्षण उपायों के माध्यम से वर्षा जल संवर्धन करने के लिए किया जा सकता है।
8.17 राज्य में जल की मांग में वृद्धि तीव्र आर्थिक एंव औद्यागिक विकास का परिणाम है जिससे तीव्र आर्थिक परिवर्तन एवं त्वरित उपभोक्तावाद के साथ-साथ जल की मांग भी बढ़ी है। अतः जल-नियतन इष्टतमीकरण की आवश्यकता नीति के तहत उल्लिखित जलांवटन प्राथमिकता के अनुसार भी जरूरी क्षेत्रों को सम्मिलित करते हुए उप-जलागम स्तर पर अति शीघ्र होगी।
9.0 सुरक्षित शुद्ध पेय-जल एवं मल-जल निकासी
9.1 समानता एवं सामाजिक न्याय के सिद्धान्त अनिवार्य रूप से जल के उपयोग एवं आवंटन की वकालत करते हैं। राज्य यह मान्यता देता है कि प्रत्येक व्यक्ति को आसान घरेलू पहुंच के तहत अनिवार्य स्वास्थ्य एवं स्वच्छता बाबत न्यूनतम पेयजल प्राप्त करने का अधिकार है। जल के किसी भी उपलब्ध स्रोत पर जनमानस तथा घरेलू पशुओं/मवेशियों की आवश्यकता हेतु उनका प्रथम अधिकार होगा।
9.2 जल का स्वामित्व किसी व्यक्ति में नहीं बल्कि राज्य में निहित है। सामाजिक न्याय के सिद्धांत के आधार पर राज्य न्यायसंगत एवं कुशल वितरण सुनिश्चित करने हेतु जल आंवटित करने का अधिकार रखता है। सूखा, बाढ़ एवं अन्य प्राकृृतिक एंव भूजल-संभूर के प्रदूषण जैसे मानव निर्मित आपदाओं जो जन स्वास्थ्य एवं पारिस्थितिक अखंडता को आहत करता हो, के दौरान राज्य समुदाय/हितधारकों की सक्रिय भागीदारी के साथ इसके उपयोग को बदल सकता है।
9.3 पेयजल की आपूर्ति हेतु सरकार द्वारा अधिकृत संस्था को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार जन-सामान्य को स्वच्छ एवं सुरक्षित गुणवत्तायुक्त पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु उत्तरदायी बनाया जाएगा तथा अन्यथा की स्थिति में सेवा प्रदाता संस्था पर दण्डात्मक उपायों यथा अर्थदण्ड आरोपित किया जा सकता है।
9.4 पुनर्भरण योग्य उथले जलीयकों के संरक्षण हेतु राज्य सार्वजनिक भागीदारों के साथ मिलकर अभिज्ञात दुष्प्राप्य क्षेत्रों में जल-निष्कर्षण का विनियमन करेगा।
9.5 शहरों एवं गाँवों के समीप उपलब्ध मुख्य जलस्त्रोतों के जल को गुरुत्व अथवा लघुडाल योजनाओं के माध्यम से जलापूर्ति हेतु उपयोग में लाया जायेगा।
9.6 जल की आवर्ती मौसमी कमी से जूझ रहे प्रत्येक क्षेत्र के लिये वर्षा जल, सतही जल एवं भूजल के संयुक्त उपयोग को जलमांग पूर्ति के वैकल्पिक तरीकों के तौर पर बल देते हुए विशिष्ट सूखा निगरानी एंव आकस्मिक योजनाएं तैयार करनी होगी।
9.7 राज्य गंभीर सूखे के समय कमी वाले क्षेत्रों में जल आवंटित करने के अधिकार स्थानीय निकायों को प्रदान कर सकता है तथा ये निकाय जल की व्यवस्था की निगरानी एवं विशिष्ट परिकल्पित तन्त्रावली से नियमों को लागू करेगा।
9.8 ’’उत्तराखंड जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग’’ (यूडब्लूआरएमआरसी) द्वारा निर्धारित तर्कसंगत जल-प्रशुल्क के अनुसार हर वक्त (24x7) उपयोग एवं भुगतान के सिद्धांत पर जलापूर्ति का प्रयत्न किया जाएगा। चूंकि वर्तमान तक यूडब्लूआरएमआरसी का गठन नहीं हो पाया है। अतः यूडब्लूआरएमआरसी के गठन होने तक उत्तर प्रदेश जलसम्भरण एवं सीवर व्यवस्था अधिनियम, 1975 के अन्तर्गत वर्णित प्रावधानों के अधीन जल सम्भरण तथा सीवर व्यवस्था सम्बन्धित सेवाओं के लिये प्रभार लगाने एवं वसूली करने का कार्य उत्तराखण्ड जल संस्थान द्वारा किया जायेगा। यद्यपि, इष्टतम अवसंरचनात्मक सुविधाओं को प्राप्त करने के पश्चात् जलापूर्ति हेतु सेवा-स्तर का मानकीकरण किया जाएगा।
9.9 उपभोक्ता द्वारा जल आपूर्ति-लाइन में सीधे अनाधिकृत मोटर-पंप का इस्तेमाल करने पर भारी अर्थ-दण्ड लगाया जायेगा।
9.10 जन-समुदाय समागम स्थल यथा मंदिरों, मेलों आदि स्थानों पर स्वचालित हर-वक्त जलापूर्ति यंत्र (जल एटीएम) को प्रोत्साहित किया जाएगा जिससे गुणवत्तापूर्ण जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
9.11 जल मापन प्रणाली पर आधारित सहभागिता मांग-चालित पद्धति का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जायेगा, ताकि जनता को उनके द्वारा वांछित सेवा का स्तर प्राप्त हो सके तथा एक तर्कसंगत प्रशुल्क-तंत्र के माध्यम से उसका भुगतान कर सकेे।
9.12 शहरी जलापूर्ति एवं मलजल शोधन योजनाएं एकीकृत किया जायेगा तथा समन्वित व्यवस्था के तहत क्रियान्वित की जाएगी। तर्कसंगत प्रशुल्क के अनुसार जलापूर्ति एवं मलजल निकास-तंत्र का बीजक अलग-अलग भारित किया जायेगा। जल-प्रशुल्क दरों का निर्धारण एवं संशोधन प्रदत्त सेवा की गुणवत्ता को जोड़ते हुए कम से कम संचालन एवं अनुरक्षण शुल्क की भरपाई करने के लिए समय समय पर किया जाएगा।
9.13 मलजल-निकास योजना सभी शहरी एंव ग्रामीण समुदायों केे लिये तैयार की जाएगी। राज्य सभी घरों को अनिवार्य रूप से मलजल-निकास संजालों से जोेड़ना चाहता है। मलजल का सुरक्षित निष्कासन को चरणबद्ध तरीके से एसटीपी (मलजल उपचार संयंत्र) स्थापित कर प्रोत्साहित किया जाएगा। तत्पश्चात उनके संचालन एवं अनुरक्षण को उपुयक्त तरीके से बढ़ावा दिया जाएगा।
9.14 आदिवासियों या अन्य वंचित समूहों जैसे सामाजिक रूप से कमजोर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के हितों के लिए पेयजल एवं स्वच्छता परियोजनाओं का अन्वेषण एवं प्रतिपादन हेतु विशेष प्रयास किए जाएंगे।
9.15 सभी जल संसाधन विकास कार्यक्रमों में घरेलू जल के प्रयोक्ता एंव प्रबंधक के रूप में महिलाओं की केन्द्रीय भूमिका निर्धारित की जाएगी। जल संसाधन कार्यक्रमों के नियोजन, विकास एवं प्रबंधन योजना तैयार करने में महिलाओं को सहभागी बनाया जाएगा।
9.16 समुदायों को शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में सभी जलापूूर्ति एवं मलजल-निकास तंत्र की समस्त क्रिया-कलापों पर केन्द्रित करनी होगी। ’’जल एवं जलागम प्रबंधन समिति’’ (डब्लूडब्लूएमसी) के माध्यम से ग्राम, क्षेत्र, जिला एवं शहर स्तर पर गठित पंचायती राज संस्थाओं की जलापूर्ति एवं मलजल-निकास परियोजना के नियोजन, कार्यान्वयन एवं अनुरक्षण में अहम् भूमिका होगी। इस क्षेत्र के विकास में पंचायती राज संस्थाओं को सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की संस्थाओं एवं गैर सरकारी संगठनों के साथ-साथ अन्य सभी हितधारकों की गतिविधियों के माध्यम से समन्वित सहयोग देना होगा।
9.17 राज्य के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में स्थित अधिकांश सतही जलस्रोत प्राकृतिक आपदाओं तथा अत्यधिक वर्षा से बाढ़ का खतरा एवं अचानक बादल फटने की घटना आदि के प्रति अतिसंवेदनशील है, इसलिये पेयजल आपूर्ति एवं मलजल-निकास तन्त्र अवसंरचनाओं की सुरक्षा हेतु वर्षाजल के प्रबंधन व उसकी तीव्रता को कम करने के लिये पर्याप्त बाढ़ सुरक्षा, संशोधन-गुंजाइश तथा अल्पीकरण उपायों का प्राविधान करना होगा।
भू-जल
9.18 परियोजना के नियोजन स्तर से ही झरना-जल, सतही जल एवं भूजल संसाधनों के समेकित एवं समन्वित विकास तथा उनके संयोजित उपयोग संकल्पित किया जाएगा, जो परियोजना क्रियान्वयन का एक अभिन्न घटक होगा। अतएव, झरना व भूमिगत जलों तथा अग्रेतर झरना व नदी के जलों के मध्य कड़ी को जानने की आवश्यकता है।
9.19 सामाजिक सहभागिता के साथ विस्तृत जल-स्त्रोतागम प्रबंधन पद्धति के माध्यम से झरना-जल के विकास, प्रबोधन एवं प्रबंधन हेतु एक सहभागी भूजल प्रबंधन (पीजीडब्ल्यूएम) विकसित किया जायेगा।
9.20 भू-जल क्षमता का समयबद्ध पुनर्मूल्यांकन इसके उपलब्धता की गुणवत्ता एवं उचित निष्कर्षणों की आर्थिक व्यवहार्यता को ध्यान में रखते हुए करना होगा। भूजल के पुनर्भरण क्षेत्र का मानचित्रण एवं इसका संरक्षण सुनिश्चित करना होगा।
9.21 भूजल संसाधनों के दोहन को इस प्रकार विनियमित किया जाएगा कि यह पुनर्भरण की संभावनाओं से अधिक न हो तथा सामाजिक समानता भी सुनिश्चित की जा सके। इसके अतिरिक्त, भू-जल दोहन परियोजनाओं की परियोजना लागत में वार्षिक संचालन एवं अनुरक्षण प्रभार भी सम्मिलित किये जा सकते हैं। संवेदनशील/दुर्गम क्षेत्रों में भूमिगत जल दोहन परियोजनाओं में भू-जल पुनर्भरण को शामिल करना अनिवार्य होगा।
9.22 भूजल संसाधनों की गुणवत्ता एंव उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये भूजल पुनर्भरण परियोजनाओं को विकसित एवं कार्यान्वित किया जाएगा।
9.23 राज्य द्वारा हैण्ड पम्प/चापाकल कार्यक्रम को उत्तरोत्तर मुख्य मार्ग से दूर पुनर्विन्यासित करना होगा तथा इसे हटाकर उन स्थानों पर लगाना होगा जहां भू-जल पुनर्भरण की योजनाएं लागू की गयी हैं। सभी हैंड पम्प/चापाकल की भौगोलिक सूचना तंत्र (जीआईएस) मानचित्रित होगा तथा स्थानीय पंचायती राज संस्थाओं द्वारा अनुरक्षित/संचालित किया जाएगा।
9.24 विद्यमान भूजल संसाधन को क्रांतिक, अर्द्ध-क्रांतिक, अतिदोहित एवं सुरक्षित प्रक्षेत्रों में वर्गीकृत किया जाएगा तथा अग्रेतर अतिदोहित व क्रांतिक प्रक्षेत्रों पर तदनुसार विशेष ध्यान देते हुए विभिन्न प्रक्षेत्रों में भूजल को विनियमित किया जाएगा।
9.25 सार्वजनिक एवं निजी संस्थाओं यथा निजी अपार्टमेंट/कुनबा, होटल, ढाबा, माॅल, उद्योग आदि द्वारा वाणिज्यिक उपयोग हेतु भूमिगत जल के निष्कर्षण/दोहन को विनियामक उप-नियमों के अंतर्गत प्रतिबंधित करना होगा एंव मौकानुसार भूजल स्तर के लिए एक निश्चित उपभोग सीमा तय करनी होगी तथा निश्चित भूजल स्तर बरकरार रखने के लिये वर्षा जल संवर्धन/पुनर्भरण अनिवार्य करना होगा।
10.0 सिंचाई
10.1 राज्य में सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल का उपयोग होता रहा है। उत्तरोत्तर पंचवर्षीय योजनाओं में लगभग 38 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि को सिंचाई सुविधा प्रदान की गई है। इसके लिए निम्नलिखित दो-आयामी कार्यनीति की आवश्यकता है:-
(1) अप्रयुक्त संसाधनों का दोहन, एवं
(2) पूर्व में दोहन किये गए संसाधनों के प्रबंधन में गुणात्मक सुधार।
क) अप्रयुक्त संसाधनों का दोहन:- इस संबंध में निम्नलिखित कार्यवाही की जाएगीः-
- सतही एवं भूमिगत जल दोनों के सम्बन्ध में वर्ष 2040 के परिप्रेक्ष्य में कार्ययोजना को तैयार किया जायेगा। क्रियान्वयन कार्यक्रम को इस प्रकार सुनिश्चित किया जाएगा कि निधि, विशेषज्ञता, उपकरण एवं प्रशिक्षित श्रमशक्ति को इष्टतम/माकूल परिणाम की प्राप्ति हेतु समान रूप से विकसित किया जा सके।
- जल संसाधन परियोजनाएं, विशेष रूप से बहुउद्देशीय परियोजनाएं जो राज्य के वृहद हित मे आवश्यक है एंव जिनमें दीर्घकालिक निवेश किये गए हैं, उनमें कार्य-योजना के अनुसार इस प्रकार निर्णय लिया जाएगा कि परियोजनाएं समय पर पूर्ण हो जाएं।
- परियोजनाएं स्वपोषनीय होगीं चूंकि कृषि हेतु सिंचाई एक आवश्यक निविष्ट है तथा जल मूल्य का व्यापक आर्थिक प्रभाव होता है, इसलिए उक्त के निमित्त ‘‘उत्तराखंड जल प्रबंधन और नियामक अधिनियम 2013’’ के अन्तर्गत ’‘उत्तराखण्ड जल संसाधन प्रबंधन और नियामक आयोग‘’ (यूडब्लूआरएमआरसी) का गठन प्रस्तावित किया गया है।
ख) सिंचाई जल का प्रबंधन - सिंचाई के क्षेत्र में किए गए निवेशकों से प्राप्त होने वाले अनुमानित लाभों के लिए संवर्धित जल का कुशल प्रबंधन, वैज्ञानिक एवं किफायती उपभोग तथा संरक्षण अत्यावश्यक है। वर्तमान परिदृश्य में इस क्षेत्र में गुणात्मक सुधार की पर्याप्त संभावनाएं हैं।
- समग्र जल एवं प्रस्तावित उपभोग का लेखा रखा जाएगा तथा समय समय पर इसका परीक्षण किया जाएगा। जल उपलब्धता एवं खेत की प्राथमिकताओं द्वारा निर्धारित जरूरतों के अनुसार आपूर्ति के त्वरित समायोजन को सक्षम बनाने हेतु इन प्रणालियों को संगत तकनीक अनुप्रयोगित युक्ति का उपयोग करने की व्यवस्था प्रदान की जाएगी। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित पहलुओं पर विशेष रूप से विचार किया जाएगाः-
- उपलब्धता एवं आवश्यकताओं की प्राथमिकतानुसार इष्टतम उपयोग के लिए प्रणाली का संचालन सुनिश्चित करने हेतु पर्याप्त एंव उचित प्रबंधन सूचना तंत्र (एमआईएस)।
- हानि को कम करने के लिए परस्पर निम्नलिखित उपायों को अपनाया जाना चाहिए:-
क.) नहरों में लाइनिंग/आस्तरण का समुचित प्रयोग।
ख.) नहरों के कटाव एवं अन्य तरीकों से होने वाले अनधिकृत उपयोग की जांच करना।
- भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पुराने नहरों/गूलों का आधुनिकीकरण व नवीनतमीकरण किया जाएगा।
10.2 खेत स्तर पर जल का सर्वाधिक सदुपयोग करने के लिए ‘जोत प्रबंधन‘ को उच्च प्राथमिकता के आधार पर पहल करनी होगी, जिसमें इसके वितरण में निष्पक्षता एंव देयराशि की उचित वसूली सुनिश्चित की जाए।
- कृषि-योग्य भूमि के सुधार एवं विकास (जैसे खेतों का समतलीकरण, जल-वाहिका/नहर का सुधार एवं अनुरक्षण आदि) पर जोर दिया जाएगा।
- कृषि उत्पादन के लिए जल का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली यथा स्प्रिंकलर/छिड़काव एवं ड्रिप/द्रप्त सिंचाई तथा उन्नत कृषि प्रणाली का अंगीकरण।
- क्षेत्र विशेष हेतु कम जल की खपत वाली उपयुक्त फसल पद्धति को अपनाना।
10.3 सिंचाई योजनाओं के प्रस्ताव से पूर्व योजनाओं के संचालन एवं अनुरक्षण से सम्बन्धित सर्वनिष्ठ मनोदशा हासिल करने हेतु उपभोक्ता समूहों की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करना बेहतर होगा। सभी हितधारकों के दायित्वों के साथ-साथ परिचालन व्यय, कृषक विकास संघ (केवीएस) का गठन एवं कृषि, उद्यान, मत्स्य पालन तथा पशुपालन जैसे समानांतर विभागों द्वारा प्रदान किए जाने वाले निविष्ट योजना की डीपीआर का एक अनिवार्य घटक होगा।
10.4 जहां तक संभव हो, सभी सिंचाई योजनाएं स्वचालित तथा नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों (यथा सौर उर्जा) द्वारा चालित होगीं। इन योजनाओं का उत्तरोत्तर संचालन कृषक विकास संघ (केवीएस) के माध्यम से बाह्य-स्रोत द्वारा कराया जाएगा, जिसमे योजना के उत्तरवर्ती संचालन एंव अनुरक्षण हेतु उपभोग शुल्क का एक भाग अपने पास रखने की अनुमति भी होगी।
10.5 सिंचाई प्रणाली में जल आवंटन निष्पक्ष समानता एवं सामाजिक न्याय को ध्यान में रखकर किया जाएगा। नहर के शीर्ष एवं अंतिम छोर के कृषकों तथा बड़े एवं छोटे खेत के बीच जल की उपलब्धता में असमानताएं तर्कसंगत वितरण प्रणाली को अपनाकर तथा खास सीमा एवं तार्किक दरों के अंतर्गत आयतनानुसार जलापूर्ति कर दूर किए जाएंगे। सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत जल का समान आपूर्ति सुनिश्चित करने हेतु समुचित विवाद-निराकरण व्यवस्था तंत्र स्थापित की जाएगी।
10.6 सभी सिंचाई परियोजनाएं में सिंचाई क्षमता का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए जलागम क्षेत्र विकास पद्धति अपनाया जायेगा, जिससे अनंतर सृजित क्षमता तथा उपयोज्य क्षमता के बीच का अंतर कम हो सके।
बाढ़ नियंत्रण एवं प्रबंधन
10.7 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् योजनाबद्ध विकास के प्रारंभ से बाढ़ नियंत्रण एवं इसका प्रबंधन राज्य के प्रयासों में शामिल रहा है। बाढ़ एक बेसिन/द्रोणी समस्या है, जो किसी राज्य/क्षेत्र में सीमित नहीं रहती है।
10.8 प्रत्येक बाढ़ प्रवृत्त कछारों हेतु बाढ़ नियंत्रण एवं आपदा प्रबंधन की एक महायोजना तैयार की जाएगी। नदी कछार के साथ में सीमागुल्म एवं जल-अवशोषक के रूप में कार्य करने हेतु वनीकरण को प्रोत्साहित करना होगा।
10.9 बेहतर जल-प्रलय बंदोबस्त हेतु जल भंडारण परियोजनाओं में जहां तक संभव हो, पर्याप्त बाढ़-सुधार गदेरों का प्रावधान किया जाएगा। जलाशय निनियमन नीति के अंतर्गत अत्यधिक बाढ़ प्रवत्त क्षेत्रों में सिंचाई एवं विद्युत के कुछ लाभों का परित्याग कर भी बाढ़ नियंत्रण को प्राथमिक महत्व दिया जा सकता है।
10.10 राज्य में नदियों/गदेरों के तटीयकरण जैसे भौतिक बाढ़ सुरक्षा कार्य किये जा रहे हैं। तटबंधों, पुलिनरोध एवं बंधों का निर्माण आवश्यकतानुसार जारी रखा जाएगा तथा नुकसान को कम करने के लिये ’’उत्तराखंड बाढ़ मैदान परिक्षेत्रण अधिनियम 2012’’ के प्रावधानों का कठोरता से पालन किया जाएगा। बाढ़ नियंत्रण एवं प्रबंधन कार्यक्रम में सम्मिलित करते हुए नदी के संवेदनशील भागों में वैज्ञानिक तरीके से तलकर्षण/मलवा-निष्कासन द्वारा नदियों के नैसर्गिक जलधारा को पुनः स्थापित किया जाएगा।
10.11 बाढ, पूर्वानुमान की गतिविधियों को वास्तविक काल के आंकड़ों की अधिग्रहण प्रणाली का उपयोग कर के आधुनिकीकृत किया जाएगा तथा पूर्वानुमान प्रतिरूप से जोड़ा जाएगा। इसके अतिरिक्त, इन क्रियाकलापों को मानयोजित करने के पश्चात् इसकी उपयोगिता को बढ़ाने तथा अनावृत्त क्षेत्रों तक विस्तार में उपयोग किया जाएगा। जलाशयों में अंतर्वाह का पूर्वानुमान उनके प्रभावी विनियमन हेतु किया जाएगा।
10.12 नवीन संरचनाओं का स्थान या पुरानी संरचनाओं का पुनः स्थान निर्धारित करते समय नदियों की आकृति-विज्ञानी अध्ययन किया जायेगा और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि ये मुख्यतः उच्चतम बाढ़ स्तर (एचएफएल)/बाढ़ क्षेत्र से बाहर रहें। हलाकि, यदि ऐसा करना संभव न हो, तो इन संरचनाओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त बाढ़ सुरक्षा उपाय का प्रावधान किया जाएगा।
10.13 नदियों एवं सहायक नदियों द्वारा भू-क्षरण
नदियों द्वारा भूमि के अपक्षरण को पुश्ता/बंध, पुलिनरोध, तटबंध जैसे किफायती संरचनाओं का निर्माण कर कम किया जाएगा तथा मृदा-क्षरण एंव आकस्मिक अजस्र जल-प्रवाह की रोक-थाम के लिए वर्षाजल संवर्धन रचनाओं के निर्माण को प्रोत्साहित किया जायेगा। राज्य को नदी के तटों पर अवैध अतिक्रमण एवं भूमि का अनुचित प्रयोग को बढ़ावा न मिलने पाए, के लिए कठोर कदम उठाना पड़ेगा। नदियों के तटों एवं तली पर आर्थिक गतिविधियां विनियमित करनी होगी। नदी कछारों में वनीकरण को आड़ तथा जल-अवशोषक के रूप में कार्य करने के उद्देश्य हेतु बढ़ा