वसुंधरा
23 Aug 2013
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प्रकाशमय किया है सूर्य ने जिसको
चंद्रमा ने वर्षा की है रजत किरणों की
प्रसन्न हैं झिलमिल तारे जिसे देख कर
फूलों ने भी बिखेरी है सुगंध हंसकर
ऐसी न्यारी सुन्दर वसुंधरा ये है
प्रकृति ने संवारा है इसको बड़े श्रम से
वन,पर्वत,घाटी,नदियाँ,झरने सभी
रंग भरते हैं इसमें सतरंगी
समय के साथ इसकी सुन्दरता
बढ़ती ही जा रही थी असीम
ग्रहण सा लग रहा है उसमें आज क्यों
ये विश्वम्भरा क्यों हुई हतभाग है
क्या सोचती होगी दुःखी मन से यों
मैने पूंछा एक दिन 'हे माँ' ये तो बता
क्या दुःख है क्यों इतनी उदास है
बोली'सुनो मैं बताती हूँ अपनी व्यथा'
कहते हैं कि रत्न गर्भा हूँ मैं
किन्तु ये रत्न ही
मेरे नाश का कारण बने हैं
सोच कर ही व्याकुल रहती हूँ मैं
एक ज्वाला सी है मेरे अन्दर दबी
मेरी संतान ही क्यों इतनी नादान है
क्यों लूटते हैं मेरी सम्पदा यों
अपनी बढ़ती जा रही लालसा को लिए
मानव नष्ट करता है
वनस्पति अन्य जीवन सदा
बढ़ते जा रहे हैं कंक्रीट के वन यहाँ
मेरी साँसे भी हैं घुटती चली जा रहीं
हर तरफ है कंक्रीट और धुंआ ही धुंआ
आज ही सब कुछ उपभोग की चाह है
कल की नहीं कोई चिंता इन्हें
ये चले चूमने नभ धरा छोड़कर
इसी सोच से मैं व्यथित आज हूँ
कैसा होगा मेरा कल मेरे आज से
जब न जल होगा न वन होंगे न होगा जीवन
एक माँ क्या जी सकेगी बिन संतान के !!

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