‘अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर’

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‘उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!’
अनमना भी सुन सका मैं
गूँजते से तप्त अंतःस्वर तुम्हारे तरल कूजन में।
‘अरे, उस धूमिल विजन में?’
स्वर मेरा था चिकना ही, ‘अब घना हो चला झुरमुट।
नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली!
उस पार की रेती उदास है।’
‘केवल बातें! हम आ जाते अभी लौटकर छिन में-’
मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में।
दामिनी की कोर-सी चमकी अंगुलियाँ शांत पानी में।
‘नदी किनारे रेती पर आता है कोई दिन में?
कवि बने हो! युक्तियाँ हैं तभी थोथी-निरा शब्दों का विलास है।’

काली तब पड़ गई साँझ की रेख।
साँस लंबी स्निग्ध होती है-
मौन ही है गोद जिसमें अनकही कुल व्यथा सोती है।

मैं रह गया क्षितिज को अपलक देख। और अंतःस्वर रहा मन में-
‘क्या जरूरी है दिखाना तुम्हें वह जो दर्द मेरे पास है?’

इलाहाबाद, 22 जून, 1948

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