बाढ़ जागरूकता के लिए अभियान की जरूरत
बाढ़ पर बहस यूँ चले कि उसमें भटकाव न आये। बाढ़ नियंत्रण के लिए जिस तरह के प्रस्ताव बीच-बीच में सुनाई पड़ते हैं, वह अजीब किस्म के होते हैं। समाचार पत्रों में 1956 में समस्तीपुर में हुये एक सम्मेलन का हवाला मिलता है। यह वह समय था जब बूढ़ी गंडक पर तटबन्ध बन रहा था और इत्तिफाकन यह निर्माण नदी के एक किनारे पर हो रहा था जिससे दूसरे किनारे के लोगों को परेशानी होती थी। आम जनता पानी सम्बन्धी प्रपंच,षडयंत्र और झूठ-फरेब से वाकिफ नहीं है इसलिए वह जल्दी ही नेपाल में प्रस्तावित बांधों के झांसे में आ जाती है। नेपाली बांधों की धुंद जब तक नहीं छंटेगी तब तक समाज के स्तर पर बाढ़ से बचाव का कोई काम नहीं हो सकता। आम जनता के बीच नेपाल में प्रस्तावित बाधों की अनिश्चितता और व्यर्थता के प्रति जागरूकता लाने की जरूरत है। यह जागरूकता बाढ़ नियंत्रण के तकनीकी समाधानों और उनकी सामाजिक लागत के प्रति भी पैदा किये जाने की जरूरत है जैसा कि हमने पहले अध्ययन किया है। प्रत्येक तकनीकी और संरचनात्मक समाधान के पीछे एक सामाजिक लागत की पुर्जी लगी हुई है जिस पर कोई बहस ही नहीं होती और एक ऐसा समाँ बंधता है कि फलां-फलां काम कर देने से चारों तरफ अमन-चैन हो जायेगा। हम इस कथित अमन-चैन की बदहाली तटबन्धों के मामले में देख चुके हैं कि किस तरह से तटबन्धों को आगे बढ़ाने वालों के पास तटबन्धों के दुष्प्रभावों की पूरी जानकारी थी मगर उन्होंने अपनी उतनी ही ताकत लगा कर इस विषय पर होने वाली किसी भी बहस का गला घोंट दिया। ठीक वही चीज अब प्रस्तावित बड़े बाँधों और नदी जोड़ योजना के सन्दर्भ में भी हो रही है। नदी-जोड़ योजना वाले तो अपना एक अलग राग छेड़े हुये हैं मगर गंगा घाटी क्षेत्र में नदी जोड़ योजना बिना नेपाल में बांध बने और बिना नेपाल के सहयोग के बनने वाली ही नहीं है, यह बात कितने लोगों को मालूम है?
जनता के सभी स्तरों पर एक व्यापक बहस की जरूरत है। यह बहस आम आदमी के बीच ग्रामीण स्तर से लेकर प्रबुद्ध नागरिकों, इंजीनियरों, प्रशासकों, तथा राजनीतिज्ञों के स्तर तक चलनी चाहिये। यह तो तय है कि शिक्षितों को शिक्षित करना बहुत ही मुश्किल काम है। इंजीनियरों और प्रशासकों के विचार तो प्रायः स्थिर हो गये होते हैं और उन्हें किसी मुद्दे को समझा पाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। इंजीनियरिंग तबका आजकल थोड़ा बचाव की मुद्रा में आ गया है क्योंकि पिछले वर्षों में उन्होंने जो भी योजनाएँ बनाई हैं वह अपने कथित उद्देश्यों से भ्रष्ट हुई हैं। प्रायश्चित के तौर पर ही सही, बहुत से अवकाश प्राप्त इंजीनियर जनता से एक वार्तालाप चाहते हैं।
यह भी ध्यान देने की बात है कि जिन लोगों के बीच हम पानी या बाढ़ सम्बन्धी विषय पर बहस चलाना चाहते हैं उनमें से अधिकांश अशिक्षित हैं और लिखे हुये शब्द का उनके लिए कोई मतलब ही नहीं बचता। जनता के कुछ हिस्से तक तो स्थानीय भाषा के माध्यम से पहुँचा जा सकता है मगर अंग्रेजी जानने वालों की तादाद तो बहुत ही कम है। यह हम सब का सामूहिक दुर्भाग्य है कि इन्हीं लोगों के हाथ में प्रशासन की बागडोर है। बिहार जैसे प्रान्त में तो स्थिति और भी बदतर है। इसलिए जब लोक शिक्षण की बात उठेगी तब सम्प्रेषण और संचार के सभी साधनों का उपयोग करना पड़ेगा और इतनी बड़ी और इस स्तर पर मुहिम चलाने के लिए एक बहुत बड़ी तैयारी की जरूरत पड़ेगी। मगर अब समय आ गया है कि यह काम प्राथमिकता के स्तर पर किया जाये। अच्छा तो यह होता कि इस तरह का प्रयास सरकारी स्तर पर किया जाता क्योंकि उसकी पहुँच हर जगह है। यह सरकार को बताना चाहिये कि बाढ़ों पर पूरी तरह नियंत्रण संभव नहीं है और इस तरह का नियंत्रण करना भी नहीं चाहिये। अगर सरकार ने इस तरह की पहल की होती तो उसे बरसात के समय जनता से मुँह नहीं चुराना पड़ता और अपनी कमजोरी छुपाने के लिए चूहों, लोमड़ियों, छछूंदरों और ‘असामाजिक तत्वों’ का एहसान नहीं लेना पड़ता। तब वह न तो पानी छोड़ने के लिए नेपाल को दोष देती और न ही बाढ़ के मसले पर केन्द्र सरकार को कोसती।
बाढ़ पर बहस यूँ चले कि उसमें भटकाव न आये। बाढ़ नियंत्रण के लिए जिस तरह के प्रस्ताव बीच-बीच में सुनाई पड़ते हैं, वह अजीब किस्म के होते हैं। समाचार पत्रों में 1956 में समस्तीपुर में हुये एक सम्मेलन का हवाला मिलता है। यह वह समय था जब बूढ़ी गंडक पर तटबन्ध बन रहा था और इत्तिफाकन यह निर्माण नदी के एक किनारे पर हो रहा था जिससे दूसरे किनारे के लोगों को परेशानी होती थी। बाढ़ पर चर्चा जोरों पर थी तभी सम्मेलन में एक प्रस्ताव किया गया कि बंगाल की खाड़ी में भारतीय समुद्र सीमा पर इतने ऊँचे पहाड़नुमा टीले बना दिये जायें कि उधर से मानसून ही न आने पाये और सारा पानी बंगाल की खाड़ी में ही बरस जाये। न मानसून आयेगा, न बारिश होगी और न बाढ़ आयेगी। जिसने भी यह कहा उसे पता नहीं था वह क्या कह रहा है मगर कुछ लोगों को यह प्रस्ताव इतना महत्वपूर्ण लगा कि अखबारों में उसे जगह मिली।
इसी तरह से एक और प्रस्ताव सुनने में आता है कि कोसी पूरब की ओर जाने की तैयारी में है और वह अपना पूर्वी तटबन्ध तोड़ कर निकल जायेगी। इसके पहले कि नदी ऐसा करे, पूर्वी तटबन्ध के पूरब में एक तीसरे तटबन्ध का निर्माण कर देना चाहिये ताकि नदी की भूमि निर्माण की प्रक्रिया को बरकरार रखा जा सके और उस पर नियंत्रण भी हो सके। यह बात कहने वालों में इंजीनियरों की एक खासी जमात शामिल है। यह एक अव्यावहारिक प्रस्ताव है क्योंकि अब विस्थापन और पुनर्वास के प्रश्न को दबाया नहीं जा सकता है और बहुत ही क्रूरतापूर्वक दमन के बिना इस तीसरे तटबन्ध के प्रस्ताव का क्रियान्वयन नहीं हो सकता। तटबन्धों के बाहर रहने वाले अब यह अच्छी तरह समझते हैं कि तटबन्धों के बीच फंसने का क्या मतलब होता है? इंजीनियरों के साथ परेशानी यह है कि उन्हें नदी और तटबन्ध् तो दिखाई पड़ते हैं मगर समाज और लोग दिखाई नहीं पड़ते।
एक तीसरा प्रस्ताव 1987 की बाढ़ के बाद बड़ी चर्चा का विषय बना था कि भारत-नेपाल सीमा पर एक बांध बना दिया जाय ताकि वहाँ से पानी इधर न आने पाये। पानी की प्रकृति को समझे बिना ही इस तरह की बातें की जा सकती हैं। कहने वाले तो यहाँ तक कह जाते हैं कि बीरपुर में हाई डैम बनाना चाहिये ताकि बाढ़ को नियंत्रित किया जा सके। जाहिर है, ऐसा कहने वाले न तो हाई डैम क्या होता है - यह जानते हैं और न ही उन्हें बीरपुर के भूगोल का कुछ ज्ञान है।
नदियों के किनारे ठिगने तटबंधों के बारे में जरूर सोचा जा सकता है। इनका इस्तेमाल किसानों और ग्रामवासियों ने बर्द्धमान में (अध्याय-2) अपने दम पर किया था। इसमें कहीं भी सरकार शामिल नहीं थी। सरकार ने तो उसका विध्वंस ही किया। इस तरह की व्यवस्था सरकार की केंद्रीकृत और नौकरी पेशा इकाइयां चला भी नहीं सकतीं। इसी तरह का प्रस्ताव नदियों को गहरा और चौड़ा करने के लिए भी किया जाता है। यह काम छोटे-मोटे नालों पर तो संभव है मगर भारी मात्रा में गाद लाने वाली बड़ी नदियों के साथ यह नामुमकिन है। मुख्य समस्या खोदी हुई मिट्टी को लेकर है उसे कहाँ पेंफका जायेगा और उसकी लागत क्या होगी, इन प्रश्नों का जवाब बड़ा ही मुश्किल है। इस विषय पर जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है इसलिए यहाँ हम इसके विस्तार में नहीं जायेंगे।
कुल मिलाकर यह सोचना कि आज विज्ञान आदमी को चन्द्रमा पर भेज सकता है तो उसके लिए बाढ़ क्या चीज है, फिलहाल सही नहीं है। विज्ञान की अपनी सीमाएं हैं जो कि इस बात की ओर इशारा करती हैं कि प्रकृति से, जहाँ तक संभव हो सके, एक सीमा के अन्दर ही और कम से कम उलझा जाय। एक हद तक हमें बाढ़ और नदियों के साथ समझौता कर ही लेना पड़ेगा। कड़वी सच्चाई मगर यह है कि सरकार, अमला तंत्रा, राजनैतिक पार्टियाँ, जल संसाधन विभाग और बाढ़ से संबंधित निहित स्वार्थ यह कभी नहीं चाहते कि बाढ़ पीड़ितों में जागरूकता बढ़े।