बागमती नदी और काले पानी की कथा
पृष्ठभूमि
काला पानी का नाम सुनते ही जेहन में आजादी की लड़ाई के बांकुरों की याद आना स्वाभाविक होता है। अंडमान और नीकोबार द्वीप समूह में बनी काल कोठरियों की तस्वीरें आंख के सामने उभरने लगती हैं जहाँ देश की आजादी के लिए लड़ने वाले उन दीवानों को अंग्रेजों ने न जाने कितनी यातनाएं दी होंगी। काला पानी की जिन्हें सजा हुई उनमें से लौटने की कल्पना शायद ही किसी ने की हो। कुछ खुशनसीब वहाँ से लौटे जरूर पर उनके दिलों में यह हसरत दबी रह गयी कि देश के लिए जान कुर्बान कर देने का उनका सपना अधूरा रह गया। सुदूर द्वीपों में बनी उन काल-कोठरियों और उससे जुड़ी त्रासदी को जिस किसी ने भी पहली बार काला पानी कहा होगा वह निश्चित ही भविष्य द्रष्टा रहा होगा। मगर बागमती नदी के किनारे बसे या उजड़े उस जगह की बात हम यहाँ करने जा रहे हैं जहाँ रहने वाले आजाद रहते हुए और खुली हवा में सांस लेते हुए भी काला पानी जैसी त्रासदी झेलने को अभिशप्त हैं भले ही वह उन्हें किसी विदेशी शासक के सामने सीधा खड़ा रहने की सजा के तौर पर न मिली हो। यह वह जगह है जहाँ सीतामढ़ी जिले के बेलसंड और रुन्नी सैदपुर प्रखंडों की एक अच्छी खासी आबादी को काला पानी नहीं भेजा गया बल्कि काला पानी को ही उनके पास भेज दिया गया। फर्क सिर्फ इतना ही है कि इस सजा के भुगतने वालों का हुकूमत की नजरों में भी कोई कसूर नहीं था।
बागमती की पवित्रता का जो बखान हम अध्याय-1 में देख आये हैं, उस पर एक बड़ी ही कड़वी टिप्पणी नेपाल के एक इंजीनियर और पानी की समस्या से सरोकार रखने वाले समाजकर्मी अजय दीक्षित ने की। दीक्षित नदी संकट पर आयोजित एक गोष्ठी (1988) में भाग ले रहे थे। वे कहते हैं, ‘‘... यहाँ जो अर्थ के साथ एक श्लोक लिखा हुआ है कि हिमालय के उत्तुङ्ग शिखर से बागमती प्रवाहित होती है, इसका जल भागीरथी से सौ गुना अधिक पवित्र है और इसमें स्नान करने वाला व्यक्ति सीधे सूर्य लोक को प्राप्त होता है, यह बागमती हमारे यहाँ काठमाण्डू से होकर प्रवाहित होती है और आज उसकी बदहाली की हालत यह है कि उसमें स्नान करने वाला व्यक्ति सचमुच तुरन्त और सीधे सूर्य लोक को चला जायेगा। बागमती का पानी आज इतना गन्दा है कि वह पूरा-पूरा नाबदान बन गया है। जैसे-जैसे समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है वैसे-वैसे नदियों पर संकट बढ़ता जा रहा है और नदियों पर आये इस संकट को समझने के लिए हमें डेढ़-दो सौ साल पीछे जाना होगा। अंग्रेजों ने जब भारत पर कब्जा जमाया तब उनकी नजर यहाँ के जल स्रोतों पर पड़ी और उन्होंने इससे रेवेन्यू इकट्ठा करने की सोची। तब उन्होंने यहाँ सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर काम करना शुरू किया। बाढ़ नियंत्रण के मामले में तो वे पूरी तरह असफल रहे पर सिंचाई के स्रोतों से उन्होंने जरूर अपनी आमदनी बढ़ायी। पारम्परिक तरीकों की जगह उन्होंने अपने तरीके से विज्ञान को विकसित किया। सिंचाई से उन्होंने लाभ उठाया और जल-जमाव पर केवल बातें कीं। इस तरह से फायदा केवल सरकार का और नुकसान केवल जनता का-इस सिद्धान्त की नींव पड़ी।’’
तटबन्धों में कैद बागमती और मनुस्मारा का अनियंत्रित होना
चित्र (6.1) काला पानी का सूचक मानचित्र को देखने के लिए अटैचमेंट देखें
अब क्योंकि मनुस्मारा नदी पर तटबन्ध नहीं बनाने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया गया और संगम पर स्लुइस गेट बनाने का कार्यक्रम बन गया तब ऐसी स्थिति में बागमती में बाढ़ की वजह से अगर स्लुइस गेट बन्द करना पड़ा तो मनुस्मारा का पानी उतने समय के लिए बागमती में नहीं जा सकेगा और तब वह पानी लखनदेई के दाहिने तटबन्ध और बागमती के बायें तटबन्ध के बीच में अटकेगा। इंजीनियरों का यह मानना था कि पानी के अटकने का यह समय 70 घंटे से ज्यादा का नहीं होगा और अगर ऐसा होता भी है तो मनुस्मारा का पानी केवल 1600 हेक्टेयर क्षेत्र पर सवा मीटर की गहराई तक फैल सकता है। जैसे ही बागमती या लखनदेई में किसी भी नदी का पानी उतरेगा तो मनुस्मारा के पानी की निकासी शुरू हो जायेगी और इस पानी की निकासी में तीन दिन से ज्यादा का समय नहीं लगेगा। इन सारे आश्वासनों के बावजूद सरकार का यह भी कहना था कि लगभग 480 हेक्टेयर कृषि भूमि पर पानी के अटक जाने और स्थाई रूप से जल-जमाव ग्रस्त हो जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। परियोजना सूत्रों के अनुसार इतने इलाके को सिंचित क्षेत्र से निकाल देना पड़ेगा मगर असिंचित खेती के लिए यह जमीन फिर भी उपलब्ध रहेगी। कड़वी सच्चाई यह है कि इस तरह की बातें सूखे वाले इलाकों के लिए तो ठीक हैं मगर बाढ़ वाले क्षेत्र में इस तरह के असिंचित क्षेत्रों में जल-जमाव हो जाता है और जमीन पानी में डूबी रहती है। डूबी हुई जमीन पर न तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है और न ही उस पर खेती मुमकिन हो पाती है। डूबी हुई जमीन पर हल नहीं चलता है और बिना हल चलाये खेती नहीं होती। आज यह सारा इलाका डूबा हुआ है।
यहाँ तक तो हुई तकनीकी बात। फिलहाल चन्दौली गाँव के पास बागमती और मनुस्मारा के संगम स्थल पर इस स्लुइस का निर्माण पिछले 9-10 वर्षों से चालू था। वहाँ निर्माणकर्ता ठेकेदार आते-जाते रहते थे और इतने ही समय से मनुस्मारा का पानी सुरक्षित क्षेत्र में फैलता रहता है जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि वह 70 घंटे से ज्यादा देर तक नहीं टिकेगा और सवा मीटर से ज्यादा गहरा नहीं होगा। यह पानी अब बारहों महीनें रहता है और बरसात के मौसम में तो पूरे इलाके में लम्बे समय के लिए अटके हुए पानी की एक मोटी चादर बिछी रहती है। बरसात के बाद भी यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखायी पड़ता है मगर उसमें कोई फसल नहीं होती और यह सारी हरियाली जलकुंभी के कारण होती है जिसको थोड़ा सा हटाने पर नीचे पानी ही पानी दिखायी पड़ता है जो निकलने का नाम ही नहीं लेता। हवाई जहाज से बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने वाले नेताओं को यह पूरा इलाका हरा-भरा ही दिखायी देता होगा। बरसात के बाद जलकुंभी के सूखने और सड़ने की वजह से यह इलाका दुर्गंधयुक्त भी हो जाता है। यह पानी लगभग 10 साल पहले तक सिर्फ पानी था और अब यहाँ से इसके काला पानी बनने की दास्तान शुरू होती है।