गंगा की सांझ

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अभी गिरा रवि, ताम्र कलश-सा,
गंगा के उस पार,
क्लांत पांथ, जिह्वा विलोल
जल में रक्ताभ प्रसार;
भूरे जलदों से धूमिल नभ,
विहग छंदों – से बिखरे –
धेनु त्वचा – से सिहर रहे
जल में रोओं – से छितरे!

दूर, क्षितिज में चित्रित – सी
उस तरु माला के ऊपर
उड़ती काली विहग पांति
रेखा – सी लहरा सुंदर!
उड़ी आ रही हलकी खेवा
दो आरोही लेकर,
नीचे ठीक, तिर रहा जल में
छाया चित्र मनोहर!

शांत, स्निग्ध संध्या सलज्ज मुख
देख रही जल तल में,
नीलारुण अंगों की आभा
छहरी लहरी दल में !
झलक रहे जल के अंचल से
कंचु जलद स्वर्ण प्रभ,
चूर्ण कुंतलों – सा लहरों पर
तिरता घन ऊर्मिल नभ!

द्वाभा का ईषत् उज्ज्वल
कोमल तम धीरे घिर कर
दृश्य पटी को बना रहा
गंभीर, गाढ़ रंग भर-भर!
मधुर प्राकृतिक सुषमा यह
भरती विषाद है मन में,
मानव की जीवित सुंदरता
नहीं प्रकृति दर्शन में!

पूर्ण हुई मानव अंगों में
सुंदरता नैसर्गिक,
शत ऊषा संध्या से निर्मित
नारी प्रतिमा स्वर्गिक!
भिन्न-भिन्न बह रही आज
नर-नारी जीवन धारा,
युग-युग के सैकत कर्दम से
रुद्ध – छिन्न सुख सारा!

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