घुमंतुओं का आवागमन

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केंद्रीय मरुभूमि शोध संस्थान के डॉ. एलपी भरारा ने राजस्थान की लूनी नदी के उत्तरी हिस्से के गुहिया जलग्रहण क्षेत्र के गांवों का विस्तार से अध्ययन किया है। सूखे से बचने के लिए गांवों के मवेशियों को दूसरे इलाकों में ले जाना पड़ता है। 1958 और 1980 के बीच ऐसे आव्रजित लोग 15-15 सालों तक बाहर रहे हैं। सर्वेक्षित परिवारों में से 10 प्रतिशत से ज्यादा लोग गांव छोड़कर चले गये थे। सूखे और अकाल के उन वर्षों में कुल 12,800 जानवरों वाली 28 टोलियां आव्रजित हुई थीं।

आज भी हर साल राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों के आधे से ज्यादा पशु नवम्बर बीतते-बीतते बाहर चले जाते हैं। सूखे वर्षों में तो सितंबर से ही जाना शुरू हो जाता है। ये अगले साल जुलाई में लौट कर आते हैं। राजस्थान में जो घास इस वक्त उपलब्ध है वह अच्छे वर्षों में 87 प्रतिशत, सामान्य वर्षों में 79 प्रतिशत और सूखे वर्षों में 48 प्रतिशत जानवरों के लायक है।

1977 की पशुगणना के आकड़ों के अनुसार 1968-69, 1969-1970, 1972-73 और 1974-75 के वर्षों में बड़ी संख्या में पशु एक जिले से दूसरे जिलों में और पड़ोसी राज्यों में गए। और इनमें भी सबसे ज्यादा दस लाख पशु 1969-70 के वर्ष में गए। उसके बाद से लगातार पशुओं का आव्रजन पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश और गुजरात की ओर जारी है। आव्रजन में बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। कई जानवर तो रास्ते में ही भूखे मर जाते हैं और गुजारा चलाने के लिए बहुत सारे जानवरों को सस्ते में बेचना पड़ जाता है। हाल के वर्षों में इस मुद्दे पर अंतरराज्यीय विवाद भी पैदा होने लगा है।

जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालौर, नागौर और बीकानेर जिलों से भेड़ों का आवर्जन एक आम बात है। राजस्थान में लगभग 30 प्रतिशत भेड़ो का पालन आवर्जन के बल पर ही होता है। एक अंदाज के अनुसार लगभग 6 लाख भेड़ें स्थायी रूप से सड़क पर रहती हैं।

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