चौका
चौका

गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया-भाग 1

कोई भी समाज शून्य में जीवित नहीं रह सकता। उसे अपने लोगों, अपने पशुओं, अपनी जमीन, अपने पेड़ पौधों, अपने कुएं, अपने तालाबों, अपने खेतों के लिए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ती है, जो समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध हो। काल के किसी खंड विशेष में समाज के सभी सदस्यों के साथ मिल-जुलकर जो व्यवस्था बनती है
2 min read

अनुपम जी द्वारा लिखी ‘गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया’ पुस्तिका की मूल प्रति यहां पीडीएफ के रूप में संलग्न है। पूरी किताब पढ़ने के लिए इसे डाउनलोड कर सकते हैं।



जयपुर अजमेर रोड पर स्थित एक छोटा से गांव लापोड़िया ने तालाबों के साथ-साथ अपना गोचर भी बचाया और इन दोनों ने मिलकर यानि तालाब और गोचर ने लापोड़िया को बचा लिया। आज गांव की प्यास बुझ चुकी है। छः-छः साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया की संतुष्ट धरती में हर तरफ हरियाली होती है।

पुस्तक अंश


अपने गोचर को सुधारने के इस संकल्प को लापोड़िया ने कर्म में बदला और फिर उसका विस्तार भी किया। आसपास के सभी गांव में युवा मंडल बनाएं गए सभी से संपर्क किया गया और गोचर, तालाब, पेड़-पौधों और वन्य जीवों को बचाने के लिए बैठकें की गईं, पदयात्राएं निकाली गईं। आस-पड़ोस के गांव से शुरू हुआ यह काम बाद में और आगे बढ़कर 84 गांव में फैल गया। देवउठनी ग्यारस से तालाब और गोचर पूजन का काम प्रारंभ हो जाता है और फिर जगह-जगह ऐसी पदयात्राएं, जन-जागरण के लिए निकल पड़ती हैं। सब का काम सबको साथ लिए बिना सध नहीं सकता।इसलिए गोचर आंदोलन में हर जगह इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई छूट न जाय। आज यदि कोई स्वार्थवश इस काम में शामिल नहीं हो रहा है तो यहां पूरा धीरज रखा गया है। उसे समझाया गया है कि उसका भी हित सार्वजनिक हित से ही जुड़ा हुआ है।

लापोड़िया वापस लौटें। शुरू से ही पूरे गांव को गोचर से जोड़ने की चाल और व्यवस्था बनाई गई। अभी पेड़ नहीं थे, लेकिन छोटी-छोटी झाड़ियां मजबूत होने लगी थीं, उन्हें और अधिक सहारा देने के लिए वातावरण बनाया जाना था। इसीलिए इन झाड़ियों की रखवाली के लिए कानून या सख्ती के बदले प्रेम और श्रद्धा का सहारा लिया गया। लापोड़िया गांव के स्त्री-पुरुषों ने इन छोटी-छोटी झाड़ियों को राखी बांधी और इनकी रक्षा का वचन लिया। शायद इन झाड़ियों ने भी मन ही मन लापोड़िया की रक्षा करने का संकल्प ले लिया था।

तभी तो आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया में इतना चारा है, इतना हरा चारा है, पशु इतने प्रसन्न हैं कि यहां अकाल के बीच में भी दूध की बड़ी न सही, लेकिन एक छोटी नदी तो बह ही रही है। आज लापोड़िया में प्रतिदिन 40 केन यानि कोई 1600 लीटर दूध हो रहा है। घर परिवार और बच्चों की जरूरतें पूरी करने के बाद ही दूध की बिक्री की जाती है। जयपुर डेयरी यहां से हर महीने ढाई लाख रुपए का दूध खरीद रही है। इस तरह आज लापोड़िया हर वर्ष लगभग 30 लाख रुपए का दूध पैदा कर रहा है और यह दूध गांव में लौटी हरियाली से है।

चौका से बही दूध की नदी

India Water Portal Hindi
hindi.indiawaterportal.org