इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब
जैसा कि प्रायः होता है कि हर संस्कृति के किसी विशिष्ट कालखण्ड में एक हवा होती है जिसकी वजह से उसकी सांस्कृतिक सौरभ दूर-दूर तक फैलती रहती है। हम कह सकते हैं कि सदियों पुरानी हमारी संस्कृति की महक में जल की सुवासित महक भी शामिल थी। शायद इसी कारण आज से 500 से अधिक वर्षों पुराने शहर की स्थापना के समय से लम्बे समय तक ताल-संस्कृति की उस महक ने ही बीकानेर की जनता को अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का एहसास करवाया होगा। प्रकृति ने मनुष्य को कई उपहार दिये हैं। प्रकृति-प्रदत्त उपहारों को ही सभ्यता के विकासक्रम में प्राकृतिक संसाधन कहा गया है। ये संसाधन दो प्रकार के हैं- नवीकरणीय और गैर नवीकरणीय। वन, चरागाह, वन्यजीवन, जलीय जीवन नवीनीकरण संसाधनों के अन्तर्गत आते हैं, जबकि मृदा, भूमि, खनिज, गैस, पेट्रोल आदि गैर नवीकरणीय संसाधनों के अन्तर्गत आते हैं।
सभी प्राकृतिक संसाधन जीवन के लिये परमावश्यक हैं, अतः इनके उपयोग में मनुष्य को विवेक संयम और सावधानी की जरूरत है। तेजी से बदलते जा रहे समय में संसाधनों के उपयोग की दर में इजाफा हुआ है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगर हमने इनके उपयोग में लापरवाही बरती तो सभ्यता को दुर्दिनों का सामना करना पड़ेगा।
जीवन के लिये आवश्यक घटकों में जल का स्थान सर्वोपरि है। जल नवीकरणीय संसाधन है अर्थात वह कभी समाप्त नहीं होने वाले संसाधनों में है क्योंकि प्राकृतिक क्रिया के फलस्वरूप इसका पुनररुत्पादन होता रहता है। सामान्यतः दुरुपयोग की क्रिया द्वारा हम प्राकृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं जिससे संसाधन को भारी क्षति पहुँचती है। जल सम्बन्धी आँकड़ों की दुनिया में जाएँ, तो हमारे सामने विस्मयकारी तथ्य प्रकट होंगे, यथा-
1. समस्त पृथ्वी पर व्याप्त जल का केवल 2.7 प्रतिशत ही अलवण जल है, जो खेती, पीने और अन्य कार्यों के लिये उपादेय है।
2. पृथ्वी के कुल जल का मात्र 0.00001 प्रतिशत ही झरनों और नदियों में बहता है, जिसका अनुपात 10,000 बालटियों में से केवल एक बालटी पानी के बराबर है।
3. करीब 150 मीटर की गहराई तक मिलने वाला भूजल कुल जल का 0.625 प्रतिशत है।
4. ऊँचे पर्वतों पर बर्फ के रूप में जमा जल, जो उस रूप में कार्योंपयोगी नहीं है, लगभग 2.15 प्रतिशत है।
आँकड़ों से निकलकर अतीत की दुनिया में जाएँ, तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने सभ्यता के विकासक्रम में इस तथ्य को कभी विस्मृत नहीं किया कि जल ही जीवन है। पुराने समय में राजाओं, महाराजाओं, सेठ-साहूकारों एवं ऋषि-मनीषियों ने स्थान-स्थान पर तालाब, कुएँ आदि खुदवाए ताकि जल जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित हो। उन्होंने न केवल इसके सदुपयोग के वास्ते ही सोचा वरन जल संरक्षण की संस्कृति का विस्तार भी किया।
जल को संचित करने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना सभ्यता और संस्कृति का। जल हमारे जीवन का दुर्लभ घटक है। दुनिया के इतिहास से गुजरने पर मालूम होगा कि प्रायः सभी सभ्यताओं के विकास और विनाश के क्रम में जल की उपस्थिति अवश्य ही रही है। हम कह सकते हैं कि जल का सम्बन्ध जीवन के साथ सृष्टि के आरम्भकाल से ही जुड़ा है। राजस्थान के विशेष सन्दर्भ में देखें तो पता चलता है कि मरुस्थल के कारण जल का अभाव यहाँ सदैव संकट का ही विषय रहा है और इसके संकटमोचन के वास्ते प्रयासों का सिलसिला स्कन्दपुराण में आये अगस्त्य ऋषि के आख्यान से शुरू होता है।
आख्यानानुसार एक बार अगस्त्य ऋषि ने इस प्रदेश में पानी की कमी को पूरा करने हेतु ईश्वर की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा- क्योंकि यहाँ मरुस्थल है, अतः यहाँ पानी का वास सम्भव नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। आकाश में एक वृहद मेघ की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि यह मेघ तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा और यहाँ पर जल की वृष्टि करेगा। इस आख्यान के आधार पर हम कह सकते हैं कि सम्भवतः अगस्त्य ऋषि ही मरुभूमि के पहले जल संवाहक थे। पुराणों में आये आख्यान बताते हैं कि सम्भवतः अजमेर का पुष्करराज मरुभूमि का पहला तालाब बना।
कालान्तर में जल की महत्ता और उपादेयता ने समाज को इसके प्रति सचेष्ट किया होगा। फलस्वरूप संस्कृति के विभिन्न कालखण्डों में जल संसाधन के संरक्षण व सदुपयोग के निमित्त नानाविध जतन होने लगे। समाज के विभिन्न समुदाय परस्पर इस बात पर मतैक्य थे कि ताल-संस्कृति का प्रसार एवं संरक्षण हमारी आधारभूत जरूरतों में से एक है। पुराणों में ही नौ प्रकार के तालाब (यथा बिन्दुसरोवर, मानसरोवर, पुष्कराराज आदि) व नौ वनों का उल्लेख मिलता है जो दर्शाता है कि पुराणकालीन संस्कृति के लोग तालाब या व्यापक दृष्टि के आलोक में कह लें कि पारिस्थितिकीय सन्तुलन के प्रति कितने कृतज्ञ थे। उस जमाने में तालाब बनाने वाला यदि सामान्य गृहस्थ हो या देश का अधिपति अथवा कोई सन्यासी, समाज उसके प्रति नतमस्तक रहता था यानी तालाब बनवाना भी कला एवं राजनीति की भाँति अमरत्वलब्धि का मार्ग था।
रामायण एवं महाभारत काल व बाद में मौर्य तथा गुप्तवंश के शासकों आदि के काल में भारतवर्ष में असंख्य तालाबों का निर्माण हुआ। भारतीय इतिहास के पाँचवीं शती से पन्द्रहवीं शती के कालखण्ड से गुजरने पर पता चलता है कि उत्तर से दक्षिण व पूरब से पश्चिम तक तालाब बनाने का कार्य किस गति और उत्साह से चला। इस कालखण्ड में राजाओं द्वारा जनहित में किये जाने वाले कार्यों में तालाब- निर्माण सर्वोपरि था। इस उपक्रम के पीछे बहुजनहिताय की भावना ही कार्य कर रही थी।
राजस्थान में पानी की कमी का वृत्तान्त धार्मिक आख्यानों के साथ-साथ पुराने लोकाख्यानों में भी उपलब्ध है। राजस्थानी के सुप्रसिद्ध लोककाव्य
ढोला मारू रा दूहा
में मारवाड़ निन्दा प्रकरण के अन्तर्गत मालवणी अपने पिता को सम्बोधित करते हुए कहती है-
बाबा न देइस मारूवां, वर कुँआरी रहेसि।
हाथि कचोळऊ सिर घड़उ, सीचति य मरेसि।
हे पिता। मुझे मरु देश राजस्थान में मत ब्याहना, चाहे कुँआरी रह जाऊँ। वहाँ हाथों में कटोरा (जिससे घड़े में पानी भरा जाता है) और सिर पर घड़ा, इस प्रकार पानी ढोते-ढोते मर जाऊँगी। यह काव्यांश बतलाता है कि पानी की घोर कमी और इसकी पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम राजस्थान की जनता की दारुण नियति थी। यहाँ नायिका उससे वंचित रहने के लिये कुँवारी ही मरने को तैयार है, पर उसे राजस्थान जैसे जल की कमी वाले क्षेत्र में जीवन व्यतीत करना स्वीकार्य नहीं। वस्तुतः यह तथ्य भी है कि हमारे यहाँ पानी बहुत गहरे में पाया जाता है।
इसी काव्य में एक स्थान पर यही नायिका पुनः अपने पिता से कहती है:
पहिरण ओढ़ण कंबला साठे पुरिसे नीर।
राजस्थान में जल की बूँद महज एक जल की बूँद नहीं वरन उसका महत्त्व किसी रजत बूँद से कम नहीं था। पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति भारतीय संस्कृति का व्यवहार एवं दृष्टि सदैव ही मित्रवत रही है। हमने प्रकृति को लम्बे नाखून वाली डायन नहीं माना वरन उसे और उसके विभिन्न उपादानों को सदैव ही निजी महत्त्व की दृष्टि से देखा। वेदों, पुराणों और हमारे अन्यान्य प्राचीन ग्रन्थों सहित लोकाख्यानों में आये तत्सम्बन्धी वृत्तान्त इसके साक्षी हैं। हमारे व्यवहार में त्यागे जिसके आगे का मूल सूत्र ही काम करता आ रहा है। और यही कारण है कि हम आज तक अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के साथ कायम हैं।अर्थात यहाँ के लोगों के पास पहनने-ओढ़ने के लिये कम्बल होते हैं और पानी यहाँ साठ पुरस यानी करीब 300 से 400 फुट गहरे मिलता है। इसलिये यहाँ जल अन्य प्रदेशों की तुलना में जीवन का अधिक दुर्लभ संसाधन है। शायद इसी कारण थार के मरुस्थल के गाँवों के नाम से साथ सर जुड़ा है जो वहाँ किसी-न-किसी तालाब या अन्य जलस्रोत की उपस्थिति का परिचायक है।
इसे ही स्पष्ट करते हुए राजस्थान के ख्यातनाम इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने लिखा है कि इस भूभाग पर जहाँ भी पानी जमा होने का स्थान था, आरम्भ में वहाँ पर बस्तियाँ बस गईं। शायद इसी कारण गाँवों के आगे सर जुड़ा हुआ मिलता है। कालान्तर में तालाब के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव आया। फलस्वरूप उनके निजी स्वरूप व महत्ता को आघात लगा, लेकिन बावजूद इसके ताल-संस्कृति समाज में बरकरार रही और अपने होने वाले लाभों से समाज को पोषित करती रही।
जैसा कि प्रायः होता है कि हर संस्कृति के किसी विशिष्ट कालखण्ड में एक हवा होती है जिसकी वजह से उसकी सांस्कृतिक सौरभ दूर-दूर तक फैलती रहती है। हम कह सकते हैं कि सदियों पुरानी हमारी संस्कृति की महक में जल की सुवासित महक भी शामिल थी। शायद इसी कारण आज से 500 से अधिक वर्षों पुराने शहर की स्थापना के समय से लम्बे समय तक ताल-संस्कृति की उस महक ने ही बीकानेर की जनता को अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का एहसास करवाया होगा।
धार्मिक आख्यान, लोकाख्यान और अनेकानेक अन्य प्रकार के गल्प और उनमें घटी घटनाएँ महज इत्तिफाक नहीं थीं। इसलिये स्थापना के करीब 400 वर्षों तक तालाब निर्माण एवं तालाब संस्कृति का बोलबाला रहा। इस संस्कृति ने जहाँ एक ओर पारिस्थितिकी को सन्तुलित किया। वहीं दूसरी ओर सामाजिक सद्भाव को भी गति दी।
फलस्वरूप रियासतकालीन बीकानेर में एक जून, 1943 से फ्री वाटर सप्लाई व्यवस्था आरम्भ होने से पूर्व जलसंकट के तथ्य इतिहास के पन्नों में ढूँढने पर भी नहीं मिलते, क्योंकि लगभग सभी समाजों के उच्च से उच्च एवं निम्न से निम्न वर्गों ने सामाजिक दृष्टिकोण का अवलम्ब लेकर स्वयं सहायता समूह की विधि की तर्ज पर अपने-अपने तालाब, तलाई का निर्माण कर रखा था। इनकी देख-भाल भी वे स्वयं ही करते थे। तालाब व उसकी आगोर (पायतन) के प्रति समाज का वरिष्ठतम और लघुतम आदमी एक इकाई की भाँति श्रमदान करके उसे संरक्षण प्रदान करता था इसी कारण उस तालाब-तलाई की संस्कृति को महत्त्व प्राप्त था।
राजस्थान में जल की बूँद महज एक जल की बूँद नहीं वरन उसका महत्त्व किसी रजत बूँद से कम नहीं था। पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति भारतीय संस्कृति का व्यवहार एवं दृष्टि सदैव ही मित्रवत रही है। हमने प्रकृति को लम्बे नाखून वाली डायन नहीं माना वरन उसे और उसके विभिन्न उपादानों को सदैव ही निजी महत्त्व की दृष्टि से देखा। वेदों, पुराणों और हमारे अन्यान्य प्राचीन ग्रन्थों सहित लोकाख्यानों में आये तत्सम्बन्धी वृत्तान्त इसके साक्षी हैं। हमारे व्यवहार में त्यागे जिसके आगे का मूल सूत्र ही काम करता आ रहा है। और यही कारण है कि हम आज तक अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के साथ कायम हैं।
रियासतकालीन बीकानेर और आज के बीकानेर में भारी परिवर्तन स्पष्ट है। यह परिवर्तन भौगोलिक सीमाओं के विस्तार से ज्यादा जीवनशैली, जीवन व्यवहार एवं जीवन-दृष्टि के मामले में बहुत ज्यादा प्रभावी रहा है। बीकानेर नगर में तालाब के प्रति प्रेम अन्य शहरों की तुलना में अधिक रहा। इसका एक कारण तो पानी का अभाव ही था। दूसरे, यहाँ के लोग शान्त प्रकृति के एवं प्रकृति प्रेमी अधिक रहे। भले ही वे जल-मित्र, वृक्ष मित्र, पृथ्वी-सम्मेलन, ग्रीन-हाउस इफेक्ट, जल बिरादरी, स्वजलधारा जैसे पदों को नहीं समझते हों, लेकिन उनके जीवन-व्यवहार और दृष्टि में सदैव पर्यावरण एवं उससे जुड़े सभी उपादानों के प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण और कृतज्ञता कायम रही है।
उनकी दैनन्दिन क्रियाओं के क्रम में आसानी से इस दृष्टि और व्यवहार को देखा जा सकता है। जैसे अन्दरूनी शहर के श्री नत्थू महाराज जीवन्त पर्यन्त 24 में से 6 घंटे नष्ट होते जा रहे संसोलाव तालाब को बचाने, उसे सजाने-सँवारने में लगाते थे। वे आगोर पर हो रहे कब्जों के लिये संघर्षरत थे। तालाब की सफाई के लिये कुछ-न-कुछ करना, पायतन पर वृक्षों की रक्षा, जीव-जानवरों की देखभाल, विशेषकर मोर-मोरनियों से संवाद आदि को उनके दैनिक व्यवहार में देखा जा सकता था।
कहा जा सकता है कि अतीत के बीकानेर में तालाब-प्रेम अपने चरम पर था कालान्तर में प्रकृति के प्रति प्रेम में इस कमी ने समाज को संकट की राह पर ही आगे बढ़ाया है।
बीकानेर के इतिहास के पन्नों को टटोला जाये, तो ज्ञात होगा कि तालाब नगर-स्थापना के समय व इससे पूर्व भी यहाँ की संस्कृति के अंग रहे हैं। आधिकारकि तथ्यों की न्यून उपलब्धता और प्रामाणिक इतिहास के ज्ञात तथ्यात्मक विवरणों से यह कहना मुश्किल है कि बीकानेर में बना पहला तालाब कौन सा है? फिर भी जो तथ्य सामने आये हैं, उनके आधार पर संसोलाव तालाब बीकानेर का सबसे पुराना तालाब ठहरता है। इसका निर्माण समय सं. 1572 है जो कि वहाँ पर लगे शिलालेख पर पढ़ा जा सकता है। और सबसे नया तालाब कुखसागर (गिंदोलाई) था, जो सन 1937 में बना। यह भी कहना मुश्किल है कि बीकानेर में कितने तालाब व तलाइयाँ थे। इस सम्बन्ध में व्यापक ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक उल्लेखों का अभाव ही है।
लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था।इस अनुसन्धान कार्य से पहले राजस्थान पत्रिका ने बीकानेर के तालाब शीर्षक से एक कालम शुरू किया था, जिसे श्री हेम शर्मा ने लिखा। उन्होंने पत्रिका के लिये कार्य आज से करीब 24 वर्ष पूर्व किया था और उस कालम में तालाब व तलाई को एक इकाई मानते हुए बीकानेर में 40 तालाब कायम किये। लेकिन शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि एक समय निश्चित ही बीकानेर में 100 से ज्यादा ताल-तलाइयाँ रहे होंगे क्योंकि 69 ताल-तलाइयों को आज भी गिना जा सकता है, जिन्हें इस शहर के नामी-गिरामी-वरिष्ठ नागरिकगण ने देख रखा है।
इस पुस्तक में इनकी सूची एवं परिचयात्मक विवरण भी दिया गया है। काल के क्रूर हाथों ने शायद इतनी ही और तलाइयों को नष्ट कर दिया। उदाहरण के लिये सावा बही खजानदेसर नं. 3, वि.सं. 1824, आषाढ़ बदी 13 को राजश्री बीकानेर ने चरण सागर व गजरूपदेसर पर घाट बनाने का एक आदेश दिया है, के आदेश का एक उल्लेख मिलता है। पर ये दोनों तालाब वर्तमान में चिन्हित नहीं किये जा सके।
बुजुर्ग बताते हैं कि अमुक-अमुक स्थान, जहाँ पर आज फलां महोल्ला या मकान आदि हैं वहाँ किसी समय में ताल या तलाई हुआ करते थे। अपने कालम में श्री हेम शर्मा ने ताल और तलाई को एक ही मान लिया था। असल में ऐसा उन्होंने अनुमान के आधार पर ही किया होगा। लेकिन गहराई में जाएँ तो पता चलेगा कि ताल और तलाई में अन्तर है। इसे निम्न बिन्दुओं से और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है :
1. तालाब आकार में बड़े होते हैं जबकि तलाई छोटी।
2. अधिकांशतः तालाब आयताकार हैं, जबकि अधिकांश तलाई वृत्ताकार।
3. तालाब का तला पक्का होता जबकि तलाई का कच्चा। पर कालान्तर में पक्के तल वाली तलाई भी बनी हुई देखी जा सकती है।
4. तालाब का ढलान सदैव गऊ घाट की तरफ ही होता है एवं खड्डे बीच में छोटे होते हैं, क्योंकि गऊ घाट पर पशुओं के पानी पीने के कारण वह मनुष्य के पीने के लायक नहीं रहता है, इसलिये बीच में खाड छोटी होती है। संसोलाव, हर्षोलाव, सागर देवीकुण्ड, कल्याणसागर आदि नगर के विभिन्न तालाबों पर इसे देखा जा सकता है, जबकि तलाई का ढलान उसके केन्द्र में रहता है। वृत्ताकार होने के कारण पानी के सूखने की प्रक्रिया में पहले किनारे का पानी सूखना आरम्भ होता है, अतः केन्द्र में जहाँ पानी जमा रहता है, उसके स्वतः ही स्वच्छ होने की प्रक्रिया होती रहती है। स्वतः स्वच्छ होने की इस प्राकृतिक प्रक्रिया को घड़े में पानी भरने की प्रक्रिया में देखा जा सकता है।
5. प्रायः तालाबों के घाट बाँधे हुए होते हैं, जबकि तलाइयों के घाट नहीं बाँधे जाते थे, पर कालान्तर पर घाट बाँधे हुए भी देखे जा सकते थे।
6. तालाब पर घाटों की संख्या अधिक होती है जबकि तलाइयों पर अपेक्षाकृत कम।
बीकानेर राज्य के इतिहास से गुजरने पर मालूम होता है कि राजा सरदार सिंह के समय, वि. सं. 1924 में हुई खानाशुमारी के अनुसार बीकानेर में कुल चार तालाब व पन्द्रह कुएँ थे।
देश-दर्पण में आई इस विवरण तालिका में तालाबों एवं कुओं के नाम नहीं दिये हैं। केवल संख्यात्मक आँकड़ा ही दिया गया है।
इसी क्रम में सन 1874 में लिखित 1932 में प्रकाशित Captain P.W. Powllet के बीकानेर गजेटियर में Tanks of Bikaner के अन्तर्गत जस्सोलाई, खरनाडा, गोगाजी की तलाई, फरसोलाई को शहर के अन्दर व शहर के बाहर सूरसागर, बख्तसागर, संसोलाव, हर्षोलाव, मूँधड़ों का तालाब, मोदियों का तालाब का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यति श्री उदयचन्द मथेरण (वि.सं. 1963) की लिखी बीकानेर गजल में आये तडागकूप वर्णन में भी नगर के छह प्रमुख तालाब-तलाइयों में सूरसागर, गोगाजी की तलाई, सवालखी तलाई, घड़सीसर, संसोलाव, हर्षोलाव का वर्णन देखने को मिल सकता है। मुंशी सोहन लाल विरचित तवारीख राजश्री बीकानेर में भी कैप्टन पी.डब्ल्यू. पावलेट द्वारा गिनाए तालाबों को ही पुनः उद्धृत किया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि रियासतकालीन बीकानेर में इस सम्बन्ध में जो शोध कार्य हुआ वह अनुमान के आधार पर किया गया, क्योंकि कार्य करने वालों का स्थानीय संस्कृति से सीधा सम्पर्क नहीं था। बीकानेर क्षेत्र की ठीक प्रकार से जानकारी न होने के कारण वे बहुत कम संख्या में तल-तलाई कायम कर पाये। दूसरे, ताल-तलाई सम्बन्धी गणना कार्य मौखिक सूचनाओं के आधार पर सम्पन्न किया होना जान पड़ता है क्योंकि नगर के आम-नागरिक को आज भी अगर ताल-तलाई के बारे में पूछें तो कम-से-कम दस से पन्द्रह तक के नाम हर कोई आसानी से गिना सकता है।
अतः स्वाभाविक ही था कि लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं।
अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था। अनुसन्धान के दौरान मैंने जिन उनहत्तर ताल-तलाइयों को चिन्हित किया है, उनमें से अधिकांश नष्ट हो चुके हैं, लेकिन उनके भग्नावशेष मौके पर देखे जा सकते हैं। इसके अलावा जो तालाब आज भी कायम हैं, उनमें हर्षोलाव, संसोलाव, देवीकुण्ड, कल्याणसर, गिरोलाई आदि प्रमुख हैं जिनके मूल स्वरूप को अभी तक क्षति नहीं पहुँची है।
हर्षोलाव और गिरोलाई को छोड़कर किसी भी ताल-तलाई की सही देखभाल न होने के कारण एवं आगोर के नष्ट होने की वजह से वे नष्ट होने के कगार पर हैं। आश्चर्य की बात है कि जब समाज आज की तरह अधिक उन्नत अवस्था में नहीं था तब तालाबों की संख्या का आँकड़ा सैकड़ा पार था और आज यह शून्य के अधिक करीब आ रहा है। हो सकता है अगले दशक में हम अपने बच्चों को स्वीमिंग पूल दिखलाते हुए बताएँ कि हमारे जमाने में इससे भी बड़े-बड़े तालाब हुआ करते थे।
लगभग हर व्यक्ति इनके महत्त्व व अस्तित्तव के प्रति सजग, सतर्क था, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों की सच्चाई यही है। बाद में पत्रिका के श्री हेम शर्मा ने फिर कुछ मेहनत की और यह संख्या दस से बढ़ाकर चालीस कर दी, लेकिन अब व्यापक खोजबीन के आधार पर उनहत्तर ताल-तलाइयों को तो इसी पुस्तक में अंकित तालाब मानचित्र में देखा जा सकता है। शायद इतने ही नगर-विकास की भेंट चढ़ चुके हैं। अतः यह कहना निश्चय ही संगत जान पड़ता है कि एक समय बीकानेर में ताल-तलाइयों की संख्या का आँकड़ा सौ को पार करता था।हमारे शहर का हर तालाब अपने आगोश में अपने जन्म से लेकर आज तक की अपनी व्यथा-कथा को समेटे है। जब हम उसकी व्यथा-कथा के प्रदेश में प्रवेश करेंगे तो हम अपने स्वर्णिम संस्कृति के इतिहास में दबे उन पन्नों से भी गुजरेंगे जिनमें हम अतीत की छवि का ठीक-ठीक अवलोकन कर पाएँगे।
हमने ताल-तलाई का जो वर्गीकरण किया है वह उनके तकनीकी अन्तर के साथ-साथ प्रचलित स्वरूप के आधार पर है। इस क्रम में बीकानेर के पन्द्रह तालाबों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1. संसोलाव
2. हर्षोलाव तालाब
3. फूलनाथ का तालाब
4. घड़सीसर
घड़सीसर री भाछ
नाम से राज्य द्वारा कर भी लिया जाता था।
5. नृसिंह सागर
6. ब्रह्मसागर
7. देवीकुण्डसागर
8. शिवबाड़ी तालाब
9. सूरसागर
10. बागड़ियों का तालाब
11. हिंगलाज तालाब
12. रघुनाथसागर
स्वस्ति राजराजेश्वर
महाराजाधिराज शिरोमणि महाराजगजसिंह महाराज कुमार राजसिंह वचनात.....। जी महरबानीकर अचारज जगन्नाथ, वृजलाल नु तलाब री धरती बक्शी छै।सु रघुनाथ सागर करासी। रामसिंह री छतरी रै पाछे रास्तो बैवे छैतिके सू उगुणों होसी, संवत 1821 मिती भादवा कृष्ण 11मुकाम पाय तख्त बीकानेर हुक्म मोहता राव बख्तावर सिंह।
13. मोदियों का तालाब
14. अर्जुनसागर
15. कल्याणसागर
1. धरणीधर तलाई
2. चूनगरान तलाई
3. कुखसागर
4. नाथसागर
5. हंसावत सेवगों की तलाई
6. भाटोलाई
7. कानोलाई तलाई
8. ठिंगाल भैरूं की तलाई
9. पीर तलाई
10. दर्जियों की तलाई
11. विश्वकर्मा सागर
कैरी गाय, कूण बाँटो देवै
वाली स्थिति का व्यवहार इसके साथ हो रहा है।
12. महानन्दसागर
13. कसाइयों की तलाई
14. रंगोलाई
15. नवलपुरी
16. राजरंगों की तलाई
17. गिरोलाई
18. खरनाडा तलाई
19. जतोलाई
20. हरोलाई
21. सवालखी तलाई
22. किशनाणी व्यासों की तलाई
23. गोपतलाई
24. बिन्नाणियों की तलाई
25. बख्तसागर
26. छींपोलाई
27. बोहरोलाई
28. फरसोलाई
29. नाइयों की तलाई
30. मिर्जामलजी की तलाई
31. गबोलाई
32. राधोलाई
33. सूरजनाथ तलाई
34. सदे सेवग की तलाई
35. जस्सोलाई तलाई
जल और समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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