जैवविविधता का संरक्षण

Published on
17 min read


पौधों, जन्तुओं एवं सूक्ष्मजीवों सहित विभिन्न प्रकार के जीवधारी, जो इस ग्रह पर हमारे सहभागी हैं, संसार को रहने योग्य एक सुन्दर स्थान का रूप प्रदान करते हैं। सजीव जीवधारी पर्वतीय चोटियों से लेकर समुद्र की गहराइयों, मरुस्थलों से लेकर वर्षावनों तक लगभग सभी जगहों पर पाये जाते हैं। इनकी प्रकृतियों, व्यवहार, आकृति, आकार एवं रंग भिन्न-भिन्न होते हैं। जीवधारियों में पायी जाने वाली असाधारण विविधता हमारे ग्रह के अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण भागों की रचना करती है, हालाँकि निरन्तर बढ़ रही जनसंख्या के कारण जैव विविधता को गम्भीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है।

इस पाठ में हम उन क्रियाकलापों का अध्ययन करेंगे जिनके द्वारा मानव जैवविविधता को क्षति पहुँचा रहा है। उन प्रयासों का भी अध्ययन करेंगे जो जैवविविधता के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिये किए जा रहे हैं एवं जिनकी इस सम्बन्ध में आवश्यकता है।

उद्देश्य

15.1 जैविक विविधता क्या है

15.1 आनुवांशिक विविधता (Genetic diversity)

15.1.2 स्पीशीज विविधता (Species diversity)

क. स्पीशीज समृद्धि :

एक निर्धारित क्षेत्र में विभिन्न स्पीशीजों की संख्या को दर्शाती है।

ख. स्पीशीज बाहुल्यः

स्पीशीजों में अपेक्षित संख्या को दर्शाता है उदाहरण के लिये किसी क्षेत्र में पादपों, जन्तुओं एवं सूक्ष्मजीवों की संख्या किसी दूसरे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक हो सकती है।

ग. वर्गिकीय (Taxonomic) अथवा जातिवृत्तीय (Phylogenetic) विविधताः

स्पीशीजों के विभिन्न समूहों के मध्य आनुवांशिक सम्बन्ध को दर्शाती है।

किसी क्षेत्र में उपस्थित स्पीशीजों के प्रकार भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं; जब किसी क्षेत्र में वर्गीकरण से विज्ञान असबंद्ध स्पीशीजें पायी जाती है तो वह क्षेत्र वर्गीकरणविज्ञान संबद्ध स्पीशीजों वाले क्षेत्र की तुलना में उच्च स्पीशीज विविधता को दर्शाता है। निम्नलिखित चित्र 15.1 का अवलोकन कीजिए।

(नोटः तीनों नमूने के क्षेत्रों को तीन प्रकार की स्पीशीजों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। (स्पीशीज समृद्धि समान है यद्यपि इनमें स्पीशीज बहुलता, प्रति स्पीशीज सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न है) अवलोकन कीजिए कि नमूना C की स्पीशीज विविधता उच्च है। क्योंकि इसे वर्गीकरण विज्ञान असंबद्ध स्पीशीजों द्वारा दर्शाया गया है)



विश्व स्तर पर, सजीव जीवों की लगभग 1.7 मिलियन स्पीशीज अब तक ज्ञात हो चुकी हैं और कई स्पीशीजों की खोज अभी की जानी है। वर्तमान में यह अनुमान लगाया गया है कि स्पीशीजों की कुल संख्या 5-10 मिलियन हो सकती है। पूरे विश्व में स्पीशीज विविधता का वितरण समान नहीं है। समग्र स्पीशीज समृद्धि विषुवतीय क्षेत्रों में केन्द्रित है तथा जैसे-जैसे विषुवत्तीय क्षेत्रों से ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर जाते हैं, इसमें कमी आने लगती है। इसके साथ-साथ स्थल पारितंत्रों में जैव विविधता सामान्यतया, ऊँचाई बढ़ाने के साथ-साथ कम होती जाती है। अन्य कारण हैं जो जैव विविधता का वर्षा की मात्रा तथा मृदा में पोषकों का स्तर ऐसे प्रभावित करते हैं। समुद्रीय परितंत्रों में स्पीशीज समृद्धि अधिक होती है।

भारत विशाल जैव विविधता का देश है (चित्र 15.2) और यह विश्व के 12 ‘‘मेगा विविधता’’ (Mega-diversity) वाले देशों में शामिल है।

शैवाल
कवक
लाइकेन
ब्रायोफाइटा
टेरिडोफाइटस
जिम्नोस्पर्म
एंजियोस्पर्म
बैक्टीरिया

15.1.3 पारितंत्रीय विविधता (Ecosystem biodiversity)

15.1.4 जैवविविधता के हॉट स्पॉट

पाठगत प्रश्न 15.1

15.2 जैविक विविधता क्यों महत्त्वपूर्ण है

जैविक विविधता का मूल्य

15.2.1 पारितंत्र सेवाएँ

i) जल संसाधनों का संरक्षणः

प्राकृतिक वानस्पतिक आच्छादन की सहायता से जल चक्रों को बनाए रखने के साथ बाढ़ एवं अनावृष्टि अकाल जैसी चरम परिस्थितियों के विरुद्ध बफर के तौर पर तथा जल अपवाह के नियमन एवं स्थायीकरण में सहायक होता है। वनस्पति के हट जाने के कारण बांधों एवं जलमार्गों में गाद इकट्ठी हो जाती है। आर्द्र भूमि तथा वन जल परिष्कृत तंत्रों के रूप में कार्य करते हैं। जबकि मैंग्रोव गाद को रोक कर समुद्री पारितंत्रों पर इसके प्रभाव को कम करते हैं।

ii) मृदा संरक्षणः

जैविक विविधिता मृदा के संरक्षण तथा नमी एवं पोषकों को बनाए रखने में सहायता करती है। वनस्पति ढके हुए विशाल क्षेत्रों को वनस्पतिहीन करने के कारण प्रायः मृदा अपरदन में तेजी आने लगती है। उत्पादकता में कमी हो जाती है तथा आकस्मिक बाढ़ जैसी घटनाएँ घटने लगती है। जड़-तंत्र जल को उपमृदा तक पहुँचाने में सहायता करता है। जड़-तंत्र पोषक पदार्थों को जमीन के ऊपर तक पहुँचाकर खनिज पोषकों को सतह तक भी लाता है।

iii) पोषकों का संग्रहण एवं चक्रणः

पारितंत्र वायुमण्डल एवं मृदा में पाये जाने वाले पोषकों के पुनःचक्रण का महत्त्वपूर्ण जैविक कार्य करता है। पादप पोषकों को ग्रहण करने में सक्षम होते हैं तथा ये पोषक खाद्य श्रृंखलाओं के आधार की रचना कर सकते हैं, जिन्हें विभिन्न प्रकार के जीवों द्वारा उपयोग में लाया जाता है। मृदा में पोषक पदार्थ फिर से आ जाते हैं। मृत अथवा अपशिष्ट पदार्थ के द्वारा किया जाता है जिन्हें सूक्ष्म जीवों द्वारा रूपांतरित किया जाता है। इसके पश्चात इन पदार्थों को केंचुए जैसे अन्य प्राणियों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है जो मृदा को मिश्रित एवं वायवीय बनाते हैं तथा पोषकों की सहज उपलब्धता को सुनिश्चित करते हैं।

iv) प्रदूषण में कमीः

पारितंत्र एवं पारिस्थितिकीय प्रक्रियाएँ वायुमंडल के गैसीय संगठन को बनाए रखने, अपशिष्ट पदार्थों के अपघटन एवं प्रदूषकों के निष्कासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ पारितंत्रों विशेषकर आर्द्रभूमियों में प्रदूषकों के अपघटन एवं उन्हें अवशेषित करने की क्षमता होती है। प्राकृतिक एवं कृत्रिम आर्द्रभूमियों का उपयोग बहिर्स्रावों से पोषकों, भारी धातुओं, निलंबित ठोसों को पृथक करने, BOD को कम करने एवं हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिये किया जा रहा है। यद्यपि प्रदूषकों की अधिक मात्रा पारितंत्र एवं उनके जीवजात का पादप एवं प्राणी की अखंडता के लिये हानिकारक हो सकती है।

v) जलवायु स्थिरताः

वनस्पति सूक्ष्म एवं बृहत स्तर पर जलवायु को प्रभावित करती है। बढ़ते हुए प्रमाण यह बताते हैं कि सघन वन जल-वाष्प को एक स्थिर दर से पुनर्चक्रण करके आस-पास के क्षेत्रों में वर्षा को बनाए रखने में सहायता करते हैं। वनस्पति सूक्ष्मजलवायु पर भी मन्द प्रभाव डालती है। वनस्पति का शीतलन प्रभाव एक सामान्य अनुभव है जो जीवन को आरामदायक बनाता है। कुछ जीव अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिये इस प्रकार की सूक्ष्म जलवायु पर निर्भर रहते हैं।

vi) पारिस्थितकीय प्रक्रियाओं का रख-रखावः

पक्षियों एवं परभक्षियों की विभिन्न स्पीशीज कीट पीड़कों को नियंत्रित करने में सहायता करती है, इस प्रकार कृत्रिम नियंत्रण उपायों की आवश्यकता एवं लागत को कम करती हैं। पक्षी एवं मकरंद प्रिय कीट जोकि प्राकृतिक पर्यावासों में बसेरा एवं जनन करते हैं, फसल एवं जंगली पादपों के लिये महत्त्वपूर्ण परागण कराने वाले कारक हैं। कुछ प्राकृतिक पर्यावास मैंग्रोव एवं आर्द्रभूमियों में वन्यजीवों की आबादी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण चरणों जैसे अण्डे देने की जगहों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

जैवविविधता द्वारा प्रदान की गई पारिस्थितीकीय सेवाओं के बिना भोजन, शुद्ध हवा प्राप्त करना संभव नहीं होगा और अपशिष्ट पदार्थों के ढेर में डूब जाएँगे।

15.2.2 आर्थिक महत्त्व के जैविक संसाधन

i) खाद्य, रेशे, औषधि, ईंधन की लकड़ी एवं सजावटी पौधे:

पाँच हजार ऐसी पादप स्पीशीजें मालूम हैं जिन्हें मनुष्यों द्वारा भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। वर्तमान में लगभग 20 स्पीशीजें विश्व की जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से को भोजन प्रदान करती है और केवल 3 या 4 मुख्य उपज हैं जो विश्व की आबादी के अधिकांश लोगों द्वारा उपयोग की जाती हैं।

पौधों एवं प्राणियों से बड़ी संख्या में प्राप्त होने वाले पदार्थों को विभिन्न रोगों के इलाज में उपयोग किया जाता है। भारत में औषधीय पौधों के उपयोग का एक प्राचीन इतिहास है। जड़ी बूटियों के चिकित्सीय मूल्यों के कारण आयुर्वेद का विकास हुआ जिसका अर्थ है ‘‘जीवन का विज्ञान’’। ऐसा अनुमान है कि देश की 70% जनसंख्या हर्बल दवाओं पर निर्भर है और पौधों की 7000 से अधिक स्पीशीजें औषधीय प्रयोजनों के लिये उपयोग में लाई जाती हैं।

लकड़ी एक ऐसी आधारभूत सामग्री है जिसका उपयोग विश्व भर में फर्नीचर बनाने तथा भवन निर्माण में किया जाता है। लकड़ी ईंधन का प्राथमिक स्रोत हैं जिसका प्रयोग तीसरी दुनिया के देशों में व्यापक रूप से किया जाता है। लकड़ी एवं बांस का उपयोग कागज बनाने में किया जाता है।

पादप नारियल, जटा, सन, पटसन, कपास, जूट जैसे पौधों से प्राप्त रेशों के पारंपरिक स्रोत हैं।

ii) फसलों में सुधार के लिये प्रजनन सामग्रीः

उगाए जाने वाले फसली पौधों के वन्य सम्बन्धियों में बहुमूल्य जीन पाए जाते हैं जिनका फसल सुधार कार्यक्रमों में अत्यधिक आनुवांशिक महत्त्व है। वन्य फसली पौधों के आनुवांशिक पदार्थ अथवा जीन का उपयोग फसलों का उत्पादन बढ़ाने या प्रतिरोधक क्षमता में सुधार के उद्देश्य से वर्तमान फसलों का नवीनीकरण करने के लिये फसल के पौधों की नयी किस्में विकसित करने के लिये किया जाता है। उदाहरणतः एशिया में उगाये जाने वाला चावल एकल वन्य धान की किस्म के द्वारा प्रदान किए गए जीन के कारण चार मुख्य रोगों से मुक्त है।

iii) भावी संसाधनः

जैव विविधता के संरक्षण एवं नए जैविक संसाधनों की खोज के मध्य एक स्पष्ट संबंध है। अपेक्षाकृत कुछ विकसित पादप स्पीशीजें जो वर्तमान में उगाई जा रही हैं उन पर अत्यधिक अनुसंधान एवं चयनात्मक प्रजनन का उपयोग किया गया था। कई वर्तमान कम उपयोगी खाद्य फसलें भविष्य में महत्त्वपूर्ण फसल बनने की क्षमता रखती हैं। स्थानीय लोगों द्वारा अक्सर जंगली पौधों का उपयोग किए जाने का ज्ञान प्रायः नए पादप उत्पादों को विकसित करने के विचार का स्रोत है।

15.2.3 सामाजिक लाभ

i) मनोरंजनः

वन, वन्यजीवन, राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण, बगीचे तथा एक्वेरियम मनोरंजन एवं मन बहलाने की दृष्टि से अत्यधिक मूल्यवान हैं। इकोपर्यटन, फोटोग्राफी, पेंटिंग, फिल्म बनाना तथा साहित्यिक गतिविधियों का इनसे घनिष्ट संबंध है।

ii) सांस्कृतिक मूल्यः

पादप एवं प्राणी मानव के सांस्कृतिक जीवन एक का महत्त्वपूर्ण भाग हैं। मानव संस्कृतियां अपने पर्यावरण के साथ-साथ विकसित हुई हैं तथा जैव विविधता विभिन्न समुदायों को एक अलग सांस्कृतिक पहचान प्रदान कर सकती है।

प्राकृतिक वातावरण सभी संस्कृतियों के लोगों की प्रेरणादायक, सौंदर्य, आध्यात्मिक और शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। भारत के अधिकांश गाँवों एवं शहरों में तुलसी (ओसीमम सैंक्टम), पीपल (फाइकस रिलीजियोसा), खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) जैसे पौधों को पवित्र माना जाता है तथा इनकी पूजा की जाती है।

15.2.4 अनुसंधान, शिक्षा एवं मॉनिटरिंग

पाठगत प्रश्न 15.2

15.3 भारतीय जैव विविधता की विलक्षणता एवं संबंधित क्षेत्रीय विशिष्टता

15.4 जैवविविधता के ह्रास के कारण

प्रत्यक्ष तरीकाः

वनोन्मूलन, शिकार, अवैध शिकार, व्यवसायिक दोहन।

अप्रत्यक्ष तरीकाः

प्राकृतिक पर्यावासों की क्षति या इनमें रूपान्तरण विदेशी स्पीशीजों का प्रवेशन, प्रदूषण इत्यादि।

प्राकृतिक कारणः

जलवायु परिवर्तन।

इनमें से पर्यावास का विनाश तथा अति दोहन मुख्य कारण हैं।

i) पर्यावासों का विनाशः

वनों की कटाई एवं जंगल की आग, आर्द्रभूमियों की भराई तथा इनसे पानी की निकासी, प्राकृतिक क्षेत्रों को कृषि या औद्योगिक उपयोग में लाना, मानव बस्तियां, खनन, सड़कें बनाना तथा अन्य विकास संबंधी परियोजनाएँ वास स्थान के विनाश का कारण हैं। इस तरह जीवों के प्राकृतिक पर्यावास परिवर्तित हो गए हैं या फिर नष्ट हो गए हैं। इन परिवर्तनों के कारण स्पीशीजें या तो मर जाती हैं या क्षेत्र से बाहर निकलने के लिये बाध्य हो जाती हैं जिसके कारण स्पीशीजों के मध्य अन्योन्यक्रिया बाधित हो जाती है। बड़े वन्य क्षेत्रों का विखण्डन (जैसे गलियारे) वन के भीतरी भागों में रहने वाली स्पीशीजों को प्रभावित करता है और वह लुप्त हो जाती है। विकास संबंधी गतिविधियों के दौरान स्पीशीजों की प्रत्यक्ष क्षति के अतिरिक्त नया पर्यावरण स्पीशीजों के जीवित रहने के लिये अनुपयुक्त होता है। अतिदोहन प्रजातियों की जनसंख्या का आकार कम कर देता है और इन्हें विलुप्त होने पर मजबूर कर देता है।

ii) विदेशी स्पीशीजों का प्रवेशः

लोगों के कपड़ों पर बीजों का चिपकना, माइस, चूहे और पक्षी जहाजों पर सवार हो जाते हैं। जब यह स्पीशीजें नए स्थानों पर पहुँचती हैं तो वहाँ शत्रुओं के अभाव के कारण बहुत तेजी से प्रजनन करती हैं और प्रायः उन देशी स्पीशीजों को समाप्त कर देती है जो यहाँ पहले से उपस्थित हैं। विदेशी स्पीशीजें (भौगोलिक क्षेत्र में प्रवेश करने वाली नई स्पीशीजें) देशी स्पीशीजों को पूरी तरह से नष्ट कर सकती हैं। कुछ उदाहरण हैं:

i) पारथीनियम हिस्टेरोफोरस (कांग्रेस घास-एक उष्णकटिबंधीय अमेरिकी खरपतवार) भारत के शहरों, कस्बों तथा गाँवों के खाली क्षेत्रों में फैल चुकी है जिससे स्थानीय पादपों और उन पर निर्भर रहने वाले प्राणी मिट गए हैं।

ii) नाईल पर्च, एक विदेशी परभक्षी मछली जिसका विक्टोरिया झील (दक्षिणी अफ्रीका) में प्रवेश के कारण झील का समस्त पारितंत्र संकट ग्रस्त हो गया। परिणामस्वरूप छोटी सिक्लिड (Cichlid) मछली की कई देशी स्पीशीजें समाप्त हो गई जो इस अलवणजलीय तंत्र की स्थानिक प्रजातियां थीं।

iii) जलकुंभी झीलों एवं नदी तट को अवरुद्ध कर देती हैं तथा कई जलीय स्पीशीजों के अस्तित्व के लिये संकट पैदा कर देती हैं। यह भारत के मैदानी इलाकों में आमतौर से पायी जाती हैं।

iv) लेन्टाना केमेरा (एक अमेरिकी खरपतवार) ने भारत के विभिन्न भागों में कई वन भूमियों पर कब्जा किया हुआ है और इस कारण देशी घास स्पीशीजें नष्ट हो गई हैं।

iii) प्रदूषणः

वायु प्रदूषण, अम्लीय वर्षा के कारण वन नष्ट हो जाते हैं। जल प्रदूषण के कारण मछलियाँ तथा अन्य जलीय पादप एवं जन्तु मर जाते हैं। विषाक्त एवं खतरनाक पदार्थों को जल मार्गों में बहाया जाता है जिसके कारण जलीय जीवन नष्ट हो जाता है। समुद्र में तेल गिरने के कारण तटीय पक्षी, पादप एवं अन्य समुद्रीय जन्तु मर जाते हैं। प्लास्टिक कचरे में वन्यजीव फंस जाते हैं। यह सरलता से देखा जा सकता है कि प्रदूषण जैव विविधता के लिये कितना बड़ा खतरा है।

iv) जनसंख्या वृद्धि एवं गरीबीः

छह अरब से भी ज्यादा लोग पृथ्वी पर रहते हैं। प्रत्येक वर्ष इसमें 90 मिलियन लोग और शामिल हो जाते हैं। ये सभी लोग भोजन, जल, औषधियां, कपड़े, आश्रय और ईंधन प्राप्त करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं। गरीब लोगों की आवश्यकता तथा प्रायः धनाढ्य लोगों के लालच के कारण संसाधनों पर निरंतर दबाव बढ़ रहा है जिससे इनका अतिदोहन हो रहा है एवं जैवविविधता को क्षति पहुँच रही है।

विश्व संरक्षण संघ (The World Conservation Union, IUCN) (पूर्व में ‘प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये अन्तरराष्ट्रीय संघ’ के रूप में जाना जाता था) ने स्पीशीजों की संरक्षण स्थिति के अनुसार आठ रेड लिस्ट श्रेणियों की पहचान की है। इन श्रेणियों को निम्न तालिका 15.2 में परिभाषित किया गया है।

तालिका 15.2: IUCN संकट ग्रस्त श्रेणियां

सूची श्रेणी

परिभाषा

विलुप्त

एक टेक्सॉन विलुप्त है जब संदेह करने के लिये कोई कारण ही नहीं बचता कि अंतिम सदस्य की भी मृत्यु हो चुकी है।

जंगल में विलुप्त होना

एक टेक्सॉन जंगल में विलुप्त है जब तब थकाने वाला सर्वे करने पर जाना-जाता है एवं/या फिर संभावित वास स्थान में एक सदस्य की भी गिनती रिकॉर्ड नहीं कर पाते हैं।

क्रांतिक रूप से संकटापन्न

एक टेक्सॉन संकटापन्न होता है जब वह जल्दी ही भविष्य में जंगल के विलुप्त होने की सबसे अधिक संभावना का सामना कर रहा होता है।

संकटापन्न

एक टेक्सॉन संकटापन्न होता है जब वह क्रांतिक रूप से संकटापन्न नहीं है लेकिन वह जल्दी ही भविष्य में जंगल में तेजी से विलुप्त होने के कगार की बहुत अधिक संभावना है।

सुभेद्य

एक टेक्सॉन सुभेद्य है जबकि वह क्रांतिक रूप से संकटापन्न या संकटापन्न नहीं है परन्तु इसके मध्यक्रम भविष्य में तेजी से विलुप्त होने की संभावना काफी है।

कम संभावित

एक टेक्सान कम संभावित खतरे में है जब वह मापा जा सके एवं क्रांतिक रूप से संकटापन्न, संकटापन्न या सुभेद्य मानने के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है।

अपर्याप्त डाटा

एक टेक्सॉन का डाटा अपर्याप्त है जब पर्याप्त सूचना के अभाव के कारण परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसकी विलोपन की संभावना के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है।

मूल्यांकन नहीं किया जा सके

एक टेक्सॉन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है जब ऊपर दिये गए मानदंडों  के विरुद्ध मूल्यांकन करना संभव नहीं होता है।

विलोपन्मुखी स्पीशीजों की स्थिति

तालिका 15.3: भारत में संकटापन्न स्पीशीजों के उदाहरण

श्रेणी

पादप स्पीशीजें

जन्तु स्पीशीजें

गम्भीर रूप से संकटापन्न

बेरबेरिस नीलगीरियनसिस

सस सल्वेनियस, (पिग्मी होग)

संकटापन्न

वेन्टिनक्टा निकोवारिका

एल्यूरस फुलगेन्स (रेड पांडा)

सुभेद्य

क्यूप्रेसस केशमीरियान

एंटीलोप सर्वीकापरा, (ब्लेक बक)

15.5 जैव विविधता का संरक्षण

पाठगत प्रश्न 15.3

15.6 संरक्षण कार्यनीतियां

1. निजस्थानिक (निज स्थानीय) संरक्षणः

इस प्रकार के संरक्षण के अन्तर्गत पौधों एवं प्राणियों को उनके प्राकृतिक वास स्थान अथवा सुरक्षित क्षेत्रों में संरक्षित किया जाता है। संरक्षित क्षेत्र भूमि या समुद्र के वे क्षेत्र हैं जो संरक्षण के लिये समर्पित हैं तथा जैव विविधता को बनाए रखते हैं।

2. परस्थानिक (परस्थानीय) संरक्षणः

पादपों एवं प्राणियों का उनके पर्यावास के बाहर संरक्षण। इसमें वानस्पतिक उद्यान, चिड़िया-घर, जीन बैंक, बीज बैंक, ऊतक संवर्धन तथा क्रायोप्रिजर्वेशन सम्मिलित हैं।

15.6.1 निजस्थानिक विधियां

i) पर्यावास का संरक्षणः

स्पीशीजों के संरक्षण की मुख्य रणनीति सम्बन्धित पारितंत्रों में पर्यावास का संरक्षण है। वर्तमान में भारत में 96 राष्ट्रीय, 500 वन्यजीव अभ्यारण, 13 जैव मंडल रिजर्व, 27 टाइगर रिजर्व तथा 11 एलिफेंट रिजर्व हैं जो 15-67 मिलियन हेक्टेयर या देश के भौगोलिक क्षेत्र के 4.7 % भाग पर फैले हुए हैं। भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने गहन संरक्षण एवं प्रबंधन के उद्देश्य से 21 आर्द्र भूमियों, 30 मैंग्रोव क्षेत्रों एवं 4 मूंगा चट्टानों (कोरल रीफ) की पहचान की है।

राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण

भारत के कुछ अभ्यारण्य हैं:

जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व - उत्तराखण्ड, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान- मध्य प्रदेश, बान्धवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान- मध्य प्रदेश, रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान- सवाईमाधोपुर, गिर राष्ट्रीय उद्यान- सासागीर (गुजरात) इत्यादि।

वन्यजीव प्रेमी भरतपुर, राजस्थान के शानदार पक्षी अभ्यारण्य देखने को उत्सुक रहते हैं यह अभ्यारण्य विश्व का दूसरा ऐसा प्राकृतिक पर्यावास है जिसमें शीतऋतु के दौरान साइबेरियाई सारस प्रवास करते हैं और यह मूलतः जल पक्षियों के लिये एक विशाल प्रजनन क्षेत्र उपलब्ध कराता है। ग्रेट इंडियन बस्टार्ड भारतीय मरुस्थल में पाया जाता है। पश्चिमी हिमालय में हिमालयी मोनाल तीतर, पश्चिमी टेंगोपाम कोकलास (कोयल), श्वेत क्रस्टेड खलीज तीतर, ग्रीफॉन गिद्ध, लेमरगियर गोधस (Choughs), रेवन्स जैसे पक्षी पाए जाते हैं। अंडमान एवं निकोबार क्षेत्र में पक्षियों की लगभग 250 प्रजातियाँ एवं उप-स्पीशीजें पायी जाती हैं जैसे दुर्लभ नारकोण्डम हार्न बिल, निकोबार कबूतर और मेगापोड। जबकि दक्षिण भारत में राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्य भी। उदाहरण के लिये तमिलनाडु में मदुमलाई तथा कर्नाटक में बांदीपुर टाइगर रिजर्व तथा नागाहोल राष्ट्रीय उद्यान।

वन्य जीवों को उनके प्राकृतिक पर्यावरण में संरक्षण प्रदान करने के लिये अनेकों राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्य स्थापित किए गए हैं। इनमें से कुछ राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारण्य तथा उनमें पायी जाने वाली स्पीशीजें नीचे दी गई हैं:

- काजीरंगा अभ्यारण्य (असम)- एक सींग वाला गेंडा।
- मानस अभ्यारण्य (असम) - जंगली भैंस।
- गिर वन (गुजरात) - शेर, चीतल, सांभर, जंगली भालू।
- केलामेरु पक्षी अभ्यारण्य (आन्ध्र प्रदेश) - पेलिकन एवं समुद्री पक्षी।
- डचिगाम अभ्यारण्य (जम्मू एवं कश्मीर) - कश्मीरी बारहसिंघे, हिमालयी तेहर, जंगली बकरी, भेड़, हिरण।
- बांदीपुर अभ्यारण्य (कर्नाटक) - भारतीय गवल (बाइसन), हाथी, लंगूर।
- पेरियार अभ्यारण्य (केरल) - हाथी, हिरण, सांभर।
- कान्हा राष्ट्रीय उद्यान (मध्य प्रदेश)- बाघ, तेंदुए, जंगली कुत्ते।
- सिमिलीपाल राष्ट्रीय उद्यान (उड़ीसा)- मैंग्रोव (गारन), अंडे देने वाले समुद्री कछुए।
- भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य (राजस्थान)- बत्तख, बगुला।
- कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान (उत्तरांचल)- बाघ, बार्किंग हिरण, सांभर, जंगली भालू, रीसर बंदर।
- जलदपारा अभ्यारण्य (पश्चिमी बंगाल)- गैंडा।

वन्यजीव संरक्षण सोसायटी (Wildlife Conservation Society, WCS), भारत अन्य गैर सरकारी संगठनों एवं आदिवासी लोगों के सहयोग से, भारत की सबसे कीमती पादप प्रजातियों के संरक्षण एवं पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिये वन्यजीव संरक्षण के नए मॉडल विकसित करने का हर संभव प्रयास कर रही है।

जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र (Biosphere reserve zone)

भारत में जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र (Biosphere reserves, BR)

की अवधारणा को 1975 में यूनेस्को के ‘‘मानव एवं जैव मंडल कार्यक्रम’’ के एक भाग के रूप में शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य है-पारितंत्रों एवं इनके आनुवांशिक पदार्थ का संरक्षण। जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र में कोर, बफर एवं ट्रान्जीशन क्षेत्र सम्मिलित होते हैं। (क) कोर क्षेत्र (Core zone) पूर्णतया सुरक्षित है तथा मानव गतिविधियों द्वारा कम से कम बाधित प्राकृतिक क्षेत्र है। यह कानूनी तौर पर संरक्षित ऐसा पारितंत्र है जिसमें किसी विशेष उद्देश्य के लिये अनुमति को छोड़कर प्रवेश की अनुमति नहीं है। वैज्ञानिक अन्वेषण के लिये विनाशकारी नमूना निषेध है। (ख) बफर क्षेत्र (Buffer zone), कोर क्षेत्र के चारों तरफ का क्षेत्र है तथा इसका प्रबंधन (ग) संक्रमण क्षेत्र (Transition zone) जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र का सबसे बाहरी भाग है, यह आरक्षित क्षेत्र प्रबंधन एवं स्थानीय लोगों के मध्य सक्रिय सहयोग का ऐसा क्षेत्र है जिसमें बस्तियां, फसल उगाना, वानिकी, मनोरंजन जैसी गतिविधियां एवं अन्य आर्थिक क्रियाकलाप संरक्षण के उद्देश्यों के साथ सामंजस्य बनाते हुए सम्पन्न किए जाते हैं। आज तक 107 देशों में 533 जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र स्थापित हो चुके हैं।

जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र के मुख्य कार्य हैं:

संरक्षणः

प्रतिनिधियों, भूदृश्यों तथा विभिन्न प्रकार के पारितंत्रों एवं उनमें पायी जाने वाली सभी प्रजातियों एवं आनुवांशिक संसाधनों का दीर्घकालीन संरक्षण।

विकासः

पारम्परिक संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहन देना तथा सांस्कृतिक, सामाजिक एवं पारिस्थितिकीय रूप से सतत पोषणीय आर्थिक विकास को बढ़ावा देना।

वैज्ञानिक अनुसंधान, निगरानी एवं शिक्षाः

संरक्षण अनुसंधान निगरानी, स्थानीय, राष्ट्रीय एवं वैश्विक पर्यावरणीय तथा संरक्षण के मुद्दों से सम्बन्धित शिक्षा एवं सूचना के आदान प्रदान को सहारा देना।

II) स्पीशीज उन्मुख परियोजनाएँ:

कुछ प्रजातियों की ठोस एवं विशेष रूप से निर्देशित प्रयासों की आवश्यकता के तौर पर पहचान की गई है। प्रोजेक्ट टाइगर, प्रोजेक्ट एलिफेन्ट एवं प्रोजेक्ट क्रोकोडाइल इनके वास स्थान के संरक्षण के माध्यम से एकल प्रजातियों पर ध्यान केन्द्रित करने के उदाहरण हैं।

प्रोजेक्ट टाइगर- स्पीशीज संरक्षण में एक सफलता

प्रोजेक्ट एलिफेंट

मगरमच्छ प्रजनन एवं प्रबंधन परियोजना

iii) पवित्र वन एवं पवित्र झीलें:

भारत एवं कुछ अन्य एशियाई देशों में पवित्र वनों के रूप में जैव विविधता के संरक्षण की परंपरागत कार्यनीति प्रचलित है। ये छोटे-छोटे वन हैं जो धार्मिक पवित्रता के कारण आदिवासी समुदायों के द्वारा संरक्षित हैं। यह हर प्रकार के विघ्न से स्वतंत्र हैं। पवित्र वन भारत के विभिन्न भागों में स्थित हैं जैसे कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल, मेघालय इसी प्रकार कई जल निकाय जैसे सिक्किम में खेचिओपलरी झील को लोगों द्वारा पवित्र घोषित किया गया है जिससे जलीय पादपों एवं जन्तुओं को संरक्षण मिला है।

15.6.2 परस्थानिक संरक्षण

(i) वानस्पतिक उद्यान, चिड़ियाघर आदिः

निज स्थानिक संरक्षण प्रयासों के पूरक के तौर पर परस्थानिक संरक्षण, विभिन्न एजेंसियों द्वारा स्थापित वानस्पतिक उद्यान, चिड़ियाघर, औषधीय पादप पार्क आदि के माध्यम से किया जा रहा है। हावड़ा का भारतीय वानस्पतिक उद्यान 200 वर्ष से भी अधिक पुराना है। अन्य महत्त्वपूर्ण वानस्पतिक उद्यान ऊटी, बंग्लुरु तथा लखनऊ में स्थित हैं। भारतीय गणराज्य का नवीनतम वानस्पतिक उद्यान दिल्ली के समीप नोएडा में अप्रैल 2002 में स्थापित किया गया है। इस उद्यान के मुख्य उद्देश्य हैं:

- प्रमुख संकटग्रस्त पादप स्पीशीजों का परस्थानिक संरक्षण एवं प्रवर्धन करना।
- संरक्षण, अनुसंधान एवं प्रशिक्षण के लिये उत्कृष्टता के केन्द्र के रूप में कार्य करना।
- शिक्षा के माध्यम से पादप विविधता एवं संरक्षण की आवश्यकता के प्रति जनता में जागरुकता पैदा करना।

देश में कई चिड़ियाघर विकसित किए गए हैं। ये प्राणी उद्यान प्राणी स्पीशीजों के बारे में शिक्षा एवं मनोरंजन के केन्द्रों के रूप में देखे जाते हैं। ये संकटापन्न प्राणी स्पीशीजों के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जैसे मणीपुर थामिया हिरण (सीरस इल्डी) तथा श्वेत पंख वाली वुड डक (कैरिना स्कूटूलता) के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बंदी प्रजनन केन्द्र के उल्लेखनीय सफलतम उदाहरण गंगा के घड़ियाल (गेवियालिस गेंजेटिकस), कछुए एवं श्वेत टाइगर हैं।

(ii) जीन बैंकः

आनुवांशिक संसाधनों का परस्थानिक संग्रहण एवं संरक्षण जीन बैंकों एवं बीज बैंकों द्वारा किया जाता है। राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो (The National Bureau of Plant Genetic Resources, NBPGR), नई दिल्ली फसल के पौधों के जंगली संबंधित स्पीशीजों तथा उगाई जाने वाली किस्मों के बीजों को संरक्षित रखता है, करनाल (हरियाणा) में राष्ट्रीय पशु अनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (The National Bureau of Animal Genetic Resources) पालतू पशुओं के आनुवांशिक पदार्थ का रखरखाव करता है तथा राष्ट्रीय मत्स्य आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो (The National Bureau of Fish Genetic Resources), लखनऊ मछलियों के लिये है।

(iii) क्रायोप्रिजर्वेशन (Cryopreservation) :

(हिमकारी संरक्षण) विशेष रूप से कायिक संवर्धित फसलों के संरक्षण के लिये लाभदायक है। क्रोयोप्रिजर्वेशन के अन्तर्गत पदार्थ को द्रव नाइट्रोजन में अत्यंत निम्न तापमान (-196° C) पर रखा जाता है तथा सभी उपापचयी प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों को आवश्यक रूप से निलंबित रखा जाता है। क्रोयोप्रिजर्वेशन का अनुप्रयोग विभज्योतक, युग्मनजीय एवं कायिक भ्रूण, पराग, प्रोटोप्लास्ट कोशिकाएँ तथा अनेक पादप स्पीशीजों के निलंबन संवर्धन पर सफलता के साथ किया जा चुका है।

(iv) आण्विक स्तर पर संरक्षण (DNA स्तर पर) :

उपरोक्त के अतिरिक्त, आण्विक स्तर पर जर्मप्लाज़्म संरक्षण अब संभव है तथा इसने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया है। क्लोन डीएनए तथा डीएनए युक्त पदार्थ अपनी मूल अवस्था में आनुवांशिक संरक्षण के लिये उपयोग किया जा सकते है। इसके अलावा जीन बैंकों में संग्रहित मूल्यवान जीनोटाइप दर्शाने वाला अलाभकारी पदार्थ डीएनए लाइब्रेरी के स्रोतों के रूप में उपयोग किया जा सकता है, जहाँ से उपयुक्त जीन या जीनों के संयोजन को पुनः प्राप्त किया जा सकता है।

कानूनी उपायः

बाजार में बाघ की हड्डियों, गैंडे के सींगों, फर, हाथी दांत, खाल, कस्तूरी, मोर के पंख इत्यादि की मांग के कारण वन्य जीवों की हत्या की जाती है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम (1972) में अवैध शिकार एवं व्यापार को रोकने के लिये जुर्माना एवं दंड का प्रावधान है। भारत ने वन्य पादप एवं जन्तुओं की संकटापन्न स्पीशीजों के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार समझौते (Convention on International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora, CITES) पर हस्ताक्षर किए हैं। समझौता 1 जुलाई 1975 से लागू है। इसके साथ-साथ भारत ने जैविक विविधता समझौते (Convention on Biological Diversity, CBD) पर भी हस्ताक्षर किए हैं। यह हस्ताक्षर 29 दिसम्बर 1993 को पृथ्वी सम्मेलन के दौरान रियो डी जेनेरो में किए गए थे। इस समझौते के तीन मुख्य उद्देश्य हैं:

1. जैवविविधता का संरक्षण।
2. जैवविविधता का सतत पोषणीय उपयोग।
3. आनुवांशिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों का स्वस्थ एवं समान बँटवारा।

CITES (सीआइटीईएस) एवं CBD (सीबीडी) अन्तरराष्ट्रीय पहल है। भारत सरकार ने भी 2002 में जैविक विविधता अधिनियम पास किया है।

जैविक विविधता अधिनियम 2002

पाठगत प्रश्न 15.4

आपने क्या सीखा

पाठान्त प्रश्न

पाठगत प्रश्नों के उत्तर

15.1


1-पृथ्वी पर पायी जाने वाली जीवधारियों की सभी किस्मों की कुल संख्या (सामूहिक रूप से) जैवविविधता का गठन करती है।
2. आनुवांशिक, स्पीशीज तथा पारिस्थितिकीय जैवविविधता
3. पश्चिमी घाट एवं पूर्वी हिमालय
4. एंजियोस्पर्म एवं आर्थ्रोपोड

15.2


1. पारिस्थितिकीय सेवाएँ, जैविक संसाधन, सौन्दर्य एवं सांस्कृतिक मूल्य।
2. परागण, मृदा का संरक्षण, जलवायु नियंत्रण। (कोई दो)
3. प्रदूषकों को कम करना, वायु के गैसीय घटकों का रख-रखाव, कचरे (अपशिष्टों) का अवक्रमण। (कोई दो)

15.3


1. हिमालय पार का क्षेत्र।
2. इसकी उष्णकटिबन्धीय स्थिति।
- परिवर्तनशील भौतिक लक्षण एवं जलवायु परिस्थितियाँ।
- तीन प्रमुख जैव भौगोलिक क्षेत्रों का मिलान।
3. उत्तर-पूर्व भारत।
4. भौगोलिक क्षेत्र में नई अथवा विदेशज स्पीशीजों के प्रवेश के कारण परिवर्तित जैव अन्योन्यक्रिया के द्वारा स्थानीय प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं।
5. कोर क्षेत्र, बफर क्षेत्र तथा संक्रमण क्षेत्र।
6. जैव विविधता का संरक्षण, आनुवांशिक संसाधनों के उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों का समान बँटवारा तथा जैवविविधता का सतत पोषणीय उपयोग।
7. इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसोर्सेज।
8. 18,44

15.4


1. दो कार्यनीतियां - (i) निजस्थानिक; (ii) परस्थानिक
2. उत्तरांचल में जिम कार्बेट पार्क, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान। (कोई दो)
3. इसमें कोर, बफर तथा संक्रमण क्षेत्र सम्मिलित हैं।
5. 1- संरक्षण 2- विकास
6. (i) राष्ट्रीय पादप आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो, नई दिल्ली
(ii) राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान
(iii) वन्य पादप एवं जन्तुओं की संकटापन्न प्रजातियों के व्यापार पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन
(iv) इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसार्सेज
(v) जैविक विविधता पर सम्मेलन
(vi) राष्ट्रीय जैवविविधता प्राधिकरण

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org