कौन तय करेगा इस बलिदान की सीमाएँ

Published on


डूब प्रभावित गाँव कठौतिया के बुजुर्ग आदिवासी जुगराम बताते हैं कि उनके 80 परिवारों वाले उस गाँव, जो अब बरगी जलाशय में डूबा हुआ है, का रकबा 920 एकड़ होता था यानी हर परिवार के पास 11 एकड़ से ज्यादा समतल, उपजाऊ और दो फसली कृषि भूमि हुआ करती थी। तब गाँव के लोग 18 तरह के अनाज और दलहन, 9 तरह की सब्जियाँ और कंद उगाया करते थे। एकाध परिवार ही ऐसा था जिसके पास बहुत थोड़ी जमीन रही हो, उन परिवारों को गाँव का समाज संरक्षण और सुरक्षा देता था।वर्ष 1968 में नर्मदा नदी पर बरगी बाँध के निर्माण की रूपरेखा बनी और 1971 में बाँध बनना। यह वह दौर था जब सरकार और सरकारी विकास योजनाओं के निर्माता बड़े बाँधों को विकास का तीर्थ कहकर निरूपित करते थे। इन बाँधों के कारण विस्थापन और डूब से प्रभावित होने वाले आदिवासियों से कहा गया था कि बड़े विकास के लिये उन्हें जमीन, आजीविका, आवास और सामाजिक ताने-बाने का बलिदान करने में हिचकना नहीं चाहिए ये राष्ट्रहित में हैं। पर क्या यही सच है?

बाँधों और बाँध सरीखी बड़ी विकास परियोजनाओं के विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की माँग को विकास विरोधी घोषित किया जाता रहा है। आश्चर्य है कि विकास की नीतियाँ रचने वाले लोग इस दावे पर बहस करने से हिचकिचाते रहे हैं कि बाँध जैसी परियोजनाएँ विकास का नहीं बल्कि वंचना, गरीबी, भुखमरी और भेदभाव का ताना-बाना गढ़ती हैं। वे जो दावे करके बरगी बाँध के निर्माण में जुटे थे, आज वे उन दावों की सच्चाई और धरातल की वास्तविकता को आमने-सामने रखकर संवाद करने को भी तैयार नहीं दीखते हैं।

जिस वक्त इस बाँध की कार्ययोजना बनाई गई थी, उस वक्त यह कहा गया था कि इस परियोजना के कारण 26729 हेक्टेयर जमीन डूब में आएगी परन्तु स्वतंत्र न्याय अभिकरण के तहत न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) एम. दाउद ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वर्ष 1992 तक ही 80860 हेक्टेयर जमीन डूब में आ चुकी थी। अब भी स्थिति यह है कि कई अलग-अलग प्रयोजनों को आधार बनाकर जमीन को डुबोया और दलदली बनाया जा रहा है। हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि नर्मदा की इस पट्टी में उपलब्ध जमीन बेहद उपजाऊ, ऊर्वर और सम्मोहक रही है। इससे यहाँ के समाज ने न केवल अनाज उगाया है बल्कि समाज को स्थायी विकास के भी कई पाठ पढ़ाए हैं परन्तु बरगी बाँध में 80 हजार हेक्टेयर जमीन डूबा दी गई।

डूब प्रभावित गाँव कठौतिया के बुजुर्ग आदिवासी जुगराम बताते हैं कि उनके 80 परिवारों वाले उस गाँव, जो अब बरगी जलाशय में डूबा हुआ है, का रकबा 920 एकड़ होता था यानी हर परिवार के पास 11 एकड़ से ज्यादा समतल, उपजाऊ और दो फसली कृषि भूमि हुआ करती थी। तब गाँव के लोग 18 तरह के अनाज और दलहन, 9 तरह की सब्जियाँ और कंद उगाया करते थे। एकाध परिवार ही ऐसा था जिसके पास बहुत थोड़ी जमीन रही हो, उन परिवारों को गाँव का समाज संरक्षण और सुरक्षा देता था। अपने अनुभवों को याद करके जुगराम बताते हैं कि जब इस बाँध के बनने की बात सुनने में आई तब हम सोचते थे, नर्मदा मैया को कौन बाँध सकता है! यदि बाँध बनेगा भी तो हमारा गाँव और जमीन थोड़े ही डूबेगी इसलिये हमने सरकार के भूमि अधिग्रहण के बाद पहाड़ों पर जाकर बसना शुरू कर दिया और समतल में बसा कठौतिया गाँव पहाड़ पर जाकर रच-बस गया। हमारे देखते-देखते बाँध बनता गया और जमीनें डूबती गईं। उनके मुताबिक बात केवल जमीन की डूब तक ही सीमित नहीं है। जंगल की सम्पदा भी तो तहस-नहस हो गई। उनके गाँव के लोग ही लगभग 1500 एकड़ में फैले जंगल से अपनी कई जरूरतें पूरी करते थे। उन जंगलों में आँवला, महुआ, कबीट के पेड़ होते थे। गाँव में ही हर खेत पर पलाश के पेड़ होते थे जिनकी पत्तियों से घरों को सजाया जाता था, जानवरों के बाड़ों, छतें बनती थीं और नए घर बनाए जाते थे। एक पेड़ हर साल एक हजार रुपए की सामग्री देता था और आज स्थिति यह है कि अपनी छोटी से छोटी जरूरत पूरी करने के लिये हमें बाजार की ओर भागना पड़ता है। डूब से पहले हमारे घर का कोई हिस्सा टूटा-फूटा नहीं होता था, पर अब आपको हर घर एक तरह से जर्जर स्थिति में मिलेगा क्योंकि छप्पर, बाँस, बल्ली सब कुछ बाजार से लाना पड़ेगा, जिसे खरीदने के लिये किसी एक घर में भी पैसा नहीं है। एक बार मरम्मत का खर्च होता है 5000 रुपए से ज्यादा वह भी नकद में। बींझा गाँव के गोपाल उईके बताते हैं कि हर गाँव में औसतन 200 महुआ के पेड़ होते थे, जिनसे खाना, तेल और पेय की जरूरत पूरी होती थी। आज की कीमत के मान से महुआ का एक पेड़ 5000 से 7000 रुपए का उत्पादन देता था। इसी तरह गाँव में और आसपास लगभग 150 से 200 आम के पेड़ मौसम में खुश्बू घोलते थे और 7-8 हजार रुपए का उत्पादन भी। एक गाँव के डूबने का मतलब है 500 टरमेरिण्ड पेड़ों का खत्म होना और केले, जामुन, नींबू और पपीते के सैकड़ों पेड़ों का डूब जाना। ये व्यवस्था थी उन गाँवों की, जिनमें हम रहा करते थे। इनसे पूरी खाद्य सुरक्षा और पोषण सम्बन्धी जरूरतें पूरी हो जाती थी। इन उत्पादों को मण्डी में बेंचकर हर परिवार दस हजार रुपए कमा लेता था; पर आर्थिक सुरक्षा बरगी बाँध में डूब गई।

बींझा के मथन सहयार बताते हैं कि खेती की जमीन इतनी उपजाऊ होती थी कि हमारे गाँव के किसान बिना रासायनिक ऊर्वरक, खाद और कीटनाशक से बेहतरीन किस्म के गेहूँ, ज्वार, धान, मक्का, चना, मसूर और दूसरे अनाजों का उत्पादन करते थे। उस धरती ने एक-एक एकड़ में 13-15 क्विंटल गेहूँ और 7 से 8 क्विंटल दलहन की पैदावार दी है। खेती हमारी सुरक्षा का मूल आधार रही है। यहीं से सुखराम उईके के मुताबिक एक एकड़ जमीन 1972 में दो फसलों में 12 हजार रुपए का मुनाफा देती थी और कम-से-कम गाँव के लोगों ने जमीन की उर्वरता का शोषण नहीं किया था इसलिये तय था कि हमें हमेशा धरती से ऐसी ही सम्पन्नता मिलती। खास बात यह है कि नर्मदा पट्टी के किसान एकल अनाज की पद्धति अपनाने के बजाय 9 अनाज, 12 अनाज या 16 अनाज का उत्पादन करते थे, जिससे कीटों या बीमारी या सूखे ने गाँवों में आपातकाल नहीं लग पाया। कभी सोचा नहीं था कि हमें बाजार से अपनी जरूरत पूरी करने के लिये किश्तों में, उधारी में और निम्न गुणवत्ता का अनाज खरीदना पड़ेगा क्योंकि आज हमारे पास आजीविका के इतने साधन भी नहीं हैं कि हम एक बार में महीने भर की जरूरत का राशन एक साथ खरीद सकें। एक सामूहिक चर्चा में लोग ‘‘जमीन के बाजार की व्यवस्था’’ के बारे में बताते हुए कहते हैं कि हमने ऐसे कम ही मौके देखे-सुने जब जमीनों की बार-बार खरीदी-बिक्री हुई हो। इसीलिये जमीन की कीमतों पर नियंत्रण रहता था। 1980 के दशक के शुरुआती सालों में यहाँ जमीन की कीमत 5 हजार रुपए एकड़ के आसपास रही पर संकट पैदा तब हुआ जब हजारों हेक्टेयर जमीन को बाँध में डूबाने की बात चली।

कोई नहीं जानता कि सरकार को भी इस परियोजना के प्रभावों या कहें कि दुष्प्रभावों के बारे में कुछ अन्दाजा था भी या नहीं। मंथन सहयार को उनकी 8 एकड़ अनमोल जमीन के एवज में 9408 रुपए यानी 1176 रुपए प्रति एकड़ के मान से मुआवजा दिया गया। जिस एक एकड़ जमीन से वे 10 हजार रुपए हासिल करते थे, उस जमीन के एवज में उन्हें 1176 रुपए देकर हमेशा के लिये अधिग्रहीत (क्या हम कहें सरकारी छीनना) कर लिया गया। उनके 36 पेड़ों के लिये कोई मुआवजा नहीं दिया गया। जबकि ये पेड़ पर्यावरण, समाज और आर्थिक सुरक्षा का आधार भी थे। गोपाल उईके को उनकी 18 एकड़ जमीन के एवज में 25300 रुपए का मुआवजा मिला और आज उनके बेटे मजदूरी की तलाश में गाँव से साल में 6 महीने पलायन पर रहते हैं। जहाँ उन्हें एक की मजदूरी के लिये 100 से 125 रुपए मिलते हैं; इसमें भी कोई स्थायीत्व नहीं है। गोपाल दादा को पता है कि नेहरू जी ने बड़ी विकास परियोजाओं के लिये बलिदान देने का आह्वान किया था, ऐसे में वे सवाल करते हैं कि हम 35 सालों से हर रोज बलिदान दे रहे हैं पर सरकार ने इस बलिदान के लिये जो वादे किये थे, उन्हें वह कैसे भूल गई? अगर हमें लाश भी मान लिया है तो कम-से-कम सम्मानजनक ढंग से अन्तिम संस्कार तो करने की जिम्मेदारी निभाते!

आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण (जबलपुर) द्वारा बरगी बाँध की डूब से प्रभावित आदिवासी परिवारों के पुर्नस्थापन विषय पर किये गए अध्ययन में लिखा गया है कि बाँध से 13 किलोमीटर दूर बसे सहजपुरी गाँव में सर्वेक्षित दो परिवारों के पास 10.8 हेक्टेयर भूमि थी, जिसे बाँध परियोजना द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया। जिसके लिये 21 हजार रुपए मुआवजे के रूप में दिये गए यानी बाजार कीमत से 13 गुना कम कीमत पर। जो बहुत ही कम है। बाँध परियोजना द्वारा दी गई राशि से 10.8 हेक्टेयर भूमि क्रय नहीं की जा सकती। इसके फलस्वरूप यह दोनों परिवार जीविकोपार्जन के साधन से वंचित हो गए। जबकि बाँध परियोजना द्वारा बाजार कीमत रुपए 25 हजार प्रति हेक्टेयर के मान से मुआवजा राशि रुपए 2.70 लाख रुपए दिया जाना चाहिए था तभी अधिग्रहीत रकबे के बदले उतना ही अलग से रकबा खरीदा जा सकता था। यदि यह स्थिति बाँध परियोजना द्वारा अपनाई जाती तो शायद आज यह परिवार जीविकोपार्जन की समस्या से वंचित नहीं रहते हैं। इसी तरह जबलपुर जिले के 2000 की जनसंख्या वाले कालीदेही गाँव की नई बसाहट के लिये 1986 में बाँध परियोजना ने नए स्थान का चयन कर लिया था किन्तु 1992 तक वहाँ किसी भी परिवार को भूखण्ड आवंटित नहीं किया गया। सरकार जानती थी कि इस गाँव के लोगों को दो किलोमीटर दूर से पानी लाकर अपनी जरूरत को पूरा करना होगा। आज यानी वर्ष 2010 की स्थिति में भी बींझा गाँव के लोगों को एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है; वह भी पहाड़ी रास्तों से।

जंगल और जमीन के साथ ही पशुपालन की संस्कृति का सीधा और गहरा जुड़ाव रहा है। स्वाभाविक है कि नर्मदा रेखा के जो गाँव भू-सम्पन्न और वन सम्पन्न रहे हैं पशुधन सम्पदा से वे भरपूर रहे ही होंगे। सुखराम उईके के मुताबिक डूब से पहले बींझा गाँव में लगभग 2400 मवेशी और पशुधन था; उनके खुद के परिवार में 30 जानवर, जिनमें, गाय, बैल, भैंस शामिल थे, पाले जाते थे। नर्मदा पर निर्भर रहे इस गाँव की सम्पन्नता का अनुमान जरा इन अनुभवों से लगाइए कि जब भी नर्मदा परिक्रमावासी बींझा गाँव में आते थे तो उनमें से हर एक को अनाज, दाल, आटा, फल, सब्जी के साथ-साथ दो किलो दूध और दो किलो घी सब्जी दान स्वरूप दिया जाता था।

अनीतिगत विकास

पशुधन का विनाश

विकास के आकलन और जनविरोधी नीतियों पर सवाल

क्या खेती को भी लाभ मिला?

आदिवासियों के पुनर्वास के सन्दर्भ में उन्हें आजीविका के लिये जमीन के विकल्प से बेहतर कुछ भी नहीं है। यदि ऐसा होता है कि आदिवासी परिवार की जितनी जमीन परियोजना के कारण अधिग्रहीत की गई है उतनी मात्रा में न भी दी जा सके तब भी यह तो सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि उन्हें कुछ जमीन दी जाये ताकि ये परिवार अपने पारम्परिक आजीविका के साधन से उजाड़े न जाएँ।

और फिर टूटता गया विश्वास

यह विकास सरकार का गुलाम बनाता है और समाज-गाँव की आत्मनिर्भरता को खत्म करता है। हमारे गाँव पूरी तरह अत्मनिर्भर थे। हम सरकार के पास केेवल नमक लेने जाते थे इसके अलावा सरकार से और कोई उम्मीद नहीं करते थे पर इस बाँध ने अब पूरा गुलाम बना दिया।
नकद मुआवजा एक षडयंत्र है। नकद मुआवजा कितना ही मिले यह सरकार, माफियाओं और बाजार के पास चला जाता है। षडयंत्र रचकर वे हमसे इसे छीन लेते हैं। नकद मुआवजे को पुनर्वास नहीं माना जा सकता है; फिर भले ही यह कितने ही लाख क्यों न हो! यदि जमीन और जंगल हमारे पास नहीं हैं तो व्यक्ति और समाज दोनों की आत्मनिर्भरता खत्म हो जाती है। ये सरकार कौन से विकास की बात करती है जिसमें लोग उजड़ते हैं, भूख पैदा होती है और हकों की आवाज को कुचला जाता है।

मुआवजे और पुर्नवास के मायने

भू स्वामियों एवं पट्टाधारियों को यथा सम्भव निश्चित समय सीमा में मुआवजा भुगतान किया जाएगा। शासन की निर्धारित नीतियों के अन्तर्गत पात्रता के अनुसार, उनकी भूमि आवंटन करने पर यथा सम्भव विचार किया जाएगा।

बाँधों में डूबी गाँवों की पहचान

और मछली भी छिन गई!

सेहत भी बिगड़ती गई!

क्या सिखाता है बरगी के विस्थापन का इतिहास

India Water Portal Hindi
hindi.indiawaterportal.org