कहाँ गुम होते जा रहे हैं -हम

कहाँ गुम होते जा रहे हैं -हम

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इस योजना का प्रमुख अंग था हिमालय के समानान्तर एक बड़ी नहर का निर्माण करके उसे मध्य देश और दक्षिण में दो गोलाकार ‘गार्लेन्ड’ नहरों से जोड़ना और फिर इनमें बहते हुए पानी को छोटी-छोटी नहरों के द्वारा जगह-जगह ले जाना। दस्तूर ने इस पर कुल 7000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया था जो किसी भी राष्ट्रीय बैंक की सहायता से प्राप्त हो सकते थे। इस योजना का मूल उद्देश्य उस लाखों क्यूसेक पानी का भण्डारण और वितरण करना था जो पिघलते हिमखण्ड प्रतिवर्ष हमारी नदियों को देते हैं और जो इन नदियों के माध्यम से समुद्र के पेट में चला जाता है।

‘इण्डिया हैज मोर वेल्थ इन वाटर दैन अरेबिया हैज इन आॅइल’।
‘ऋणम कृत्वा घृतम पिवेत’
‘‘ओ मेरे प्यारे नीमताल, क्यों तेरी बिगड़ी हालत है
जब पास बनी है अस्पताल, ओ मेरे
तुझको क्या रोग समाया है, किसको तूने बतलाया है
अब नहीं है चिन्ता जनता को, हमको चिन्ता है आज-कल
ओ मेरे प्यारे.....’’
‘‘धरम-करम को महुआ खेड़ो, पाप की पगरानी,
बड़ी रुसल्ली कोई मत जइयो, छौंछन नईयाँ पानी’’
इकलख चढ़े तुरकिया रे, दुई लाख पठान
फौजें चढ़ी मुगल की, दिल्ली सुल्तान
कटन लगे तेरे आम, नीम, महुआ, गुलजार
बेला, चमेली, रस केवड़ा, लौंगन के झाड़, लटकारे अनार
पुरन लगे तेरे कुआँ-बावड़ी, गौ मरे प्यास, वामन अस्नान
राजा जगत सेवा करी ओ माय…
छप्पनिया के काल में समय कहे कि देख,
बेर-करौंदा यों कहें मरन न दैहें एक।
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