लखनदेई तटबन्ध के कारण हुआ नरसंहार

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पृष्ठभूमि

पानी की कमी के कारण संघर्षों की कहानियों की तलाश में बहुत सी संस्थाएँ और लोग आजकल बड़े मनोयोग से लगे हुए हैं। ‘जल ही जीवन है’ का संदेश सारी दुनियाँ में प्रमुखता पा रहा है और यह सच भी है कि जल के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। यहाँ से बात जब आगे बढ़ती है तब यह वनों के विनाश, प्रदूषण, ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, वैश्विक तापक्रम में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर का पिघलना तथा पानी को लेकर होने वाले अगले विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी तक पहुँचती है। इन सभी शीर्षकों की तह में पानी की कमी की एक अन्तर्धारा बहती रहती है। बाढ़ या पानी की अधिकता, भले ही वह थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो, की अगर कोई चर्चा करता भी है तो सिर्फ इतनी कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ के परिमाण और तीव्रता में वृद्धि होगी और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण बरसात के बाद नदियों में पानी कम हो जायेगा और वे सूख जायेंगी और फिर सूखा या दुर्भिक्ष पड़ेगा। कुल मिलाकर बात फिर पानी की कमी और सूखे पर लौट आती है। आम धारणा यही है कि पानी के लिए द्वन्द्व या युद्ध क्षेत्र तक पहुँचने वाला रास्ता पानी की कमी वाली गली और सूखे वाले रास्ते से हो कर गुजरता है।

यह मान्यता आंशिक रूप से ही सच है। पानी से संबन्धित बहुत सी समस्याओं को एक ही लाठी से हाँकने वाले विशेषज्ञों तक को यह समझा पाना बड़ा मुश्किल होता है कि बाढ़ क्षेत्रों की समस्या सूखे वाले क्षेत्रों से ठीक उलटी होती हैं-वैसी ही जैसी आइने में हम अपनी शक्ल देखते हैं। आइने में जो कुछ भी दिखता है वे हमारी ही छवि होने के बावजूद हमारे अक्स का ठीक उल्टा होता है। पानी की थोड़ी बहुत कमी से लोग बड़ी आसानी से निबट लेते हैं मगर परेशानी तब होती है जब कमी ‘किल्लत’ बन जाती है। उसी तरह कम गहराई की विस्तृत इलाके पर आई बाढ़ का जहाँ स्वागत होता है वहीं बड़ी बाढ़ की चपेट में कोई भी पड़ना नहीं चाहता। यही वजह है कि बाढ़ क्षेत्र के हर व्यक्ति की यह चाहत होती है कि उसका अतिरिक्त पानी दूसरे लोगों के पास चला जाए या दूसरे क्षेत्र से ही हो कर बहे तो अच्छा है। यही कारण है कि नदी के इस पार या उस पार तथा नदियों पर बने तटबन्धों के अन्दर और बाहर रहने वाले लोगों के बीच पूरे बरसात के मौसम में अपना पानी दूसरे के इलाके में बहा देने की एक होड़ सी लगी रहती है। यह होड़ ऐसे लोगों के बीच होती है जिनकी आपस में मित्रता और रिश्तेदारियाँ होती हैं और बाढ़ के मौसम को छोड़ कर उनका आपस में रोज का उठना-बैठना और भोजन-भात चलता रहता है। बाढ़ के समय तटबन्ध उन्हें दो पालों में बाँट देता है और उनकी तात्कालिक सुरक्षा की जरूरतें कभी-कभी संघर्ष का रूप ले लेती हैं जिससे आपसी हमले में पहले जहाँ लाठी, गँड़ासों और भालों का उपयोग होता था, आजकल बदलते समय के साथ बन्दूकों और बमों का भी प्रयोग होने लगा है।

अगस्त 1970 में बिहार की बागमती और लखनदेई के दोआब में इसी तरह से दो विपरीत हितों वाले समूह अपनी बाढ़ का पानी एक दूसरे को देने के उद्देश्य से अस्त्र-शस्त्र के साथ आमने-सामने आ गए थे जिसमें कई लोगों को अपनी जान गवांनीं पड़ गयी थी। यह महज इतिफाक है कि यह सभी गाँव उसी काले पानी वाले इलाके में अवस्थित हैं जिनके बारे में हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी। आज से चालीस साल पहले हुई यह दुर्घटना जब घटित हुई थी तब ऊपर दी हुई शब्दावली विनाश, प्रदूषण आदि में से वनों के विनाश को छोड़ कर शायद दूसरे शब्द-समूह प्रचलन में भी नहीं आये थे। इतना कह कर हम उस संघर्ष के बारे में बात करते हैं।

लोहासी (सीतामढ़ी) कांड

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे...

राजधारी राय (लोहासी)

राम स्वरथ साह (गिसारा)

अवध किशोर चौधरी (कठौर)

फुद्दन शाही (खोंपी)

राम चंद्र साह (खोंपा)

उपसंहार

गणेश साह (खोंपा)

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