मैं गंगा क्यों मैली हूँ

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हूँ पतित पावनी,जीवन दायी
मैं गंगा क्यों मैली हूँ
तट मेरे सजते कालजयी पर्वोत्सव से
स्वयं क्यों क्षीणा हूँ
कल मैं अपनी लहरों के संग
खूब किल्लोलें करती थी
अमृत सा था ये जल
सबके परलोक सुधारा करती थी
जन गण की प्यास बुझाती
मैं फिर क्यों प्यासी रहती हूँ
महा गरल से त्रस्त हो रही
मरती जाती हूँ
साक्षी रही इतिहास बदलते
देखे हैं मैंने
सिंहासन से स्वर्ण किरीट भी
गिरते देखे हैं मैंने
दुःख है उसी इतिहास गर्त में
लुप्त हो रही मैं
माँ हूँ संतानों से निज जीवन
मांग रही हूँ मैं
मेरे तट पर घोष करें सब
हर हर हर गंगे
शापित सी मरती जाती यह
पल पल माँ गंगे !!

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