माँ गंगे

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अमृत घट प्रवहित शुचि धारा
हिमवान पिता का मधुर हास
लहरों में तेरी गूँजे था सतत
जीवन का मधुरिम उल्लास

शिव अलकों से निकलीं अविरल
कल-कल कलरव करतीं गंगे
अवनि पर स्वर्ग सोपान रहीं
सहमी सहमी बहती क्यों गंगे

कभी सूर्य रश्मियाँ भोर चढ़े
तुमसे मिलने को आती थीं
सुर सरि तुम्हरे पावन जल में
स्वर्णिम अठखेली करती थीं

क्यों श्रांत साँझ सी दिखती हो
रहतीं क्यों शिथिल स्वरा गंगे
क्यों रूकती ठिठकी बहती हो
बह भी लो लहर लहर गंगे

युग युग से पाप हरे जग के
संस्कृति की पहचान रहीं
वैदिक ऋचाओं की उर्मि तुम
जीवन का शाश्वत गान रहीं

जीवन-सौरभ की सरस धार
क्यों मरूरज में परिणत गंगे
भर दो फिर शुष्क पुलिनों को
हे पतित - पावनी माँ गंगे !!

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