माँ गंगे

Published on
1 min read

अमृत घट प्रवहित शुचि धारा
हिमवान पिता का मधुर हास
लहरों में तेरी गूँजे था सतत
जीवन का मधुरिम उल्लास

शिव अलकों से निकलीं अविरल
कल-कल कलरव करतीं गंगे
अवनि पर स्वर्ग सोपान रहीं
सहमी सहमी बहती क्यों गंगे

कभी सूर्य रश्मियाँ भोर चढ़े
तुमसे मिलने को आती थीं
सुर सरि तुम्हरे पावन जल में
स्वर्णिम अठखेली करती थीं

क्यों श्रांत साँझ सी दिखती हो
रहतीं क्यों शिथिल स्वरा गंगे
क्यों रूकती ठिठकी बहती हो
बह भी लो लहर लहर गंगे

युग युग से पाप हरे जग के
संस्कृति की पहचान रहीं
वैदिक ऋचाओं की उर्मि तुम
जीवन का शाश्वत गान रहीं

जीवन-सौरभ की सरस धार
क्यों मरूरज में परिणत गंगे
भर दो फिर शुष्क पुलिनों को
हे पतित - पावनी माँ गंगे !!

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org