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मोरी वाले तालाब

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बुजुर्ग लोग कहते हैं, पानी की ऐसी व्यवस्था करो कि समाज और खेत-दोनों को किसी का मोहताज नहीं होना पड़े। जब जरूरत महसूस हुई, जितने पानी की आवश्यकता हुई, अपनी नहर, अपने नालचे और अपनी नाली, इनसे पानी ले लीजिए। सैकड़ों साल पहले भौगोलिक स्थितियों के मुताबिक जल प्रबंधन की व्यवस्था का भी सन्देश देते हैं, लेकोड़ा के मोरी नाले वाले तालाब....!!

........मालवा में मौजूद एक अनूठी तालाब प्रणाली....! .... उज्जैन जिले में मुख्यालय से 20 कि.मी. दूर लेकोड़ा क्षेत्र में रियासतकाल की मौजूदा व्यवस्था में आप बूँदों का दिलचस्प सफल जानना चाहेंगे.....? ......वे पहले पहाड़ या खेतों में बरसीं। फिर आगे बढ़ीं। एक तलाई से दूसरी तलाई। एक तालाब से दूसरे तालाब में। सफर चलता रहा। तालाब के बाद भी चैन कहाँ.....! ....क्योंकि लेकोड़ा में मालवा-निमाड़ क्षेत्र का अपनी तरह का अनूठा जल प्रबंधन रहा है। यहाँ मोरी या नालचा वाले तालाब हैं। और ये बूँदें इन्हीं तालाब से निकलकर मोरी में सफर करतीं, हर खेत में वे जाती और धरती की प्यास बुझाकर फसलों की सौगात देतीं। ....ये तालाब और उसकी प्रणाली, परम्परागत जल प्रबन्धन की कहानी आज भी सुनाते मिल जाएँगे....!

उज्जैन के पास बसे लेकोड़ा क्षेत्र से रेल निकलती है। यहाँ खाती समाज के लोग बहुतायत में निवास करते हैं। यह समाज खेती के प्रति खास रुझान रखता है और इनकी मेहनत-प्रवृत्ति के किस्से आपको कई लोग सुनाते मिल जाएँगे। इन तालाबों का इतिहास तो गाँव वालों को ठीक-ठीक नहीं पता नहीं, लेकिन गाँव के जमींदार परिवार के वंशज और राजस्व वसूली पटेल बालमुकुंद सावंतराम पटेल कहते हैं, “बुजुर्ग बताते हैं कि ये तालाब आठ सौ से एक हजार साल पुराने हैं। प्रायः सात तालाबों की शृंखला का जिक्र आता है। कुछ और तालाबों के बारे में भी कहा जाता है। कुछ तलाई व तीन तालाब तो अभी भी मौजूद हैं और क्षेत्र की जल प्रबंधन व्यवस्था के ‘नायक’ बने हुए हैं। शेष तालाब या तो सूख चुके हैं अथवा उनमें खेती की जाने लगी है।”

लेकोड़ा और आसामपुरा की पहाड़ी तथा खेतों से बहकर आने वाला पानी तलाइयों से होते हुए झाड़किया तालाब में आता है। इस तालाब का नाम झाड़किया इसलिए पड़ा, क्योंकि किसी जमाने में इसकी पाल पर काफी वृक्ष हुआ करते थे। वृक्ष को गाँवों और शहरों में भी प्रायः झाड़ बोला करते हैं। इन्हीं के नाम पर इसका नाम झाड़किया तालाब पड़ गया।

झाड़किया तालाब का पानी ओवर-फ्लो होकर सदों तालाब में जाता है। सदो का मतलब होता है संदूक। और संदूक यानी पेटी। जिस तरह कोई चीज संदूक में जाती है तो व्यवस्थित रखी रहती है, उसी तरह गाँव में तत्कालीन समाज की मान्यता थी कि इस तालाब की संरचना भी पानी को ‘रखने’ के सन्दर्भ में संदूक जैसा ही है, सो, इसे संदूक का नाम दे दिया गया। इस तालाब का पानी ओवर-फ्लो होकर टकारिया तालाब में जाता है। इस तालाब की कहानी यह है कि इसकी पाल लेकोड़ा की सीमा में बनी हुई है। उसी पर से रेलवे लाइन निकली हुई है, लेकिन उस पर जो गाँव बना हुआ है, उसका नाम टंकारिया है। इसीलिए इसे टंकारिया-तालाब कहते हैं। इसे बड़ा तालाब भी कहते हैं। यह शृंखला का अन्तिम तालाब है, जो करीब 3 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। यहाँ तलाइयाँ भी रियासतकाल के दौरान ही बनी हुई थीं। मसलन, रेत तलाई, राम पटेल की तलाई, मुकाती की तलाई व अन्य। इन सभी तालाबों व तलाइयों का पानी ओवर-फ्लो होकर अन्ततः टंकारिया के तालाब में आकर मिलता था।

....अब हम जल प्रबंधन के अन्तिम तालाब टंकारिया के किनारे खड़े हैं। गाँव के श्री सिद्धनाथ और विष्णुकुमार वर्मा हमें यहाँ लाए।

यहाँ बरसों पहले समाज के पुरखों ने जो पानी का प्रबंध किया था, वह बेमिसाल माना जा सकता है और आज के समाज के लिए प्रेरणास्पद! तालाब के वेस्ट वियर के पास एक गेट बना हुआ है। यहाँ लगभग चार ‘नालचा’ बने हुए हैं। नालचा याने पानी निकालने की नाली। यह तालाब और खेतों में जाने वाली नहर प्रणाली का मध्य बिन्दु है। लकड़ी के पट्टों स्थानीय भाषा में दगड़ों से इसे बंद रखा जाता था। जब खेतों में सिंचाई की जरूरत होती, तब इसे खोल दिया जाता था। पानी का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता। नहर से निकलने वाले पानी को किसान अपने-अपने खेतों में नालियाँ बनाकर ले जाते। इसका प्रबंधन भी बड़ा दिलचस्प होता। एक खेत में सिंचाई के बाद मिट्टी डालकर पानी का प्रवाह इस खेत की ओर बन्द करके उसे दूसरे खेत की ओर डायवर्ट कर दिया जाता। यह सिलसिला हर खेत के लिए लागू होता। पूरा समाज आपस में तय कर लिया करता था कि फलां दिन-फलां समय अमुक-अमुक के खेतों में पानी जाना है, बिना किसी विवाद के ‘मोरी प्रणाली’ के माध्यम से सभी खेतों की सिंचाई हो जाया करती थी। खेतों का यह ‘नेटवर्क’ हमें विंध्य क्षेत्र के सतना जिले के अमर पाटन के गौरसरी गाँव में भी देखने को मिला था। लेकिन वहाँ पानी का प्रवाह डायवर्ट करने के लिए पत्थरों से बनी एक संरचना ‘काणी’ की मदद ली जाती है।

टंकारिया गाँव में अनेक बुजुर्ग हैं, जो बताते हैं कि किस तरह उन्होंने ‘मोरियों’ से अपने तालाबों की सिंचाई की है और रबी की फसलें लेते रहे। यह तालाब दूर तक फैला हुआ है। शृंखला के तालाबों के अलावा इसमें लिमड़ा व चिमला के जंगल तथा रानावत की पहाड़ी से भी पानी आकर एकत्रित होता है।

इस अत्यन्त प्राचीन पद्धति की तर्ज पर सिंचाई विभाग ने भी तालाब के वेस्ट वियर के गेट पर टैंक बनाकर केनाल के माध्यम से सिंचाई की व्यवस्था सन 1980 से प्रारम्भ करवाई थी, लेकिन बाद में यह प्रणाली भी समाप्त प्राय हो गई।

गाँव वालों के मुताबिक रियासतकालीन जल प्रबन्धन व्यवस्था के पीछे यहाँ की भौगोलिक संरचना भी काफी हद तक जिम्मेदार है। यहाँ 70 फीट तक मिट्टी निकलती है। कुआँ खोदना और उसे बाँधना काफी संकटों से भरा रहा है। अभी भी गाँव में इक्का-दुक्का कूप ही मिलते हैं। इसलिए उस काल में मौजूद रही परम्परागत चड़स प्रणाली भी यहाँ कारगर साबित नहीं हो सकती थी। गाँव के ही मनोहरलाल, सिद्धनाथ, विष्णुकुमार वर्मा कहते हैं, हमने खुद तालाब की मोरी पद्धति से अपने खेतों में सिंचाई की है। पहले गन्ने की खेती की जाती थी। बाद में इसका बाजार ठीक से उपलब्ध न होने के कारण गेहूँ की फसल ली जाने लगी। इसी गाँव में 700 एकड़ क्षेत्र में इसी तरह सिंचाई होती रही। बाद में तालाब के पानी को लेकर गाँव में मछली पालन के मुद्दे पर कुछ विवाद हुआ और इसी दरमियान ट्यूबवेल खोदने की ‘भेड़चाल’ के चलते अनेक लोगों ने अपने खेतों में ट्यूबवेल खुदवा लिए। गाँव वालों के अनुसार, “उन्होंने बारह महीने इन मोरियों को चलते देखा है। तालाब भरा रहता था, जब जरूरत हुई पानी की, गेट खोलकर पानी प्रवाह शुरू करवा देते थे।”

इस तालाब का पानी तालोद व अन्य गाँवों तक इन मोरियों के माध्यम से ले जाया जाता था। अभी भी इन गाँवों में बड़े पैमाने पर रबी की फसल ली जा रही है, इसका मूल आधार बरसों पहले किया गया पानी का परम्परागत प्रबन्धन है, जाहिर है, इसी वजह से प्रायः अनेक ट्यूबवेल जिन्दा रहते हैं।

.......पानी संचय प्रेमी पाठकों!
.....लेकोड़ा के परम्परागत जल प्रबन्धन का क्या संदेश है?

.....शायद यही कि.... पहाड़ से दूर खेत तक हर जगह नन्हीं-नन्हीं बूँदों को रोको! पानी की ऐसी व्यवस्था करो कि समाज और खेत-दोनों को किसी का मोहताज नहीं होना पड़े। जब जरूरत महसूस हुई, जितने पानी की आवश्यकता हुई, अपनी नहर, अपने नालचे और अपनी नाली, इनसे पानी ले लीजिए। सैकड़ों साल पहले भौगोलिक स्थितियों के मुताबिक जल प्रबंधन की व्यवस्था का भी सन्देश देते हैं, लेकोड़ा के मोरी नाले वाले तालाब....!!

...यहाँ की अपेक्षाकृत समृद्धि का भी राज खोलते हैं ये तालाब....!!
 

मध्य  प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जहाज महल सार्थक

2

बूँदों का भूमिगत ‘ताजमहल’

3

पानी की जिंदा किंवदंती

4

महल में नदी

5

पाट का परचम

6

चौपड़ों की छावनी

7

माता टेकरी का प्रसाद

8

मोरी वाले तालाब

9

कुण्डियों का गढ़

10

पानी के छिपे खजाने

11

पानी के बड़ले

12

9 नदियाँ, 99 नाले और पाल 56

13

किले के डोयले

14

रामभजलो और कृत्रिम नदी

15

बूँदों की बौद्ध परम्परा

16

डग-डग डबरी

17

नालों की मनुहार

18

बावड़ियों का शहर

18

जल सुरंगों की नगरी

20

पानी की हवेलियाँ

21

बाँध, बँधिया और चूड़ी

22

बूँदों का अद्भुत आतिथ्य

23

मोघा से झरता जीवन

24

छह हजार जल खजाने

25

बावन किले, बावन बावड़ियाँ

26

गट्टा, ओटा और ‘डॉक्टर साहब’

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