नदी मां

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पहाड़ पर आकर
कवि को ताप हो गया है
किंतु हर्षित नदी
कोई लोकगीत गा रही है, जैसे पर्व मना रही है
कवि गीत को समझ नहीं पा रहा है
केवल ताप में बुड़ाबुड़ा रहा है-
मां, ओ नदी मां, मुझे थोड़ा-सा बल दो
मेरी सूख रही जिजीविषा को जल दो

मां, तुमने अपने रास्ते
कई बार बदले हैं
एक बार और बदल लो
आज की रात तुम मेरे कक्ष में बहो
मेरे अंग-संग रहो

सुबह मैं पुनर्जिजीविषत हो
शहर को लौट जाऊंगा
जहां तुम्हारी पुत्रवधू औ’ पौत्र प्रतीक्षारतहोंगे

मां! लोकगीत मत गाओ
हर्ष न मनाओ
मेरे ताप-तल्प तक चली आओ
मुझे लोरियां सुनाओ

...तभी कवि के कानों में
एक पहाड़ी आवाज
मंत्र-भाषा में बुदबुदाती है-
नदी गा नहीं रही है वह तो प्रार्थनारत है
एक बार फिर रास्ता बदलकर
अपने पाहुन पुत्र के पास आ रही है

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