नदी पर चाँद

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तना हुआ एकांत है
गहरे रात दूर तक
चेतना चमकती है
निराकार

कटार और फीते में फर्क है
लहर-भर
हवा ने चुपके से चमकती नदी से कहा।

और धारियाँ संगमरमर की
तैरने लगीं बेखबर
बनकर बिजली
मछलियाँ-
चमकता हुआ जाल धुलने लगा
चारों ओर-

अकेला बतख तैरता है
डुबकियाँ लेता
किनारे तक
चमक जाते
लहरों के भीतर तक
छायाएँ

रच रहीं अपना शीशमहल।
दूर यात्रिकता से
समय से परे
निर्गंध
अकुलाहटों से मुक्त
जैसे कि हँसना:
गहरे तक दूर तक
चमकती हुई चेतना-

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